सोमवार, 25 मई 2020

Train Journey from Agra to Gwalior

आगरा से ग्वालियर पैसेंजर ट्रेन से यात्रा 

Date of Journey : 03 December 2019


सपना संजोना और उसे फिर हकीकत में बदलने के लिए संघर्ष करना , यही एक इंसान की फितरत होती है और यही उसे जीवन जीने के लिए पल -पल , क्षण -क्षण प्रेरित भी करता है। सपने अलग हो सकते हैं , संघर्ष अलग हो सकता है लेकिन सोच एक होती है -अपने सपने को हकीकत में बदलने की नियमित कोशिश करना।

  
सपना तो नहीं कहूंगा इसे लेकिन लिस्ट में जरूर शामिल किया हुआ है। ये है नई दिल्ली से तिरुवनंतपुरम तक केरला एक्सप्रेस ( 12626 ) के रूट को फॉलो करते हुए पैसेंजर से यात्रा करना। कठिन नहीं है ! कहने में जितना आसान है करने में उतना ही मुश्किल क्योंकि मेरे जैसे एक बहुत सामान्य व्यक्ति के लिए नौकरी और फॅमिली के बीच से समय चुराना पड़ता है , निकलता नहीं। मैं जब इस यात्रा को बनाने बैठा था तो 22 दिन लग रहे थे क्योंकि मेरा मकसद सिर्फ स्टेशन के फोटो लेना ही नहीं है , रास्ते में पड़ने वाले मुख्य स्थानों के साथ -साथ कम प्रसिद्ध जगहों की पहचान करना और उनको घूमना भी शामिल है। कुल 3033 किलोमीटर की इस यात्रा में अभी तक कुल 600 किलोमीटर की यात्रा संपन्न हो पाई है लेकिन विश्वास है कि होगी जरूर और ये मैंने देखा है जो मैं ठान लेता हूँ उसे करके ही रहता हूँ। हाँ , देर लगती है लेकिन उस काम को ईश्वर के आशीर्वाद से पूरा कर पाता हूँ। ज्यादा बड़े ख्वाब नहीं हैं मेरे ... 


पिछली यात्रा में हम नई दिल्ली से मथुरा तक जा पहुंचे थे। आज आगरा छावनी से ग्वालियर जंक्शन तक चलते हैं। रोड से जाएंगे तो दूरी 120 किलोमीटर की है लेकिन ट्रेन से जाएंगे तो दूरी 2 किलोमीटर और कम हो जाती है और बचती है 118 किलोमीटर। आगरा छावनी से ग्वालियर जंक्शन तक अगर इन दोनों स्टेशन को शामिल करते हैं तो कुल 14 रेलवे स्टेशन मिलेंगे जिनमें से ज्यादातर स्टेशन ऐसे हैं जो बहुत छोटे हैं और मुझे भरोसा है आपने इनमें से कई के नाम भी नहीं सुने होंगे। 


आगरा में जहाँ तक मैं जानता हूँ : आगरा छावनी , आगरा फोर्ट , राजा मण्डी , जमुनापार और बिल्लोचपुरा कुल पांच स्टेशन है। सबसे बड़ा और सबसे व्यस्त स्टेशन आगरा कैंट (छावनी ) है जो दिल्ली -मुंबई के बिजी ट्रैक पर है और लगभग सभी ट्रेनें रूकती हैं यहां। मैं निजामुद्दीन से दक्षिण एक्सप्रेस से सुबह दो -ढाई बजे रात में ही आगरा कैंट पहुँच गया था जबकि आगरा कैंट से झाँसी की तरफ जाने वाली पैसेंजर ट्रेन सुबह 6 :05 निकलती है यानी मुझे करीब चार घण्टे स्टेशन और आसपास ही बिताने थे। दिसंबर की ठण्ड हो और भयंकर काली रात हो , चार घण्टे गुजारना भारी हो जाता है। सो भी नहीं सकता कि कहीं मैं सोता रह जाऊं और ट्रेन निकल जाए ! कई बार ऐसा हो भी चुका है पहले भी मेरे साथ इसलिए पक्का कर लिया था कि सोऊंगा नहीं। पूरी रात आँखों में ही जायेगी। 


हालाँकि इसके बाद भी एक और ट्रेन हैं सात बजे के आसपास जो ग्वालियर तक जाती है लेकिन रितेश गुप्ता जी ने बताया था कि सर्दी शुरू होते ही ग्वालियर पैसेंजर का टाइम और उसका चलने का schedule गड़बड़ा जाता है। रितेश जी की बात सही होने के पूरे चांस थे क्यूंकि वो खुद आगरा से ही हैं। खैर रात के चार घण्टे चार कॉफ़ी पीते हुए गुजार ही दिए और निर्धारित समय से करीब आधा घंटे पहले ही ट्रेन प्लेटफार्म पर आकर लग गयी। मेरे लिए तो अच्छा ही हुआ !! अब मैं थोड़ा नींद खींच लूंगा क्यूंकि अभी तक ट्रेन के डिब्बे में मेरे सिवाय कोई नहीं है। पैर लम्बे करके पड़ गया लेकिन एक गड़बड़ हो गयी। ट्रेन कब चली और कब अगले स्टेशन भांडई को पार कर गई , पता ही नहीं चला। पूरी रात के जगे हुए इंसान की इतनी गलती तो माफ़ हो जानी चाहिए। एक ही स्टेशन निकला लेकिन स्टेशन जैसे ही निकला आँख खुल गयी। साढ़े छह बजे थे अभी। इसका मतलब हुआ कि मैं करीब एक घण्टे की नींद  ले चुका था। अब फ्रेश था और पूरे दिन की घुमक्कड़ी के लिए तैयार था। 


जाजौ करके एक स्टेशन आया था बीच में कहीं जिसका आधी खुली आँखों से फोटो ले लिए। साढ़े सात बजे के आसपास ट्रेन मनिया स्टेशन आकर रुक गई थी और चाय -चाय की आवाज़ आने लगी थी। ज्यादा बड़ा स्टेशन नहीं है मनिया लेकिन ठीक ठाक लोग ट्रेन में घुसने लगे थे। आँखों में नींद अभी तक बसी हुई थी इसलिए बाहर नहीं निकला और अंदर से ही फोटो लेकर फिर आँखें बंद कर लीं। खिड़की हल्की सी खुली हुई थी जिससे ठंडी ठंडी हवा आ रही थी जो माँ की लोरी जैसे सुलाने का प्रयत्न कर रही थी। धौलपुर पहुँचते पहुँचते सूरज की किरणें अपनी आभा फैला चुकी थीं और जैसे जैसे सूरज की किरणें आँखों पर पड़ रही थीं , आँखों के पट धीरे -धीरे खुलते जा आहे थे। धौलपुर भी घूमने लायक जगह है और अपनी लिस्ट में भी है लेकिन अभी तक संभव नहीं हो पाया है। बहुत मन है धौलपुर जंक्शन से सिरमथुरा जाने वाली छोटी लाइन पर यात्रा करने का। देखते हैं कब समय आता है। 




ये जो धौलपुर से सिरमथुरा वाली छोटी लाइन है , छोटी लाइन यानि 2 फुट 6 इंच (762 mm ) वाली लाइन। इसे धौलपुर के महाराजा राम सिंह ने दिसंबर 1905 में बनवाना शुरू किया था और फरवरी 1908 में चालू हो गयी थी। अगर आज की बात करें तो 112 पुरानी इस लाइन पर यात्रा करने में अलग ही आनंद रहेगा। ब्रिटिश काल में बनी कुल 72 किलोमीटर लम्बी इस लाइन में मोहारी नाम का एक जंक्शन भी आता है। आनंद का फुलटू पैकेज !! 


धौलपुर से निकलते निकलते ट्रेन लगभग फुल हो चुकी थी। अब मुझे भी सीट पर बैठने की कोई इच्छा नहीं थी इसलिए अपनी गर्म शॉल कंधे पर डालके दरवाज़े पर धूनी रमा ली। हेतमपुर और सिकरोदा नाम के स्टेशन निकलते चले गए और मुरैना पहुँच गए। इधर एक अच्छी चीज देखी। पहले जहां रेलवे फाटक होते थे वहां अब रेलवे लाइन के नीचे से रास्ते बना दिए गए हैं। अब हमारी तरफ यानि अलीगढ की तरफ भी ऐसे ही बनने लगे हैं जो एक बेहतर विकल्प है। जो रेलवे रूट ज्यादा व्यस्त होते हैं वहां फाटक के दोनों तरफ भयंकर भीड़ हो जाती है , उससे पार पाने के लिए ये एक बेहतरीन विकल्प है। 




मैंने देखा है , मुरैना ज्यादातर लोगों की बकेट में नहीं होता लेकिन एक बार फिर से नेट सर्फ करिये और मुरैना को दोबारा से जानिये। आपको बेहतरीन जगहें मिलेंगी यहां घूमने की और ये भी कि एक दिन में आप भारतीय संस्कृति का खजाना देख लेंगे अगर मुरैना आते हैं तो। यहां आपको संसद भवन जैसी आकृति का चौंसठ योगिनी मंदिर देखने को मिलेगा , 180 मंदिरों का समूह "बटेश्वर " देखने को मिलेगा और एक पुराना किला भी देखने को मिलेगा। इसके अलावा आप कुंती को जहां कारण का वरदान मिला था सूर्य भगवान से , वो जगह भी आप देख सकते हैं। मेरी मुरैना की यात्रा को प्रतिष्ठित हिंदी समाचार पत्र "दैनिक जागरण " ने यात्रा अंक में प्रकाशित भी किया था। अगर आपको मुरैना ने आकर्षित किया हो तो आप मुरैना पर लिखी मेरी पोस्ट भी देख सकते हैं। 


मुरैना कोई बहुत बड़ा शहर नहीं है और न ज्यादा आधुनिक है। पहले लोग मुरैना को चम्बल से जोड़कर देखते थे लेकिन अब वक्त है इसकी परिभाषा को बदल देने का। अब इसे चौंसठ योगिनी वाला मुरैना , बटेश्वर मंदिरों वाला मुरैना कहिये जनाब। मुरैना से निकलते हैं तो सांक नाम का छोटा सा स्टेशन आता है। यहीं आसपास सांक नाम की नदी भी बहती है। स्टेशन का नाम भी शायद वहीँ से लिया गया है। अगला स्टेशन नूराबाद है। नूराबाद , हम अपनी पिछली यात्रा में गए थे जब बटेश्वर गए थे तब। छोटा सा कस्बा जैसा है और एक बहुत पुराना किला दिखा मुझे लेकिन वो खण्डहर हो चुका है इसलिए मैं कहूंगा कि उस पर समय व्यर्थ करने फायदा नहीं है। 




अब बानमोर आ पहुंचे हैं। बानमोर को आप एक industrial जगह कह सकते हैं। ग्वालियर के आसपास दो indistrial एरिया डेवेलोप किये गए थे , एक मालनपुर और एक ये बानमोर। मालनपुर में मैं गया था एक जगह इंटरव्यू देने बहुत साल पहले। कंपनी का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन वो कम्पनी टीवी के picture tube बनाती थी लेकिन अब वो टीवी ही आने बंद हो गए तो वो कंपनी भी शायद बंद हो गयी होगी। Hitech थी या कोई और ?याद नहीं आ रहा। ऐसे ही बानमोर में JK Tyres और Bridgestone Tyres की कम्पनियाँ थीं। अब क्या हाल है उनका ? मुझे नहीं मालुम ! किसी को कुछ पता हो तो जरूर बताइयेगा। 


बानमोर से निकलने के बाद रायरू आता है। इस स्टेशन से बहुत पहले से परिचित हूँ मैं। झाँसी के अपने कॉलेज जाते हुए हमारी ट्रेन को कई बार रायरू पर ग्रीन सिग्नल नहीं मिलते थे इसलिए बहुत -बहुत देर तक वो यहाँ खड़ी हो जाती थी। एक परिचित स्टेशन से फिर से मुलाक़ात करते हुए अच्छा तो लगा ही , अपने उन यार दोस्तों की भी याद हो आई जिनके साथ अक्सर हॉस्टल से आते जाते इस रूट पर यात्रा किया करता था अपने कॉलेज के दिनों में। 



बिरलानगर आ पहुंचे हैं अब। ग्वालियर का ही एक स्टेशन कह सकते हैं आप बिरला नगर को। आसपास बिरला ग्रुप की कंपनियां रही होंगी यहां जिनमें काम करने वालों की सुविधा के लिए ये स्टेशन बनाया गया होगा। नौ बजने में दस मिनट का समय शेष है अभी और मैं ग्वालियर स्टेशन पर उतर चुका हूँ। मेरी उम्मीदों से दस मिनट पहले ही ट्रेन ने मुझे ग्वालियर के अपने गंतव्य पहुंचा दिया है। आज की यात्रा यहीं तक है बस। आज पूरा ग्वालियर घूमना है जितना संभव होगा। बहुत कुछ है ग्वालियर में देखने और घूमने को , ऐतिहासिक से लेकर धार्मिक और सांस्कृतिक जगहें। आइये घूमते हैं और फिर कल आगे की यात्रा पर निकलेंगे ...




फिर मिलेंगे जल्दी ही एक और यात्रा के किस्से -कहानियां लेकर 

शुक्रवार, 15 मई 2020

सूर्य मंदिर : ग्वालियर 

इस यात्रा को शुरू से पढ़ना चाहें तो यहाँ क्लिक कर सकते हैं।

Sun Temple : Gwalior 

Date of Journey : 03 Dec.2019 

सूर्य एक ऐसे देवता रहे हैं जिनकी पूजा सिर्फ हिन्दू धर्म तक सीमित नहीं रही है। ग्रीक सभ्यता से लेकर मिश्र तक सूर्य उपासना के अवशेष देखने को मिलते हैं। भारत में भारतीय संस्कृति के महाकाव्य महाभारत में भी सूर्य देव को उचित और प्रतिष्ठित रूप से परिभाषित किया गया है। सूर्यपुत्र कर्ण की कहानी हम और आप सब जानते हैं लेकिन इसके साथ एक और बात भी है कि सूर्य , कुंती को वरदान देने के लिए जिस जगह कुंतलपुर , अपने रथ से उतरे थे वो जगह भी ग्वालियर से ज्यादा दूर नहीं हैं। 


ग्वालियर घूमने के बाद अगर मैं परिभाषित करूँ तो कहूंगा कि ये एकमात्र ऐसा शहर है जो ऐतिहासिक रूप से भी उतना ही समृद्ध है जितना धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से है। ऐसा बहुत कम जगहों के साथ ही होता है इसलिए ग्वालियर एक परफेक्ट पैकेज है घुमक्कड़ी पसंद व्यक्ति के लिए। ग्वालियर के सूर्य मंदिर के अलावा और भी बहुत खूबसूरत सूर्य मंदिर हैं सम्पूर्ण भारत में। तो एक लिस्ट उन मंदिरों की और फिर आगे बढ़ेंगे : 

1. कोणार्क सूर्य मंदिर , ओडिशा। वर्ल्ड हेरिटेज में शामिल है और भारत के स्वयं के सात आश्चर्यों में गिना जाता है। 
2 . मोढेरा सूर्य मंदिर , मेहसाणा , गुजरात 
3 . सूर्य मंदिर , गया , बिहार 
4 . सूर्य पहाड़ मंदिर , ग्वालपाड़ा , असाम
5 . सूर्यनार मंदिर , कुम्भकोणम , तमिलनाडु 
6 . सूर्यनारायण मंदिर , अरसवल्ली , श्रीकाकुलम , आंध्रप्रदेश 
7 . सूर्य मंदिर , उनाव , म. प्र . 
8 . मार्तण्ड सूर्य मंदिर , अनंतनाग , कश्मीर 
9 . सूर्य मंदिर , रांची , झारखण्ड 
10 . सूर्य मंदिर , कटारमल (अल्मोड़ा ) , उत्तराखण्ड 
11 . सूर्य नारायण मंदिर , दोमलूर , बंगलोर 
12 . सूर्य मंदिर , ग्वालियर , मध्य प्रदेश। 


और भी होंगे लेकिन मैं नहीं जानता। आपको पता हो तो बताइयेगा , मैं एडिट कर दूंगा । कहते हैं भारत में कुल 21 सूर्य मंदिर हैं। सूर्य मंदिर की एक विशेषता है कि इनमें सूर्य के सात अश्व वाला रथ जरूर दिखाया जाता है जिसमें कुल 24 पहिये लगे होते हैं , 12 -12 दोनों तरफ। हर पहिये में 16 तीलियाँ (Spokes ) बनाई जाती हैं जिनमें आठ कुछ मोटी और आठ पतली बनाई जाती हैं। अब इतना कुछ है तो निश्चित रूप से किसी न किसी खगोलीय रूपरेखा से जुड़ा होगा ही क्यूंकि सूर्य खगोलीय गणनाओं के सबसे बड़े माध्यम माने जाते रहे हैं।




रथ में जूते सात अश्व (घोड़े ) , सप्ताह के सात दिनों को रेखांकित करते हैं तो 24 पहिये , वर्ष भर के पखवाड़ों को रेखांकित करते हैं। एक पखवाड़ा 15 दिन और कुछ घण्टों का माना जाता है। आप कैलकुलेट करके देखिये , पूरा 365 दिन का हिसाब -किताब मिल जाएगा। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि 24 पहिये , 24 घंटों को परिभाषित करते हैं लेकिन घण्टा वाला Concept भारत के पुराने समय में कहीं नहीं मिलता है इसलिए कहना मुश्किल है कि ये पहिये घण्टों को रेखांकित करते हैं। अब आते हैं इन तीलियों पर जो संख्या में कुल 16 हैं और एक निर्धारित दूरी पर बनाई गयी हैं यानी Equi distance पर स्थापित की गयी हैं। दो तीलियों के बीच की दूरी 1.5 घंटे को परिभाषित करती है। अर्थात एक पूरा व्हील पूरे दिन को व्यक्त करता है 16 x 1.5 = 24 . कैलकुलेशन तो एकदम सटीक बैठती है बाकी आप स्वतंत्र हैं कुछ भी सोचने के लिए।



बहुत देर हो चुकी थी सूर्य मंदिर पहुँचते पहुँचते और अँधेरा आसमान से जमीन पर उतरने की कोशिश कर रहा था। ज्यादा समय नहीं था जीभर देखने के लिए और बंद करने का समय भी हो चला था इस मंदिर को। समय ने इजाजत नहीं दी कि और देखा जाए ! 

मंदिर खुलने का निर्धारित समय कुछ इस तरह है : 

सुबह : 6: 00 बजे से 12: 00 बजे तक 
शाम : 1: 00 बजे से 6: 00 बजे तक 


मंदिर की दीवारों को बहुत ही खूबसूरत बनाया गया है। विभिन्न देवी -देवताओं की मूर्तियों के अलावा भगवान विष्णु के दस अवतारों को भी दिखाया गया है। प्रसिद्ध उद्योगपति जी. डी बिरला जी द्वारा बनवाया गया ये सूर्य मंदिर विवस्वान मंदिर भी कहलाता है जो सूर्य का ही एक और नाम है। 



शाम ने अपना आँचल फैला दिया है और रात को आवाज दे दी है। मेरा समय है ग्वालियर की जगहों को नमस्कार कहने का। सामने मित्र विकास नारायण श्रीवास्तव अपने छोटे भाई के साथ गाडी में मेरा और जैन साब का इंतज़ार कर रहे हैं। हम दोनों बाहर आते हैं मंदिर प्रांगण से और विकास जी के साथ उनके निवास की तरफ प्रस्थान कर जाते हैं और प्रस्थान कर जाता है आज का सूर्य भी। प्रस्थान करेंगे तभी अगली सुबह होगी और मैं प्रस्थान करूँगा तभी अगली जगह पहुँच पाऊंगा। तो मिलते हैं इसी यात्रा के अगले पड़ाव पर। तब तक जय राम जी की। 



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तेली मंदिर से निकलने के बाद अगला पड़ाव तानसेन का मकबरा था और वहीँ मुहम्मद गॉस का भी मकबरा है।  ज्यादा कुछ नहीं है इसके बारे में लिखने को।  बस फोटो देखिये और आनंद लीजिये ! 

Md. Gaus Maqbara 
Md. Gaus Maqbara 
तानसेन उर्फ़ रामतनु पाण्डेय का मक़बरा 


मुहम्मद गॉस का मकबरा 
गॉस के मकबरे की जालियां बहुत खूबसूरत लगीं 




 अपना ध्यान रखिये , कोरोना से डरना नहीं उसे हराना है !!

शनिवार, 2 मई 2020

Teli Mandir : Gwalior

Date of Journey : 03 Dec.2019

तेली का मंदिरग्वालियर
जो चीज जितनी अच्छी होती है उतनी ही मुश्किल भी। आप इसे उल्टा भी कह सकते हैं -जो जितनी मुश्किल होती है उसको पाने का जज़्बा भी उतना ही आनंद देता है।  सात -आठ साल पहले की बात है -हमारे कॉलेज के डायरेक्टर साब थे एक , डॉ जी एस यादवा ! आईआईटी से आये थे , बहुत ही ज्यादा कड़क .  एक फॅमिली गेट टुगेदर था कॉलेज के एम्प्लॉय का उसी में कुछ कहते हुए उन्होंने एक बात कही थी - सामान्य काम जरूर करते रहिये लेकिन वो काम जरूर करिये जिसे कोई नहीं करता या जो आपको बहुत कठिन लगता है।  दूसरी वाली बात पकड़ ली -जो काम कठिन लगे , उसे एक बार करने की कोशिश कर लेनी चाहिए।  कर ली -उर्दू सीखी ! टेढ़े -मेढ़े अक्षरों को जोड़ना सीखा।  जापानी सीखी - शब्दों को पिक्चर में व्यक्त करना सीखा ! ट्रैकिंग की और अभी भी जारी है। ... हाँ ! ऐसा कुछ नहीं किया जिसे कोई और न कर पाए ! 


एक ही दिन था ग्वालियर के लिए और वो भी करीब 10 बजे से शुरू हुआ था इसलिए दिन के घण्टे ही ज्यादा सही है लिखना।  केवल सुबह दस बजे से शाम के अँधेरे तक का समय था जिसमें अब तक गूजरी महल , ग्वालियर फोर्ट , चतुर्भुज मंदिर , सास-बहु मंदिर और जैन मूर्तियों के अद्भुत दर्शन कर चुका था।  Productivity अच्छी थी लेकिन अभी शाम की लालिमा आसमान से झाँकने लगे उससे पहले मैं जितना ज्यादा संभव हो पाए , उतना ग्वालियर देख लेना चाहता था।  चलते हैं ग्वालियर के एक और खूबसूरत नगीने की ओर : तेली मंदिर 

तेली का मंदिर ​भी ​ग्वालियर किले​ के परिसर ​में ​ही ​स्थित है।  यह एक बड़ी संरचना है जिसकी ऊंचाई करीब 100 फुट है।  इसकी छत की वास्तुकला द्राविड़ीयन शैली की है जबकि नक्काशियां और मूर्तियाँ उत्तर भारतीय शैली की बताते हैं। इसकी वास्तुशैली हिंदू और बौद्ध वास्तुकला का सम्मिश्रण है। यह ग्वालियर के किले के परिसर का सबसे पुराना स्मारक है जिसका निर्माण 11 वीं या 8 वीं शताब्दी में हुआ था। ​किसने बनवाया ? पक्का कह पाना मुश्किल है !

 यह मन्दिर भगवान विष्णुशिव और मातृका को समर्पित है। इसका निर्माण काल विभिन्न विद्वानों द्वारा 8वीं शताब्दी से लेकर 9वीं शताब्दी के आरम्भिक काल के बीच में माना जाता है। मंदिर के अंदर देवियों, सांपों, प्रेमी युगलों और गरुड़ की मूर्तियां हैं जिनकी वास्तुकला और शैली आपको मंत्र मुग्ध कर देगी। इस मंदिर की एक और ख़ास बात है कहा जाता है कि गुलामी के समय इस मंदिर का इस्तेमाल अंग्रेज अफसर कॉफ़ी शॉप और सोडा फैक्ट्री के रूप में करते थे। 



'तेली मंदिर' के नाम के पीछे कई कहानियां भी प्रचलित हैं। एक कहानी के अनुसार इसका निर्माण तेलंगाना की राजकुमारी ने करवाया था इसलिए इसका नाम तेली मंदिर पड़ गया। एक अन्य कहानी के अनुसार मंदिर का निर्माण तेल या व्यापार करने वाले लोगों ने मिलकर करवाया था इसलिए मंदिर का नाम तेली मंदिर पड़ गया।



 प्रवेश द्वार के एक तरफ कछुए पर यमुना व दूसरी तरफ मकर पर विराजमान गंगा की मानवाकृतियां हैं । आर्य द्रविड़ शैली युक्त इस मंदिर का वास्तुशिल्प अद्वितीय है । मंदिर के शिखर के दोनों ओर चैत्य गवाक्ष बने हैं तथा मंदिर के अग्रभाग में ऊपर की ओर मध्य में गरूढ़ नाग की पूंछ पकड़े अंकित है ।


उत्तर भारतीय अलंकरण से युक्त इस मंदिर का स्थापत्य दक्षिण द्रविड़ शैली का है । वर्तमान में इस मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है पर दरअसल यह एक विष्णु मंदिर था । कुछ इतिहासकार इसे शैव मंदिर मानते हैं । सन 1231 में यवन आक्रमणकारी इल्तुमिश द्वारा मंदिर के अधिकांश हिस्से को ध्वस्त कर दिया गया था । तब 1881–1883 ई. के बीच अंग्रेज हुकमरानों ने मंदिर के पुरातात्विक महत्व को समझते हुये मेजर कीथ के निर्देशन में किले पर स्थित अन्य मंदिरों, मान महल(मंदिर) के साथ-साथ तेली का मंदिर का भी ​पुनर्द्धार  करवाया था । मेजर कीथ ने इधर-उधर पड़े भग्नावशेषों को संजोकर तेली मंदिर के समक्ष विशाल आकर्षक द्वार भी बनवा दिया ।




ग्वालियर यात्रा जारी रहेगी :