बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

Mutiny Memorial : Delhi

दिल्ली मेरा प्रिय स्थान रहा है घूमने के मामले में।  दो तीन वजहों से -एक तो ये मेरे बिल्कुल नजदीक है और लोकल ट्रेन से 10 -20 रूपये की टिकट में दिल्ली पहुँच जाता हूँ और 100 -150 रूपये के कुल खर्च में एक जगह घूम आता हूँ।  दूसरा - दिल्ली ऐतिहासिक जगह है और इसके हर कोने में कुछ न कुछ ऐतिहासिक मिल जाएगा जो तोमर वंश से लेकर अंग्रेज़ों के जमाने तक की याद दिलाता है ! तीसरी वजह - छुट्टी नहीं लेनी पड़ती और बीवी भी जाने के लिए मना नहीं करती :)


आज अजीतगढ़ चलते हैं। नाम सुना है आपने पहले ? शायद सुना होगा , और अगर अजीतगढ़ नहीं सुना तो Mutiny Memorial तो जरूर ही सुना होगा। अरे वही जो हिन्दू राव हॉस्पिटल के सामने वाली रोड पर है जिसे कमला नेहरू रिज़ बोलते हैं। हिन्दू राव अस्पताल के एकदम सामने है अशोका पिलर , उसी रास्ते पर आगे चलते जाते हैं तो बाएं हाथ पर आपको ये ऐतिहासिक इमारत देखने को मिल जायेगी। इसके opposite में पहले कभी टेलीग्राफ ऑफिस हुआ करता था लेकिन अब दिल्ली सरकार के जल निगम का कुछ है। रास्ते के दोनों तरफ घना जंगल है और अकेले जाने में डर सा भी रहता है कि कोई लूट न ले और कैमरा , मोबाइल फ़ोन न छीन ले जाए।

Mutiny Memorial यानी अजीतगढ़ को अंग्रेज़ों के समय में PWD ने बड़ी जल्दी में डिज़ाइन किया और बनाया था। बताते हैं कि इसको बनाने पर हो रहे खर्च की वजह से विवाद बढ़ रहा था और उससे बचने के लिए इसे जल्दी तैयार किया गया लेकिन मुझे आज भी बेहतरीन लगा। शुरुआत में जब इसे बनाया जा रहा था 1863 में , तब इसका नाम Mutiny Memorial था लेकिन भारत की स्वतंत्रता के 25 वर्ष पूरे होने पर 1972 में इसका नाम अजीतगढ़ रखा गया। इस मेमोरियल को दिल्ली के "दिल्ली बैटल फील्ड " में 1857 की स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई में मारे गए अंग्रेज़ और भारतीय सैनिकों को समर्पित किया गया है। यहाँ जो नाम लिखे हैं वो अंग्रेजी में हैं और ज्यादातर अंग्रेज़ सैनिकों के नाम हैं , कहीं -कहीं भारतीय सैनिकों के भी नाम खोदे गए हैं। शुरुआत में , जब अंग्रेज़ों ने ये पत्थर लगवाए थे तब " भारतीय दुश्मनों से लोहा लेते हुए शहीद हुए " ऐसे पत्थर लगे थे और स्पष्ट रूप से यहाँ दुश्मन भारतीय स्वंतत्रता सैनानी थे , इसलिए आज़ादी के बाद उन पत्थरों को वहां से हटा दिया गया और अब बस सैनिकों का नाम और कोई तारिख लिखी होती है जो शायद उनके शहीद होने की तारीख है।

यूरोपियन स्टाइल "गोथिक " में बनाई गई इस इमारत को चार खण्डों में लाल बलुआ पत्थरों से अष्ट कोणीय आधार ( octagonal base )  पर बनाया गया है जिसके सबसे निचले और बड़े खण्ड को सात face में बनाया गया है जिन पर शहीद सैनिकों के नाम अंकित हैं।  इसमें एक तरफ ऊपर जाने का रास्ता भी है जो हाल फिलहाल तो बंद है।  इसके सामने से जो रोड जा रही है , उसको छोड़कर सब तरफ से ये जगह घने जंगल से घिरी है और एक अनजाना सा डर रहता है।  हालाँकि कहने वाले ऐसा भी कहते हैं कि इस जगह से इस ईमारत के बनने के बाद भी अंग्रेज़ सैनिकों की Body मिली थीं जिनके सिर , धड़ से गायब थे और कभी -कभी ये भी सुनने को मिलता है कि उनकी आत्माएं यहां आती रहती हैं।  ये सब सुनी -सुनाई बातें ही हैं क्योंकि मैं जब गया था तब मेरे साथ न कोई साथ गया था और न कोई वहां मिला।  न मैंने ऐसा कुछ भी महसूस किया तो मैं आपसे भी यही कहूंगा -बिंदास जाइये और इस ऐतिहासिक ईमारत में उन लम्हों को जीकर आइये , महसूस करके आइये जो भले हमारे दुश्मनों की याद में बनी है लेकिन उस दुश्मन से भारत के महान वीरों का भी संबंध रहा है कहीं न कहीं !
















फिर मिलते हैं जल्दी ही

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

Bagulamukhi Mandir : Himachal Pradesh

 Bagulamukhi Mandir : Himachal Pradesh

18 Oct.2018

 इस ब्लॉग श्रंखला को शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करिये

मसरूर रॉक टेम्पल में अच्छा समय गुजरा था और वहीँ पास में एक झोंपड़ी सी में चाय -मैग्गी भी मिल गयी तो पेट पूजा भी हो गई। उस झोंपड़ी में रखे बर्तन देखकर ऐसा लग रहा था जैसे हम आज उनके पहले ही कस्टमर रहे हों। अब निकलने का समय था क्योंकि बाहर कार वाला आदमी हमारा इंतज़ार कर रहा था और हम नहीं चाहते थे कि हमारी वजह से वो परेशान हों।  हमें भी आगे बगुलामुखी मंदिर दर्शन के लिए जाना था।  आज नवमी है और हमारे यहाँ इस अवसर पर कन्या पूजन होता है जिसमें कन्याओं को भोजन कराने के बाद कुछ दक्षिणा भी देते हैं लेकिन आज हम यहाँ हैं , घर नहीं तो हम बगुलामुखी मंदिर में अपना ये संस्कार पूरा करने की कोशिश करेंगे और माता जी की कृपा से हम ये कर पाए।    



मसरूर मंदिर से हम करीब बारह बजे निकले थे और कार वाले ने हमें लुंज कस्बे के बस स्टॉप पर छोड़ दिया और जैसे ही कार से उतरे , रानीताल की बस आ गई। मैं बगुलामुखी मंदिर की कहीं से कोई दूरी नहीं लिखूंगा क्यूंकि आप पता नहीं कौन से रस्ते से वहां गए हैं या जाने वाले हैं , लेकिन मैं हमेशा ही सार्वजनिक परिवहन सुविधा का उपयोग करता हूँ। ऐसा करना मुझे सुरक्षित भी लगता है और सस्ता भी , हालाँकि आप इसे मेरी मजबूरी भी कह सकते हैं क्योंकि मुझे बाइक चलानी नहीं आती और कार मेरे पास है नहीं , बस साइकिल चलानी आती है और वो मेरे पास है :)

हिमाचल में ट्रेन का नेटवर्क बहुत ज्यादा नहीं है इसलिए बस ज्यादा चलती हैं और ज्यादातर बस प्राइवेट कॉन्ट्रक्ट पर चलती हैं , लेकिन बसें क्या शानदार होती हैं , झक्कास ! साफ़ सुथरी और एकदम बढ़िया सीट। रानीताल पहुँचते -पहुँचते तीन बज गए थे जबकि बगुलामुखी मंदिर के सामने से निकलने वाली बस अभी पांच मिनट पहले ही निकल चुकी थी। मतलब अब हमें आधा घण्टा इंतज़ार करना होगा ! चाय -समोसे खा लेते हैं ! ऐसा सोचकर मैंने हाथ में ये चीजें पकड़ी ही थीं कि एक बड़ी बस आकर रुकी , उससे पूछा -बगुलामुखी जाओगे क्या ? बोला -हां ! फिर क्या समोसे वापस रखे और चल दिए बगुलामुखी मंदिर। हिमाचल जिस खूबसूरती के लिए जाना जाता है। सड़क से जाते हुए गावों को देखने से तो ऐसा बिल्कुल नहीं लग रहा था कि हम हिमाचल में हैं , सूखे -पिंजर होते जाते गाँवों की वही तस्वीर आँखों में घुसती रही जो मेरे अपने गाँव जाते हुए दिखती है। विकास , क्या -क्या लेकर जाएगा। हरियाली गई , शुद्ध पानी गया , शुद्ध हवा गई और दिल्ली में तो बस जान जाने को है ! मैं पर्यावरण विशेषज्ञ नहीं हूँ लेकिन इस देश का नागरिक हूँ तो दुःख होता है।

पता नहीं कहाँ -कहाँ से बस आई लेकिन पांच बजे के आसपास बगुलामुखी पहुंचा दिया होगा , शायद उससे भी पहले।  सड़क किनारे ही दो -तीन माता जी का प्रसाद और अन्य चीजें खरीदने के खोके हैं , खोके मतलब छोटी सी दुकानें।  उनसे ही सब ले लिया और अपने बैग भी वहीँ छोड़ दिए , हालाँकि डर था कि कहीं बंदर हमारे बैगों पर अपने हाथ न आजमा लें।  बंदर बहुत हैं वहां।  अच्छा हाँ , आपको बगुलामुखी मंदिर का महत्व , इतिहास पढ़ना हो तो हमारे प्रिय मित्र और भोले बाबा के अनन्य भक्त नरेश सहगल जी का ब्लॉग देख सकते हैं।  उनके ब्लॉग का लिंक ये है ! मैं बस अब फोटो ही दिखाता हूँ:





यहाँ ज्यादातर पीले वस्त्र पहनकर जाते हैं






कभी ये हवं कुण्ड बिल्कुल पीला रहा होगा



मिलते हैं जल्दी ही  :