यात्रा : अप्रैल -2019
दिल्ली की सर्दी और आगरा की गर्मी , दोनों सगी बहनें हैं। मारती हैं तो खींच -खींच के मारती हैं ! एक सर्द थपेड़े मारती है तो दूसरी लू के थपड़े मारती है लेकिन हमारी रोज़ी -रोटी उत्तर प्रदेश में है तो ये सब तो झेलना ही पड़ेगा। आप एकदम से ज्ञान देंगे कि गर्मी में आगरा जाना ही क्यों ? तो भैया जी , कॉलेज जब -जहाँ भेजेगा जाना ही पड़ेगा और इस बार कॉलेज ने अप्रैल -2019 में भेज दिया आगरा। मुफ्त आना -मुफ्त जाना और मुफ्त रुकना और सोने पे सुहागा ये कि मुफ्त खाना ! ऐसे में तो मैं साइबेरिया और अंटार्टिका भी चला जाऊँगा , यहाँ तो बस 40 डिग्री का टेम्प्रेचर ही सहन करना था और वो भी एक दिन ! हमारे यहाँ ब्रज भाषा में कहावत है एक -दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते ! जैसी मिल जाए घर में बाँध लो। तो जब हमें मुफ्त की यात्रा मिल रही है तो हम क्यों इस मुए टेम्परेचर को बीच में आने दें ?
तो जी अप्रैल के तीसरे वीक में हम मुंह और सर पर गमछा बांधे भगवन टाकीज चौराहे पर इस इंतज़ार में थे कि मौसम कुछ मेहरबानी कर दे तो रामबाग की तरफ का ऑटो पकड़ लें लेकिन मौसम तो आज जैसे मुंबई के शेयर बाजार की तरह चढ़ता ही जा रहा था। अभी और चढ़ेगा क्यूंकि अभी तो कुल जमा डेढ़ -पौने दो बजा है ! आसपास खाना खाने में वक्त व्यतीत कर लिए तो बज गया ढाई और अब ज्यादा इंतज़ार होगा नहीं हमसे इसलिए 10 रुपल्ली में रामबाग पहुँच लिए। आगरा की बस्तियों के नाम मुझे पहले से ही बहुत पसंद हैं - रामबाग तो एकदम सभ्य और संस्कारी नाम है ! गधा पाड़ा , हाथी पाड़ा , टेढ़ी बगिया , घटिया आज़म खां ! कौन लाया होगा ऐसे मधुर -मधुर नाम ? एक भारत रत्न उसके लिए भी बनता है जिसने इतने सुन्दर और संस्कारी नाम दिए हैं इस शहर की बस्तियों को !!
रामबाग से एत्माउद्दौला जाने का सोचा था लेकिन डायरेक्ट ऑटो या बस नहीं मिल रही थी। मिलती भी नहीं है शायद तो जो मिलेगा उसी से चल देंगे। एक मिल गया , थोड़ी पहले उतार देगा। कोई बात नहीं ! जहाँ वो उतारेगा वहां से एत्माउद्दौला मुश्किल से 300 -350 मीटर ही रह जाता है और ये दूरी कोई मायने भी नहीं रखती। मैंने कौन सा पांवों में मेहंदी सजाई हुई है जो दिक्कत होती ? एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल ली और चल भैया एत्माउद्दौला देखने। आगरा में एक साल गुजारा है आगरा कॉलेज में , तब नहीं देखा था इसे लेकिन तब 20 साल पहले घूमने के बारे में इतना सोचता भी नहीं था , नहीं तो मैं साइकिल से ही हो आता। एत्माउद्दौला पहुँच गया हूँ और टिकट ले लिए है। 30 रूपये का टिकट मिला है अकेले का और एडल्ट हूँ इसलिए पूरा टिकट लगा है। अब यहाँ तक आ गए हैं , अंदर जाने के लिए टिकट भी खरीद लिया है तो ये बताना और जानना भी जरुरी हो जाता है कि एत्माउद्दौला में ऐसा क्या है जो मैं इतनी गर्मी में यहाँ चला आया हूँ ?
एत्माउद्दौला को बेबी ताज भी कहा जाता है और कभी कभी ज्वेल बॉक्स " भी कहते हैं। ये एक मुग़लकालीन मक़बरा है जिसे जहांगीर की बेगम नूरजहां ने अपने पिता मिर्ज़ा गयास बेग की याद में बनवाया था। मिर्ज़ा जो हैं वो जहांगीर के दरबार में कोई मंत्री भी थे और पहुँच वाले मंत्री रहे होंगे नहीं तो कौन ससुर , अपने ससुर के लिए इतना खर्च करेगा ? इतिहासकार बताते हैं कि मिर्ज़ा ग्यास , जहांगीर के प्रधानमंत्री हुआ करते थे और साथ में वित्त मंत्री का भी अतिरिक्त प्रभार था इनके पास। वैसे मिर्ज़ा साब भी पर्शियन अमीर थे और वहां से भगा दिए गए थे। हो सकता है कुछ मालपानी वहां से ले आये हों , भागते भागते ! मिर्ज़ा साब को उनके दामाद जहांगीर ने " एत्माउद्दौला " यानी सरकार का मजबूत स्तम्भ ( Pillar of State ) का खिताब दे रखा था इसलिए मिर्ज़ा साब एत्माउद्दौला के रूप में ज्यादा प्रसिद्ध हो गए। अच्छा हाँ , ये जो मिर्ज़ा साब थे मिर्ज़ा गयासुद्दीन , ये मुमताज़ महल के दादा भी थे। मुमताज़ महल , वो ही ताजमहल वाली बेगम जो शाहजहां के 14 वें बच्चे को पैदा करते -करते स्वर्ग सिधार गयी थी और जिसकी याद भी शाहजहां रोता रहता था। वैसे मुमताज़ महल का असली नाम अर्जुमंद बानो था और उसके बाप का नाम अबुल हसन आसफ़ खान जबकि माँ का नाम Plondregi Begum या दीवानजी बेगम था ! नूरजहां , मुमताज़ की बुआ हुई और ये नूरजहां बहुत ही होशियार और चतुर महिला थीं। इन्होने अपने पिता की याद में ही मक़बरा नहीं बनवाया यहाँ आगरा में , बलि जहांगीर की याद में भी लाहौर में एक मक़बरा बनवा दिया जिसे जहांगीर का मक़बरा (Tomb of Jahangir ) कहते हैं। जहांगीर के मकबरे में ही पहली बार पच्चीकारी Pietra Dura ) का उपयोग किया गया है। वैसे अगर दोनों मकबरे का निर्माणकाल देखें तो दोनों लगभग साथ ही बने थे , लाहौर का भी और आगरा का भी ! एक दो साल का ही अंतर रहा है दोनों में !
एत्माउद्दौला को लोग ऐसा मानते हैं की ताजमहल बनाने का आईडिया शाहजहां को इसे देखकर ही आया था इसीलिए इसे बेबी ताज कह देते हैं। एत्माउद्दौला के मकबरे कोभी यमुना किनारे बनाया गया है। जब आप अंदर जाते हैं तो लाल पत्थर के बड़े -बड़े गेट दीखते हैं जिन्हें शायद मेहराब कहते हैं। मुख्य मकबरा एक चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है जो मार्बल से बना है। अंदर मिर्ज़ा ग्यास और उनकी पत्नी अस्मत बेगम की कब्रें हैं जिनके आसपास दीवारों पर बहुत सजावट की गयी है।
किसी को जिन्दा रहे रोटी नहीं मिलती
ये दोनों मरके भी घी पी रहे हैं
मुख्य मकबरा का जो चबूतरा है , उसके चारों तरफ सुन्दर बगीचा है जो इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा देता है। वैसे चांद एक ही है लेकिन बाकी तीन चाँद कहावत कहने वाले ने लगा दिए होंगे। मेरी तरफ से दो चार और लगा देता , कौन सा चांद मेरे पिताजी ने खरीद लिया था। मुख्य मकबरे में पता नहीं ज्यादा गर्मी नहीं लगी मुझे जबकि बाहर सूरज मुझे जला डालने पर तैयार था। कुछ इस तरह की डिज़ाइन की गयी है कि मिर्ज़ा साब और उनकी बेगम को मरने के बाद भी कब्र में गर्मी न लगे। इसे कहते हैं -गर्मी में ठण्ड का कूल कूल एहसास ! मजेदार बात ये भी है कि इसे नूरजहां ने ही डिज़ाइन किया था। इसके चारों कोनों पर करीब तेरह मीटर ऊँचे षट्कोणीय ( 13 meters high hexagonal towers ) लगे हैं और जो बीच में छतरी सी दिख रही है वो इन दोनों पति -पत्नी की कब्र के बिलकुल ऊपर बनाई गई है।
अब घूम लेते हैं और फोटो लेते हैं। हाँ अपना कैमरा नहीं था उस दिन अपने पास इसलिए सभी फोटो मोबाइल से लिए गए हैं !
आगरा का प्रसिद्ध St. John's College , कभी कभी बैडमिंटन खेलने जाता था मैं यहाँ Agra College से |
पहुँच गए एत्माउद्दौला |
चीनी का रोज़ा के पास यमुना किनारे बनी मुगलकालीन छतरियां |
चीनी का रोज़ा |
सैकड़ों साल पहले की बनी इमारत की छत में अभी तक चमक बाकी है |
जाते -जाते......................................... |