उर्दू के अज़ीम ओ तरीन अदीब कृष्ण चन्दर की एक बहुत ही प्रसिद्द कृति "चन्दरु की दुनियाँ " उर्दू साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती है ! ये कृति मूल रूप में उर्दू में है , मैंने पढ़ी तो मुझे लगा आपके लिए भी इसको हिंदी में लिखना श्रेयस्कर होगा ! आइये पढ़ते हैं :
कराची में भी उसका यही धंधा था और बांदरे आकर भी यही धंधा रहा। जहां तक उसकी जात का तालुक था, कोई तकसीम नहीं हुई थी। वो कराची में भी सिद्धू हलवाई के घर की सीढ़ियों के नीचे एक तंग और अँधेरी कोठरी में सोता था और बान्दरे में भी उसे सीढ़ियों के अक़ब में ही जगह मिली थी। कराची में उसके पास एक मैला कुचला बिस्तर, जंग लगे लोहे का एक छोटा सा ट्रंक और एक पीतल का लोटा था। यहां पर भी वही सामान था । ज़हनी लगाव न उसे कराची से था न बम्बई से । सच बात तो ये है कि उसे ये मालुम ही न था कि ज़हनी लगाव कहते किसे हैं ? कल्चर किसे कहते हैं ? अलवतनी क्या होती है और किस भाव से बेचीं जाती है ? वो उन सब नए धंधों से वाक़िफ़ न था , बस उसे इतना याद कि जब उसने आँख खोली तो अपने आप को सिद्धू हलवाई के घर में बर्तन मांजने , झाड़ू लगाते , पानी भरते , फर्श साफ़ करते और गालियां खाते पाया । उसे उन बातों का कभी मलाल न हुआ क्योंकि उसे मालुम था कि काम करने और गालियां खाने के बाद ही रोटी मिलती है और उसकी किस्म वाले लोगों को ऐसे ही मिलती है। सिद्धू हलवाई के घर में उसका जिस्म तेज़ी से बढ़ रहा था और उसे रोटी की बहुत जरुरत थी और हर वक्त महसूस होती रहती थी। इसलिए वो हलवाई के दिए छोटे सालन के साथ उसकी गाली को भी रोटी के टुकड़े में लपेट के निगल जाता था।
उसके माँ बाप कौन थे , किसी को पता न था। खुद चन्दरु ने कभी उसकी जरुरत महसूस नहीं की थी। अलबत्ता , सिद्धू हलवाई उसे गालियां देता हुआ अक्सर कहा करता था कि वो चन्दरु को सड़क पर से उठाकर लाया है। उस पर चन्दरु ने कभी हैरत का इज़हार नहीं किया। न सिद्धू के लिए कभी उसके मन में प्रशंसा के बीज उगे। क्योंकि चन्दरु को कोई दूसरी जिंदगी याद ही नहीं थी।
उसे बस इतना मालुम था कि कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके माँ बाप होते हैं , कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके माँ बाप नहीं होते। कुछ लोग घरवाले होते हैं , कुछ लोग सीढ़ियों के नीचे सोने वाले होते हैं ; कुछ लोग गालियां देते हैं , कुछ लोग गालियां सहते हैं ; एक काम करता है , दूसरा काम करने पर मजबूर करता है। बस ऐसी है ये दुनिया और ऐसी ही रहेगी। दो खानो में बनी हुई। यानि एक वो जो ऊपर वाले हैं , दूसरे वो जो नीचे। ऐसा क्यों है और ऐसा क्यों नहीं है और जो है वो कब , क्यों , कैसे बेहतर हो सकता है ? वो ये सब कुछ नहीं जानता था। और न उस किस्म की बातों से कोई दिलचस्पी रखता था। अलबत्ता जब कभी वो अपने दिमाग़ पर बहुत ज़ोर देकर सोचने की कोशिश करता था तो उसकी समझ में यही आता था कि जिस तरह वो सट्टे के नंबर का दांव लगाने के लिए कभी कभी हवा में सिक्का उछाल कर टॉस कर लेता था उसी तरह उसके पैदा करने वाले ने उस के लिए टॉस कर लिया होगा और उसे इस खाने में डाल दिया होगा, जो उसकी किस्मत थी।
यह कहना भी गलत होगा कि चन्दरु को अपनी किस्मत से कोई शिकायत थी , हरगिज़ नहीं। वो एक खुशमिज़ाज , सख्त मेहनत करने वाला , भाग भाग कर जी लगाकर खुश मिजाजी से काम करने वाला लड़का था। वो रात दिन अपने काम में इस कदर मशगूल था कि उसे बीमार पड़ने की भी कभी फुर्सत नहीं मिली।
कराची में तो वो एक छोटा सा लड़का था। मगर बम्बई आकर तो उसके हाथ पाँव और खुले और बढे। सीना चौड़ा हो गया था। गंदमी रंग साफ़ होने लगा था। बालों में लच्छे से पड़ने लगे थे और आँखें ज्यादा रोशन और बड़ी मालूम होने लगीं थीं । उस की आँखें और होंठ देखकर मालूम होता था कि उसकी माँ जरूर किसी बड़े घर की रही होगी।
चन्दरु को भगवान ने सुनने की शक्ति तो दी थी किन्तु वो बोल नहीं सकता था। आमतौर पर गूँगे बहरे भी होते हैं। मगर वो सिर्फ गूंगा था , बहरा न था। इसलिए हलवाई एक दफ़ा उसे बचपन में एक डॉक्टर के पास ले गया । डॉक्टर ने चन्दरु का मुआइना करने के बाद हलवाई से कहा कि चन्दरु के हलक में कोई पैदाइशी नुक्श है मगर ऑपरेशन करने से ये नुक्श दूर हो सकता है और चन्दरु को बोलने के लायक बनाया जा सकता है। मगर हलवाई ने कभी उस नुक्श को ऑपरेशन के ज़रिये दूर करने की कोशिश नहीं की। सिद्धू ने सोचा ये तो अच्छा है कि नौकर गाली सुन सके मगर उसका जवाब न दे सके।
चन्दरु का यही नुक्श सिद्धू की निगाह में उसकी सबसे बड़ी खूबी बन गया। इस दुनिया में मालिकों की आधी जिंदगी इसी फ़िक्र में गुजर जाती है कि किसी तरह वो अपने नौकरों को गूंगा कर दें। इसके लिए कानून पास किये जाते हैं , पार्लियमेंटें सजाई जाती हैं , अखबार निकाले जाते हैं , पुलिस और फ़ौज़ के पहरे बिठाए जाते हैं। सुनो , मगर जवाब न दो !
और चन्दरु तो पैदाइशी गूंगा था। यकीनन सिद्धू ऐसा भी भला नहीं है कि उसका ऑपरेशन करवाये !
ज़ारी रहेगी :