आवारा हूँ .. लेकिन ये आवारगी ऐसी है कि चलते चलते कुछ ऐसा मिल जाता है जो आज के जमाने का भले न हो , तड़क -भड़क भले न हो लेकिन जब घर लौटकर उसके बारे में पढ़ते हैं तो आश्चर्य होता है कि हम जाने -अनजाने एक ऐतिहासिक स्थान देख आये और उसे अपने कैमरे में भी कैद कर लाये। मैंने 2018 के जुलाई -अगस्त महीने में लगातार कई चक्कर लगाए दिल्ली के। कारण -जिस जगह को देखने जाता तो वहीँ आसपास कुछ और भी मिल जाता था मगर उस दिन इतना समय नहीं रहता था कि मैं उस जगह को जीभर देख पाऊं। एक दिन गया तो कमला नेहरू रिज पर स्थित अशोक स्तम्भ और म्युटिनी मेमोरियल ( अजीतगढ़ ) देख के वापस आ गया , फिर पता चला दिल्ली में एक और अशोक स्तम्भ है , फिरोज शाह कोटला में , वहां होकर आया फिर पता चला कि यार कमला नेहरू रिज के पास ही हिंदूराव हॉस्पिटल के पीछे एक बावली है ..फिर गया और वहां से पैदल -पैदल ही लौटने लगा। सिविल लाइन मेट्रो स्टेशन के लिए निकला था करीब दो किलोमीटर पैदल होगा लेकिन ये सोचकर कि पैदल चलूँगा तो पेट कुछ कम होगा , चलना शुरू कर दिया। और जब चला तो रास्ता भूल गया और एक जंगल में पहुँच गया। दिल्ली में भी इतना घना जंगल है ? पहली बार पता चला मुझे। जंगल मुझे डराते हैं और ये जंगल भी मुझे डरा रहा था। लगता था अभी दो -तीन लड़के आएंगे और मुझे चार -पांच जमाके मेरे फ़ोन , कैमरा और रुपया पैसा सब ले जाएंगे। पचास -सौ मीटर चला होऊंगा कि सामने से एक बजुर्ग और उनकी बुजुर्गायन इवनिंग वाक करते हुए दिख गए। कुछ हिम्मत आई तो डर जाने लगा। थोड़ा और आगे बढ़ा तो दिल्ली की ''कल्चर " दिखने लगी। रास्ते के दोनों तरफ एक दूसरे से जुड़े चेहरे ..किसी से पूछा कि पास में कोई मेट्रो स्टेशन है ? हाँ , थोड़ा आगे से लेफ्ट हो जाना सिविल लाइन्स है।
सामने एक गोल सी संरचना दिख रही है। वाह ! ये तो फ्लैग स्टाफ की बिल्डिंग है जो बिना टिकट ही सामने चली आई। शायद ये भी चाहती होगी कि मेरा भी कहीं जिक्र हो , मेरी भी बात हो। कोई मुझे भी जाने -पहिचाने.... देखने आये ! ये फ्लैग स्टाफ बिल्डिंग है जो 1828 में बनवाई गई थी। बनवाई तो एक सिग्नल टावर के रूप में थी लेकिन बाद में विख्यात या शायद कुख्यात और कारण से हुई। यहां इस इलाके में कभी अंग्रेज़ों के परिवार रहा करते थे जिनके लिए ये बिल्डिंग बनवाई गयी लेकिन 11 मई 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सिपाहियों ने दिल्ली के अन्य स्थानों के साथ इस जगह को भी अपने कब्जे में ले लिया। उस वक्त कुछ मौतें भी हुईं और फिर ये खबर मेरठ पहुंची जहाँ से ब्रिटिश -इंडियन आर्मी की टुकड़ी वहां से करीब एक महीने बाद 7 जून को यहाँ पहुंची। भयंकर मारकाट हुई जिसके परिणामस्वरूप ये जगह बाद में अंग्रेज़ों को छोड़नी पड़ी।
सम्पूर्ण रूप से गोलाकार रूप में बनी ये संरचना जितना वीभत्स इतिहास अपने आसपास लपेटे हुए है , अगर आप इसे महसूस करेंगे तो रोंगटे खड़े हो जाएंगे लेकिन आज की तारीख में ये बच्चों के खेलने और मस्ती करने की जगह है !! आज बस इतना ही ......