चौरासी खम्भों की छतरी
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मेनाल मंदिर, इस यात्रा में मेरे लिए एक अद्भुत और आकस्मिक स्थान रहा। इसके बारे में न बहुत ज्यादा पहले कुछ सोचा और न ही कोई योजना बनाई , लेकिन जैसे ही इसके बारे में थोड़ी सी जानकारी मिली तो यहां आने का प्लान बना लिया। चित्तौड़गढ़ तो आना ही था , बूंदी भी तो जाना ही था और ऐसे में मेनाल मंदिर सोने पे सुहागा जैसा साबित हुआ।
ये कोटा -भीलवाड़ा हाईवे है , एकदम शानदार बना है और राजस्थान रोडवेज की बस भी आराम से मिल जाती हैं , खाली -खाली ! उत्तर प्रदेश रोडवेज की तरह मारामारी नहीं। अपना बैग जोगणिया माता वाले रास्ते पर चाय की दुकान पर छोड़ दिया था इसलिए वापस वहां आना पड़ा। सामने ही हाईवे जाता है तो बूंदी जाने की बस का इंतज़ार करने लगे , लेकिन बूंदी की बस नहीं आई बहुत देर तक, मेनाल से करीब 20 किलोमीटर पहले बिजोलिया की ही बस पकड़ ली। बिजोलिया वही जहां से हम सुबह पार्शवनाथ जी का मंदिर देखकर गए थे। बस तो पकड़ ली , लेकिन ये हमारी गलती थी क्योंकि बिजोलिया से बूंदी जाने का रास्ता बहुत खराब है और कहीं -कहीं कच्चा भी है। और हाईवे की जिंदगी से अलग भारत के गाँवों की असली जिंदगी भी यही है , लिपे -पुते चेहरों के पीछे की कहानी , मासूम , सीधे -सादे और गरीब -लाचार चेहरे। हाईवे से बिजोलिया बस स्टैंड तक जाने के लिए करीब एक किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है , हालाँकि मेनाल गाँव से भी बूंदी के लिए सीधे बस मिल सकती थी लेकिन वो भी इसी रास्ते से जाती। बिजोलिया में एक पुराने से किले की चारदीवारी दिखाई पड़ी और रास्ते में एक बड़ी सी झील। बड़ी सी झील जरूर है लेकिन प्राकृतिक नहीं बल्कि बनाई हुई है और ज्यादा साफ़ -सुथरी भी नहीं लगी।
बूंदी पहुँच गए हैं और दोपहर के करीब दो बजे हैं , अभी तक कुछ खाया भी नहीं तो पहले कुछ खा लेता हूँ। बस स्टैंड से थोड़ा आगे जाकर चकाचक समोसा खाया , दही और हरी चटनी डालकर ! जबरदस्त मजा आ गया और कीमत केवल सात रुपया !! मैं जब तक समोसा निपटाता हूँ आप बूंदी की कहानी पढ़िए। बूंदी , वो बूंदी नहीं जिसे आप हर मंगलवार को हनुमान जी की पूजा के बाद बांटते हैं :) बल्कि राजस्थान के एक शहर की कहानी है।
राजस्थान के बावड़ियों का शहर कहा जाने वाला बूंदी "हाड़ोती "क्षेत्र में स्थित है। पुराने समय में बूंदी- बूंदा का नाल कहा जाता था , बूंदा मीणा वहां के कोई शासक रहे हैं और उन्हीं के नाम से बूंदा का नाल नाम आता है। इसके बाद इसे राव देवा हाड़ा ने 1342 ईस्वी में जैता मीणा से अपने कब्जे में ले लिया। और फिर मेवाड़ के सिसोदिया शासकों के बाद अंग्रेज़ों के आने से पहले तक अकबर ने यहाँ राज किया। आइये अब बूंदी के कुछ दर्शनीय स्थानों का भ्रमण करने चलते हैं , और सबसे पहले "चौरासी खम्भों की छतरी " देखने चलेंगे :
ये कोटा -भीलवाड़ा हाईवे है , एकदम शानदार बना है और राजस्थान रोडवेज की बस भी आराम से मिल जाती हैं , खाली -खाली ! उत्तर प्रदेश रोडवेज की तरह मारामारी नहीं। अपना बैग जोगणिया माता वाले रास्ते पर चाय की दुकान पर छोड़ दिया था इसलिए वापस वहां आना पड़ा। सामने ही हाईवे जाता है तो बूंदी जाने की बस का इंतज़ार करने लगे , लेकिन बूंदी की बस नहीं आई बहुत देर तक, मेनाल से करीब 20 किलोमीटर पहले बिजोलिया की ही बस पकड़ ली। बिजोलिया वही जहां से हम सुबह पार्शवनाथ जी का मंदिर देखकर गए थे। बस तो पकड़ ली , लेकिन ये हमारी गलती थी क्योंकि बिजोलिया से बूंदी जाने का रास्ता बहुत खराब है और कहीं -कहीं कच्चा भी है। और हाईवे की जिंदगी से अलग भारत के गाँवों की असली जिंदगी भी यही है , लिपे -पुते चेहरों के पीछे की कहानी , मासूम , सीधे -सादे और गरीब -लाचार चेहरे। हाईवे से बिजोलिया बस स्टैंड तक जाने के लिए करीब एक किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है , हालाँकि मेनाल गाँव से भी बूंदी के लिए सीधे बस मिल सकती थी लेकिन वो भी इसी रास्ते से जाती। बिजोलिया में एक पुराने से किले की चारदीवारी दिखाई पड़ी और रास्ते में एक बड़ी सी झील। बड़ी सी झील जरूर है लेकिन प्राकृतिक नहीं बल्कि बनाई हुई है और ज्यादा साफ़ -सुथरी भी नहीं लगी।
बूंदी पहुँच गए हैं और दोपहर के करीब दो बजे हैं , अभी तक कुछ खाया भी नहीं तो पहले कुछ खा लेता हूँ। बस स्टैंड से थोड़ा आगे जाकर चकाचक समोसा खाया , दही और हरी चटनी डालकर ! जबरदस्त मजा आ गया और कीमत केवल सात रुपया !! मैं जब तक समोसा निपटाता हूँ आप बूंदी की कहानी पढ़िए। बूंदी , वो बूंदी नहीं जिसे आप हर मंगलवार को हनुमान जी की पूजा के बाद बांटते हैं :) बल्कि राजस्थान के एक शहर की कहानी है।
राजस्थान के बावड़ियों का शहर कहा जाने वाला बूंदी "हाड़ोती "क्षेत्र में स्थित है। पुराने समय में बूंदी- बूंदा का नाल कहा जाता था , बूंदा मीणा वहां के कोई शासक रहे हैं और उन्हीं के नाम से बूंदा का नाल नाम आता है। इसके बाद इसे राव देवा हाड़ा ने 1342 ईस्वी में जैता मीणा से अपने कब्जे में ले लिया। और फिर मेवाड़ के सिसोदिया शासकों के बाद अंग्रेज़ों के आने से पहले तक अकबर ने यहाँ राज किया। आइये अब बूंदी के कुछ दर्शनीय स्थानों का भ्रमण करने चलते हैं , और सबसे पहले "चौरासी खम्भों की छतरी " देखने चलेंगे :
चौरासी खम्भों की छतरी ( 84-Pillared Cenotaph ) : इसके बारे में मित्रवर डॉ श्याम सुन्दर जी ने बता रखा था कि यहां जरूर जाना। यूँ सच कहूं तो डॉ श्याम बाबू ने ही बूंदी के सभी स्थानों से परिचित कराया था लेकिन वो समोसे से परिचित नहीं करा पाए :) . डॉक्टर हैं , हो सकता है तली हुई चीजों का परहेज करते हों :) और एक हम हैं कि घर से नाश्ता करके आने के बावजूद भी कॉलेज की कैंटीन में समोसा जरूर खाएंगे , पेट निकलता है तो निकलता रहे। तो जी बस स्टैंड से ऑटो लेकर चौरासी खम्भों की छतरी आ पहुंचे हैं। यहां एक लड़का बैठा है अकेला। बोला - आपने टिकट ले रखा है ? नहीं तो , कौन सा टिकट ? बूंदी के किले के अलावा जो जगहें हैं उनका टिकट लगता है। टिकट तो किले का भी लगता है लेकिन उसकी बात बाद में करेंगे। तो जी या तो आप सम्मिलित टिकट ले लो जिसमें आपको चौरासी खम्भों की छतरी , सुख महल और रानी जी की बावड़ी देखने को मिलेगी , या फिर अलग -अलग ले लो। अलग-अलग कुछ महँगी पड़ रही थी इसलिए सम्मिलित टिकट ले लिया। कितने का था , ये अब याद नहीं रहा लेकिन शायद 75 रूपये की थी। चौरासी खम्भों की छतरी को सन 1683 में बूंदी के महाराजा राव राजा अनिरुद्ध ने अपने भाई की याद में बनवाया था। यहां केंद्र में एक बड़ा और सुन्दर शिवलिंग है और कहा जाता है कि इसकी छत के नीचे 84 खम्भे हैं जिन्हें आजतक कोई भी सही तरह से नहीं गिन पाया है। मैंने कोई कोशिश नहीं की और फोटो खींचने के बाद उसी लड़के के पास आकर बैठ गया। उसकी ड्यूटी सुबह आठ से शाम साढ़े पांच बजे तक है और कुल सैलरी 6000 रूपये मिलती है। ये नौकरी भी उसे अपने पिताजी की मौत हो जाने के बाद मिली है। कभी -कभी फ़ालतू की बातें भी कर लेनी चाहिए :)
सुख महल (Sukhmahal ) : अगर आप मुझसे पूछें कि मुझे बूंदी की सबसे बेहतरीन जगह कौन सी लगी तो मैं बिना हिचकिचाहट के कहूंगा -सुखमहल ! और शायद अंग्रेजी के ब्रिटिश कवि और लेखक रुडयार्ड किपलिंग (Rudyard Kipling) को भी मेरी ही तरह ये जगह बहुत पसंद आई होगी इसीलिए उन्होंने यहीं इस महल में रहकर अपनी किताब "किम " को लिखने का फैसला लिया होगा। हालाँकि वो उस समय बूंदी के महाराज के गेस्ट बनकर रहे थे और मुझे कोई पूछने वाला नहीं था , वैसे अब महाराज भी जिन्दा नहीं है , नहीं तो हो सकता है मैं और महाराज एक ही टेबल पर बैठकर चाय की चुस्कियां ले रहे होते :) !
जैत सागर झील के किनारे बना सुखमहल कभी महाराज उम्मेद का ग्रीष्मकालीन आवास ( Summer Residence ) हुआ करता था लेकिन आजकल ये सिंचाई विभाग का रेस्ट हाउस है। इसमें जो कमरे बने हैं उनकी खिड़कियाँ झील की तरफ खुलती हैं और जब इन्हें खोलते हैं तब ठण्डी -ठण्डी हवा का झोंका आता है और गर्मी में भी ठण्डक का एहसास देता है। ठण्डा ठण्डा कूल कूल !! दो मंजिल के इस महल में नीचे की फ्लोर पर म्यूजियम जैसा कुछ है और ऊपर की मंजिल पर दोनों दिशाओं में कमरे बने हैं जिनमें से एक में रुडयार्ड किपलिंग रहे थे। रुडयार्ड किपलिंग का कमरा आज भी साफ़ सुथरा बना रखा है जहां उनकी किताबें को लगाया गया है ! अच्छा हाँ , सुखमहल घूमने के लिए अलग से टिकट लेने की जरुरत नहीं है , आपने जो Composite Ticket लिया था चौरासी खम्भों की छतरी पर , उसी में इसका पैसा शामिल था। लेकिन सुखमहल प्रांगण में बूंदी मेमोरियल है और उसको देखने की फीस अलग से लगती है !
इसके केंद्र में शिवलिंग स्थापित है |
छत पर कलाकारी करी गई है |
कहते हैं इस महल में कुछ समय पहले तक राजपरिवार के लोग रहते थे !! |
चौरासी खम्भों की जो छतरी है उसके प्लॅटफॉम की दीवारें बहुत सुन्दर हैं। उन पर भारतीय समाज में उस वक्त पशुओं के महत्व को रेखांकित किया गया है |
धूप थी तो बढ़िया फोटो नहीं आ सकी |
ये नेट से ली है एक फोटो |
ये रुडयार्ड किपलिंग का कमरा , जहां उन्होंने अपनी किताब "किम " लिखी थी |
आगे चलेंगे। ...