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रात जरुर बहुत मुश्किल थी लेकिन सुबह उतनी ही ठण्डी और सुहावनी थी मगर चाय के लिए न दूध बचा था न नीबू था इसलिए चाय बस ... चाय पत्ती और चीनी मिला हुआ गरम पानी ही था। हाँ ! मैग्गी जरूर मिल गई और गर्मागर्म मैग्गी खाकर शरीर में जान भी आ गई और .....गर्मी भी।
इस भयंकर ट्रैक का ये आखिरी दिन था हमारा। भयंकर दोनों तरह से -खूबसूरत भी भयंकर और रिस्क भी भयंकर ! फर्स्वाण टॉप पर थे हम 4166 मीटर की ऊंचाई पर टंगे थे और यहाँ से जोशीमठ के साथ -साथ औली और उर्गम घाटी का जबरदस्त नजारा दिखाई दे रहा था। जोशीमठ और औली एकदम किसी हरेभरे कटोरे जैसे दिखाई दे रहे थे फर्स्वाण टॉप से। खूब फोटोग्राफी की क्योंकि जो दृश्य इस वक्त दिखाई दे रहा था उसे जीवन भर देखने और उसे महसूस करने के लिए ये फोटो और वीडियो ही एकमात्र माध्यम रहेंगे हमारे लिए।
फर्स्वाण टॉप से उतरते हुए एकदम लगातार उतराई ही उतराई है और ऐसी उतराई है कि आपको हमेशा ऐसा महसूस होगा कि अब गिरे कि तब गिरे ! लगभग 500 मीटर चलने के बाद slope थोड़ा कम होता है लेकिन उतराई बनी रहती है और जब आप करीब एक किलोमीटर उतरने के बाद एक ऐसे पत्थर के नीचे पहुँचते हैं जहाँ वो पहाड़ से आगे निकला हुआ है , वहां तक आप 500-600 मीटर की ऊंचाई कम कर चुके होते हैं। यानी इस एक किलोमीटर की दूरी में आप 4166 मीटर की ऊंचाई से 3500 -3600 मीटर की ऊंचाई तक पहुँच जाते हैं और थोड़ा सा और आगे चलते ही आपको Treeline देखने को मिलने लगती है। यहाँ आपको पगडण्डी देखने को मिल जाती है क्यूंकि पैंका गाँव के लोग फर्स्वाण टॉप तक अपनी भेड़ बकरियों और गायों को चराने के लिए लाते रहते हैं।
ये जो पगडण्डी है उस पर चलते हुए पहाड़ के दूसरी तरफ देखने पर आपको लगातार हिमालय के सुन्दर दृश्य दिखाई देते रहते हैं। मौसम साफ़ हो तो आपको हिमालय की अद्भुत खूबसूरत और बर्फ से लकदक चोटियां एकदम साफ़ दिखाई देती हैं। हलकी उतराई -चढ़ाई करते हुए आप एक ऐसी जगह पहुँचते हैं जहाँ बैठने के लिए भी खूब जगह है और जहाँ से पैंका गाँव पहली बार दिखाई देता है। यहाँ से आप वीडियो कॉल भी कर सकते हैं। हालाँकि मोबाइल सिग्नल आपको फर्स्वाण टॉप पर भी मिल जाएंगे लेकिन वहां नेटवर्क ढूंढना पड़ता है जबकि यहाँ एकदम बढ़िया नेटवर्क मिल जाता है और लगभग हर कंपनी के नेटवर्क मिल जाते हैं।
इस जगह के बारे में गाइड ने एक डरावनी बात बताई थी ! सच है या नहीं , मैं नहीं जानता ! गाइड के शब्दों को ही ज्यों का त्यों लिख रहा हूँ यहाँ : एक गाँव (पैंका नहीं ) की लड़की को दूसरे गाँव के लड़के से प्यार हो गया था , ये करीब 20 वर्ष पुरानी बात है ! उस लड़की के परिवार वालों को ये बात नागवार गुजर रही थी और अंततः उस लड़की के घरवालों ने उस लड़के को पकड़ लिया और उसे यहाँ ले आए। यहाँ उन लोगों ने उस लड़के की हत्या कर दी और कई महीनों के बाद पुलिस उस लड़के के खून से सने कपडे ढूंढ पाई और आख़िरकार उन लोगों को सजा मिली।
आज हमें फर्स्वाण टॉप से पैंका गाँव तक की करीब 15 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी और सिर्फ तय ही नहीं करनी थी बल्कि समय से तय करनी थी जिससे हम आगे जोशीमठ तक जा सकें और अगली सुबह अपने अपने घर के लिए प्रस्थान कर सकें। हम उसी खुली सी ऊँची जगह पर बहुत देर तक बैठे रहे जबकि कुछ मित्र आगे जा चुके थे। यहाँ से पैंका गाँव दिखाई तो दे रहा था लेकिन अभी बहुत दूर था। लगातार नीचे उतरते रहे और अब रास्ता खो गया। बहुत बड़ी बड़ी घास में से निकल रहे थे और इसका नुकसान ये हुआ कि घास में छुपे पत्थरों से टकरा -टकराकर मेरे सहित कई मित्र गिरे और पटियाला से आये सुशील भाई तो बहुत बुरी तरह गिरे। वो एक छोटे पत्थर से टकराकर बड़े पत्थर पर जाकर गिरे जिससे उनके सीने में बहुत चोट लग गई। डॉक्टर अजय त्यागी जी साथ थे मगर हमें डर सताता रहा की कहीं कोई पसली में चोट न लग गई हो ! फिर बहुत मुश्किल हो जाता ! तो .... ऐसे होते हैं ट्रैक और ऐसी होती है ट्रैकिंग !
बहुत देर तक सुशील भाई के सीने पर Iodex की मालिश करते रहे लेकिन दर्द तो था ही और वो दर्द उन्हें ही झेलना था , हम केवल उनकी मदद कर सकते थे उनका दर्द नहीं ले सकते थे। काश! हम सब उनका दर्द भी थोड़ा -थोड़ा बाँट सकते तो उनका दर्द कुछ कम होता।
हम पांच लोग साथ थे उस वक्त तक। मैं , डॉक्टर अजय त्यागी जी , सुशील भाई , कुलवंत जी और त्रिपाठी जी। डॉक्टर साब आगे चल रहे थे मगर घास के खत्म होते होते एकदम घना जंगल शुरू हो गया। डॉक्टर साब एक जगह मुझे अकेले बैठे मिले तो मैंने हँसते हुए पूछ लिया -डॉक्टर साब डर लग रहा है क्या ? अरे नहीं योगी जी ! थक सा गया हूँ ! उन्हें पता नहीं डर रहा था या नहीं लेकिन मुझे तो लग रहा था लेकिन अच्छी बात ये थी कि हम सभी के फ़ोन चल रहे थे और गाइड / पॉर्टर हमें लगातार रास्ता बताये जा रहे थे। कहीं -कहीं पगडण्डी भी दिख जाती थी।
मैं अकेला ही चला जा रहा था , डॉक्टर त्यागी आगे निकलकर आँखों से ओझल हो चुके थे पीछे वाले तीनों लोग ज्यादा ही दूर रह गए थे। एक जगह कई सारे लंगूर दिखाई दे गए और वो सब के सब ऐसे रास्ता रोके बैठे थे कि -बेटा पहले यहाँ की चुंगी चुका के जा तब आगे जाने देंगे तुझे ! मैं 10 -15 मिनट तक हुर्र हुर्र कर के उन्हें भगाता रहा।
एक जगह दूर कहीं जली हुई सी लकड़ी पड़ी थी लेकिन एकदम से जब उस पर मेरी नजर पड़ी तो मैं पसीना -पसीना हो गया ! मुझे लगा ये कोई भालू है जो इस वक्त सोया पड़ा है। मैं एक पेड़ के पीछे जाकर उसका movement देखने लगा लेकिन जब कुछ देर तक उसमें कोई मूवमेंट नहीं हुआ तो हिम्मत कर के पेड़ के पीछे से निकलकर आया और उसे गौर से देखा फिर अपनी ही मूर्खता पर हंसने लगा। ये शायद मूर्खता से ज्यादा तेज नजर थी क्यूंकि बहुत ही घना जंगल था / है वो।
सैकड़ों तरह के वृक्ष और खाली जगहों में खिलखिलाते फूल जैसे मेरे साथ इस ट्रैक के पूरा होने का जश्न मना रहे थे। मैं फूल नहीं पहचानता , शायद कोई वनस्पति विज्ञानं का जानकार ही इतने फूलों को पहचान सकेगा लेकिन एक कुकुरमुत्ता (Mushroom ) बड़ा सुन्दर लगा। उसकी फोटो लगाऊंगा।
एक जगह थोड़ा फंस गया मैं। आगे एक जगह वॉटरफॉल जैसा दिख रहा था लेकिन ये Natural waterfall नहीं था बल्कि पत्थरों को जोड़ जोड़कर पानी को रोका गया था जिससे ये जगह वॉटरफॉल जैसी बन गई थी लेकिन इसे पार करना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। आसपास दूसरा रास्ता देखने को नजर दौड़ाई तो रास्ता तो नहीं दिखा , दूर झाड़ियों में से झांकता एक छोटा मगर खूबसूरत वॉटरफॉल जरूर नजर आया। आख़िरकार जूते उतारे और लोअर ऊपर चढ़ाया , लेके राम जी का नाम ... उस वॉटरफॉल को भी पार कर आया !
गाइड और पॉर्टर फ़ोन पर बार -बार ये पूछते रहे -सर ग्रीन हट तक पहुँच गए क्या ? ग्रीन हट तक पहुँच गए क्या ? ये ग्रीन हट असल में वन विभाग की बनाई हुई है जहाँ शायद आपकी परमिशन चेक होती होगी ! ये बिलकुल जंगल के बीच में है और यहाँ मुझे कुछ जली हुई लकड़ियां , पानी का एक घड़ा और थोड़े मिटटी के बर्तन दिखाई दिए। शायद रात में रुकने का कुछ इंतेज़ाम भी रहता हो लेकिन इसमें जो दरवाजा लगा था उसमे टाला बंद था तो अंदर नहीं देख पाया। अगर कैसे भी हमें यहाँ कोई परमिशन चेक करने वाला मिल जाता तो हम तो पकड़े जाते :) हमारे पास परमिशन थी ही नहीं और परमिशन न ले पाने का जिक्र मैं इस ट्रेक की पहली ही पोस्ट में कर चूका हूँ जब हम गोविंदघाट से निकले थे ! खैर अगर कोई मिलता भी तो देखा जाता !
शाम के लगभग चार बजने को थे जब पहली बार पैंका गाँव के बाहर स्थित गाँव के मंदिर के ऊपर लगा झंडा दिखा देने लगा था। मंदिर के पीछे की एक पहाड़ी पर बहुत ऊंचाई से गिरता झरना शानदार समापन कर रहा था हमारी इस जबरदस्त यात्रा का। मंदिर के आगे शीश झुका कर भगवान को सुरक्षित इस ट्रैक से वापस लाने के लिए उनका धन्यवाद किया। मंदिर बंद था लेकिन उसके आगे बैठकर अपने आप को खोजता रहा कुछ देर तक ! क्या मैं इस लायक था ? क्या एक भयंकर रूप से अस्थमा से पीड़ित रहा यहाँ इस ट्रैक पर आने लायक था ? लेकिन जिस के सर पर भगवान शिव का हाथ होता है वो सब कर लेता है !
जैसे ही पैंका गाँव में प्रवेश किया , हरजिंदर भाई और हनुमान गौतम जी चटाई पर थकान उतारते हुए दिखे एक घर के बाहर। वो दोनों बहुत पहले ही यहाँ आ चुके थे और स्नान करने के बाद लस्सी भी खेंच चुके थे , शायद खाना भी खा चुके थे :) मुझे और डॉक्टर साब को भी चाय मिल गई :) वैसे भी आज सुबह चाय नहीं मिल पाई थी ! बहुत देर तक उनके यहाँ बैठे रहे ! सुन्दर और संपन्न गाँव है पैंका। पॉर्टर ने सरकारी स्कूल में खाना बना रखा था और ये आज का , इस ट्रैक का हमारा अंतिम भोजन था।
गाँव से उतर के नीचे विष्णुप्रयाग तक पहुंचे जहाँ से कुछ लोगों को वापस गोविंदघाट जाना था और मुझे गाइड / पोर्टरों के साथ जोशीमठ पहुंचना था। रात करीब 8 -8 :30 बजे मैं , हनुमान जी , त्रिपाठी जी और सभी पोर्टरों के साथ भरी बारिश में जोशीमठ एक होटल में पहुंचा और सुबह 5 बजे की पहली बस लेकर हरिद्वार और फिर गाजियाबाद !!
जय हो कागभसुण्डी महाराज की !!