राजस्थान की सब पोस्ट एक जगह:
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हल्दीघाटी : चेतक समाधी
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हल्दी घाटी के युद्ध के बाद ये क्षेत्र कभी बिल्कुल वीरान रहा होगा लेकिन
वहां सरकार ने मेमोरियल बनाकर और इत्र की छोटी छोटी फैक्ट्रियां खोलकर उस
जगह को एकदम बढ़िया कर दिया है। हालाँकि राजस्थान के ग्रामीण इलाकों की सी
शांति और माहौल में एक मायूसी जरूर नजर आती है। नाथद्वारा की तरफ से जाते
हुए ऐसा बिल्कुल भी नही लगता कि हम एक ऐतिहासिक जगह को देखने जा रहे हैं , न
ज्यादा भीड़ भाड़ न वाहनों की ज्यादा आवाजाही। हाँ , खमनोर पर कुछ सन्नाटा
टूटता है। और फिर थोड़ी बाद चलती हुई सी रोड मिलती है , सड़क के दोनों तरफ
सजी इत्र की दुकानें रास्ते को जीवंत बनाती हैं। और जब हल्दीघाटी पहुँचते
हैं तो एक अलग आभास होता है।
हल्दीघाटी से बाहर आकर ऊँट की सवारी करी जा सकती है। एक बात ध्यान देने की
है : अगर आप ने कभी गांव या गाँव की जिंदगी नहीं देखी है तो आपको यहां
ग्रामीण जिंदगी के दर्शन बखूबी मिलेंगे। वहां ग्रामीण जिंदगी के विभिन्न
रूपों को बेहतरीन तरीके से मूर्तियों और कलाकृतियों के सहारे समझाने ,
दिखाने की कोशिश करी गयी है। हल्दी घाटी से लौटकर महाराणा प्रताप के घोड़े
चेतक का समाधी स्थल है , ये वो ही जगह है जहां चेतक ने दम तोड़ा था।
हालाँकि वास्तविक नाला अब नही है लेकिन कुछ कल्पना भी आपको करनी पड़ जाती है
ऐसी जगह।
आज ज्यादा कुछ नही है लिखने के लिए। हल्दी घाटी लौटकर नाथद्वारा में श्रीनाथ जी भगवान के दर्शन किये और फिर वापस उदयपुर
। नाथद्वारा की
कहानी आपको पहले ही बता चुका हूँ ! उदयपुर इसलिए , क्योंकि हमने अपना सब
सामन वहीँ के होटल में रख छोड़ा था। अब कल चित्तौड़गढ़ के लिए निकलेंगे।
आइये फोटो देखते चलें :
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भारत का ग्रामीण परिवेश |
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इसे रहट कहते हैं ! पहले इसी से खेतों की सिचाईं होती थी |
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जय शिव शंकर |
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ये गौधन |
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काम करते करते टोपी उतर गयी |
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क्या अब भी मुफ्त का माल मिलता है ? |
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राधे राधे |
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इसे कोल्हू या क्रशर कहते हैं |
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ये सच का ही कोल्हू है |
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ऊंट की सवारी हो जाए |
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ऊंट की सवारी हो जाए |
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हल्दी घाटी के बाहर |
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हल्दी घाटी के बाहर |
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फैमिली आपको मानसिक ताकत देती है |
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अब असली वाले ऊंट की सवारी हो जाए वो तो मूर्ति था पहले वाला |
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अब असली वाले ऊंट की सवारी हो जाए वो तो मूर्ति था पहले वाला |
महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की समाधि
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महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का समाधि स्थल |
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ये भाईसाब मिटटी खोद रहे हैं हल्दी में मिलाने के लिए ! मेरे हाथ में कैमरा
देखते ही मुंह फेर लिया था बन्दे ने लेकिन डर नाम की चीज नही |
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आपने ब्लोअर पर बनी चाय पी है ? और कब से नही पी ! खमनोर में मिल जायेगी |
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ऐसे स्वागत द्वार आपको राजस्थान में बहुत मिलेंगे |
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हमारे यहां इसे नागफनी कहते हैं ! यहां ये मेंडबन्दी का काम कर रही है |
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हमारे यहां इसे नागफनी कहते हैं ! यहां ये मेंडबन्दी का काम कर रही है |
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चेतक स्मारक |
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नकली बैलों के साथ हर्षित , बड़ा बेटा ! असली से तो बहुत डर लगता है !! |
Posted by
Yogi Saraswat
at
सोमवार, अप्रैल 06, 2015
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हल्दीघाटी
प्रस्तुति : योगी सारस्वत
यात्रा दिनांक : 23 जनवरी 2015
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नाथद्वारा
पहुँचते पहुँचते एक बज गया था। श्रीनाथ जी मंदिर पहुंचे तो वो मंदिर बंद
था , भगवान विश्राम कर रहे थे। अब मंदिर चार बजे पुनः खुलेगा। तब तक क्या
करें ? लोगों से हल्दी घाटी के बारे में पूछा तो कुछ ने बताया कि दो घंटे
लगेंगे जाने -आने में , कुछ ने कहा रास्ता बहुत खराब है , तीन घंटे तो कम
से कम लगेगा। लेकिन जब एक ऑटो वाले को पूछा कि कितना पैसा लगेगा और कितना
समय लगेगा ? उसने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया , तीन सौ रूपया लगेगा और आपको
पूरा घुमाकर पांच बजे तक आपको वापस यहीं मंदिर पर उतार दूंगा। भाव ताव में
260 रूपये में बात बन गयी। और बिना कोई देरी करे हमने अपना रास्ता तय करना
शुरू कर दिया। सामान हमारे पास बिल्कुल नही था। अपना सारा सामन हमने
उदयपुर के अपने होटल के रूम में ही रख छोड़ा था। कौन इतना सामान साथ में
लेकर चले , और फिर विचार ये भी वापस लौटकर उदयपुर ही आना है। तो आइये अब
श्रीनाथ जी मंदिर से लगभग 16 किलोमीटर दूर हल्दीघाटी चलते हैं।
भारत के पश्चिम में राजस्थान की अरावली पहाड़ियों में पड़ने वाली छोटी सी जगह
हल्दीघाटी राजस्थान के राजसमन्द और पाली जिलों को जोड़ती है। हल्दीघाटी का
ये नाम यहां पाई जाने वाली हल्दी के रंग की मिटटी के कारण , हल्दी घाटी
पड़ा है। आप यहां की चट्टानें देखेंगे तो एक बारी आपको लगेगा कि ये बिलकुल
उसी रंग की हैं जिस रंग की हल्दी होती है। इसी हल्दीघाटी के मैदानों में
सन 1576 में मेवाड़ के राणा प्रताप और मुग़ल शासक अकबर के सेनापति मान सिंह
के बाच भयंकर युद्ध हुआ था।
उदयपुर से हल्दीघाटी तक जाने के दो रास्ते हैं। एक तो नाथद्वारा से करीब
छह किलोमीटर पहले उदों से निकलता है लेकिन ये रास्ता बहुत खराब बताते हैं !
खराब मतलब दो तरीके से , सड़क भी खराब है और देर होने पर लूटपाट भी संभव है
। और दूसरा रास्ता है नाथद्वारा से। बस स्टैंड पर ही गाडी वालों से बात
करिये , वो सही रहेगा। हालाँकि सड़क इस रास्ते पर भी बहुत बढ़िया नही है
किन्तु हाईवे और ग्रामीण सड़क में कुछ तो अंतर होता ही है। ये दोनों रास्ते
खमनोर पर जाकर मिल जाते हैं। हमने यही रास्ता चुना , नाथद्वारा वाला।
ग्रामीण राजस्थान देखते हुए आगे बढ़ते गए ! इस रास्ते पर खमनोर से थोड़ा आगे
निकालकर आपको दोनों तरफ हल्दी जैसे रंग की पहाड़ियां दिखाई देंगी और उन्हें
पहाड़ियों में से हल्दी जैसे रंग की मिटटी खोदते हुए दिखाई देंगे , वो शायद
इस मिटटी को मसाले बनाने वाली कंपनियों को बेचते होंगे और ये मिटटी हमारे
घरों में हल्दी के रूप आती है। क्या यही सच है ? जब ये "हल्दी " की
पहाड़ियां खत्म होती हैं और कुछ समतल जगह आने लगती है तब " मार्केट " बदल
जाता है और अब हल्दी की जगह इत्र ले लेता है। इस क्षेत्र का आसवन विधि
द्वारा तैयार किया जाने वाला इत्र बहुत प्रसिद्द है और इसका सबूत वहां
रास्ते के दोनों तरफ सजी हुई दुकानें बेहतर देती हैं। इसके अलावा इसी
रास्ते पर एक गाँव पड़ता है मोलेला , जहां की "मड आर्ट " विश्व प्रसिद्द है।
हालाँकि मैं इस गाँव तक नही जा पाया लेकिन रोड पर लगे साइन बोर्ड का फोटो
जरूर ले आया।
हल्दी घाटी पहुँचने पर मेवाड़ के प्रति श्रद्धा और वीरता का एहसास होने लगता
है। वहां लड़ने वाले दोनों ही वीर , प्रताप और मान सिंह भारतीय थे , हिन्दू
थे लेकिन फिर भी एक के प्रति गर्व और दूसरे के प्रति नफरत पनपने लगती है।
ये होना भी चाहिए - क्यूंकि एक अपनी मातृभूमि के लिए लड़ रहा था और दूसरा
मुगलों के लिए अपनी वफ़ादारी सिद्ध कर रहा था। ऐसा कहते हैं कि मेवाड़ में
माताएं अपने बच्चे का नाम कभी मान सिंह नही रखती। मतलब अब भी वो रंज बाकी
है ? हल्दी घाटी में राजस्थान सरकार ने बहुत सुन्दर संग्रहालय बनाया हुआ है
जिसे देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। संग्रहालय के बाहर आपको ऊँट वाले ,
अपने ऊँटों को लेकर बैठे रहते हैं और ग्राहकों का इंतज़ार करते हैं। ऊँट पर
सवारी के पैसे पूछे तो बताया 50 रुपया एक आदमी का। तभी एक और विदेश जोड़ा
आया , उसने पूछा तो उसे बताया 100 रुपया। बाकायदा अंग्रेजी में कहा ऊँट
वाले ने -100 रुपीज़ ओनली। मैं तो नही बैठा बच्चे भी डर से नही बैठे आखिर बस
एक एक फोटो ही करवा ली 10 -10 रुपये में। अंदर आप महाराणा प्रताप और मान
सिंह की लड़ाई के चित्रों , ताम्बे पर उकेरी गयी कलाकृतियों से रूबरू होते
जाते हैं। फिर एक हॉल में प्रवेश करते हैं जहां आपको राणा प्रताप के
पुरखों की आदमकद तसवीरें , राणा प्रताप की तलवार , उनके खंजर और अन्य
हथियार रखे हुए हैं तथा तलवार से बचने के लिए पहने जाना वाला कवच भी देखने
के लिए रखा है। इस हॉल के अंदर से ही एक छोटा सा दरवाज़ा और भी है जो एक
पुराने जमाने के जैसे छोटे से सिनेमा हॉल में खुलता है। यहाँ 15-20 मिनट
की महाराणा प्रताप के जीवन को दिखाती एक लघु फिल्म दिखाते हैं। लेकिन जब
ये फिल्म खत्म होती है तो एक ऑडियो चलता है -ये लड़ाई सांप्रदायिक लड़ाई
नही थी , ये लड़ाई दो धर्मों की नही थी। ये लड़ाई मातृभूमि के लिए लड़ी गयी।
ऐसा बताने की वास्तव में जरुरत है क्या ?
फिल्म खत्म होने के बाद वहां का एक आदमी पीछे वाले दरवाजे से सबको अपने साथ
लेकर आगे चलता है। एकदम घुप्प अँधेरा। वो लाइट ऑन करता है और सामने
महाराणा प्रताप के जीवन से जुडी घटनाओं को मूर्तियों के माध्यम से दिखाने
वाले दृश्य मिलते हैं। ऐसे ही वो आगे चलता जाता है और नयी नयी बातें ,
घटनाओं का विस्तृत वर्णन करता जाता है। हिंदी में। बाहर आकर फिर आप
स्वतंत्र हो जाते हैं कहीं भी घूमने के लिए।
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ये वही मौलेला गाँव है जिसकी मड आर्ट दुनियाँ भर में विख्यात है |
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ये हल्दी जैसे रंग की पहाड़ियां |
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ये हल्दी जैसे रंग की पहाड़ियां |
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ऐसे चित्र मेवाड़
में बहुत मिलेंगे जिनमें चेतक की मृत्यु पर महाराणा प्रताप विलाप कर रहे
हैं और उनका भाई शक्ति सिंह उन्हें देख रहा है !! |
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हल्दीघाटी प्रवेश द्वार |
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ये कांच में थी सब चीजें , फोटो बढ़िया नही आ सके |
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ये कांच में थी सब चीजें , फोटो बढ़िया नही आ सके |
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ये कांच में थी सब चीजें , फोटो बढ़िया नही आ सके |
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ये महाराणा प्रताप का जीवन चित्र , फोटो बढ़िया नही आ सके |
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महाराणा ने बहुत दिनों तक जंगल में जीवन बिताया , उसके दृश्य |
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और ये मैं |
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इस मूर्ति में महाराणा प्रताप का घोड़ा , हाथी पर बैठे मान सिंह तक पहुँच गया था लेकिन मान सिंह बच गया और चेतक घायल हो गया |
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ऐसे चित्र मेवाड़ में बहुत मिलेंगे जिनमें चेतक की मृत्यु पर महाराणा प्रताप
विलाप कर रहे हैं और उनका भाई शक्ति सिंह उन्हें देख रहा है !! |
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पन्ना धाय का दृश्य |
आगे जारी है :
एकलिंगजी से श्रीनाथ जी मंदिर नाथद्वारा
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एकलिंग जी
में दर्शन तो बढ़िया हुए किन्तु उन्होंने मेरे सब फोटो डिलीट कर दिए थे
इसलिए थोड़ा सा गुस्सा भी था मन में ! हालाँकि गलती मेरी थी , लेकिन कोई
फोटो थोड़े ही डिलीट करता है ऐसे ? अब मन नही लग रहा था वहां बिलकुल भी !
इसलिए बाहर आ गये और सीधे चाय की दुकान पर दस्तक दे दी। बिलकुल सामने ही
चाय , समोसे की दुकान हैं ! मिर्ची पकोड़ा भी बढ़िया मिलता है , खाना चाहिए।
कम से कम एक बार तो खाने में कोई बुराई नहीं है अन्यथा आप राजस्थान की एक
फेमस चीज से वाकिफ नहीं हो पाएंगे। पेट पूजा करने के बाद अब हमारा ध्येय ,
हमारी मंजिल नाथद्वारा पहुंचना था।
नाथद्वारा मंदिर उदयपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है और यहां एकलिंगजी से 30
किलोमीटर। पता किया कि कैसे जाया जा सकता है , बोले बस से। सरकारी बस एक
दो ही निकली होगी और पूरा एक घंटा गुजर गया। किसी ने रोकी ही नही। राजस्थान
में भी ऐसा होता है ? उत्तर प्रदेश ही बहुत है ऐसे कामों के लिए। फिर वहीँ
के दूकानदार ने बताया कि आप ट्रेवल्स बस को हाथ देना , जगह हुई तो वो बिठा
ले जाएगा। पहली ट्रेवल्स बस आई , हाथ दिया , उसने पूछा कहाँ - मैंने कहा
नाथद्वारा ! बस आगे बढ़ा ले गया। एक और आई थोड़ी ही देर बाद। बिठा लिया !
लेकिन एक ही सीट खाली थी। पत्नी को बिठा दिया। मुझे बोला -आप ऊपर बैठ जाओ।
ऊपर ? कहाँ ? समझ आया। वो ट्रेवल्स की बस थी और उसमें सोने वाली सीट भी
होती हैं। मैं और बड़ा बेटा उसमें ही जा घुसे। पहली बार ऐसी सीट मिली है
जीवन में। असल में कभी बस में बहुत लम्बी यात्रा नहीं करी है मैंने तो
स्लीपर बस का ज्ञान नहीं था। लेकिन बहुत आरामदायक लगी। दो लोगों के लिए
सोने के लिए पर्याप्त जगह होती है। दो लोग अगर सामान्य हों तो , असामान्य
के लिए हर जगह कम पड़ जाती है।
एकदम बढ़िया चकाचक सड़क है। मुश्किल से एक घंटा लगा होगा नाथद्वारा पहुँचने
में। बस स्टैंड पर उतरकर समय देखा तो ठीक दोपहर के एक बज रहे थे। मंदिर
पहुंचे , मंदिर बंद मिला। अब मंदिर 4 बजे खुलेगा। यानि तीन घंटे खराब
होंगे। और नाथद्वारा में ऐसा और कुछ भी नही है कि वहां दो घंटे गुजारे जा
सकें। तो अब क्या करें ? तो अब सीधा हल्दी घाटी चलते हैं। ये ठीक रहेगा।
लेकिन आज कुछ बदलाव होगा। घूमा हमने पहले हल्दी घाटी था लेकिन वृतांत आपको
पहले श्रीनाथजी मंदिर , नाथद्वारा का पढ़वाऊंगा।
जैसा कि मैंने पहले लिखा कि दोपहर में मंदिर बंद हो जाता है सुबह 5 बजकर 45
मिनट से शुरू होकर दर्शन दोपहर में भगवान को राजभोग खिलाने तक हो सकते
हैं। राजभोग का समय 12 बजकर 10 मिनट है , उसके बाद भगवान जी , अटल बिहारी
वाजपेयी जी की तरह दोपहर की नींद लेते हैं। अटल जी भी दोपहर में दो घंटे
जरूर सोते थे , जब प्रधानमंत्री थे तब। अब का पता नही। फिर भगवान दोपहर बाद
3 बजकर 40 मिनट पर पुनः उपस्थित होते हैं दर्शनार्थियों के लिए। सुना तो
ऐसे है कि भगवान हर समय , हर जगह उपस्थित हैं फिर ऐसे लोक सभा और राज्यसभा
की कार्यवाही की तरह कैसे ? भगवान ही जानें। बीच बीच में 15 मिनट के लिए
"वो " लोग भगवान को दर्शन देने के लिए मुक्त करते हैं। अलग ही व्यवस्था है।
पुरुषों के लिए अलग , महिलाओं के लिए अलग प्रवेश द्वार हैं लेकिन अंदर
जाकर सब एक जगह मिल जाते हैं और क्या अव्यवस्था फैलती है , राम जाने। आधे
लोग तो बिना दर्शन के लिए ही लौट आते होंगे। ऐसे मारामारी फैलती है। ये
अव्यवस्था असल में वहां के टोपीधारी पंडितों की बनाई हुई लगती है। पहले वो
बाहर भीड़ इकट्ठी होने देते हैं फिर एकदम से दरवाजा खोलते हैं जिससे भीड़
धक्का मुक्की करती हुई आगे बढ़ती है। जैसे सर्कस चालू करने वाले हैं या कोई
इंटरव्यू टेस्ट लेना है। मैंने तो नही देखा लेकिन मेरी पत्नी ने शायद देखा
था कि कुछ लोगों को "दक्षिणा " लेकर बैक डोर एंट्री भी मिलती है। धंधा है ?
एक अलग चीज जो मैंने वहां महसूस करी , वो ये थी कि वहां प्रांगण में सीधे
हाथ पर बहुत सी दुकानें हैं , जहां आप अलग अलग चीज दान कर सकते हैं ! जैसे
आप चाहें तो खाना दान करें , गायों के लिए घास दान करें या उनके खाने की
कोई और चीज जैसे चोकर वगैरह ! लेकिन दूकान कोई भी खुली हुई नही थी। संभव
है सुबह के समय में खुलती हों। श्रीनाथ जी के मंदिर में गायों की सेवा का
लगा से प्रावधान किया हुआ है ! ये अच्छा है !
हमें हल्दी घाटी से लौटकर पांच बजे के दर्शन मिल गए थे। पांच बजे यानि आरती
के बाद के दर्शन। अब कुछ बात हो जाए भगवन श्रीनाथ जी के मंदिर के इतिहास
विषय में। बनास नदी के किनारे बसे नाथद्वारा में भगवान श्री नाथ जी ( श्री
कृष्णा जी ) को समर्पित मंदिर 17 वीं शताब्दी का बना हुआ है। नाथद्वारा
मतलब नाथ +द्वार यानि भगवान का द्वार। विशेषकर गुजरात में इस मंदिर को
श्रीनाथ जी की हवेली के नाम से भी पुकारा जाता है। इस मंदिर के निर्माण से
जुडी एक बहुत प्रसिद्द कहानी है। भगवान श्री नाथ जी वृन्दावन में विराजमान
थे लेकिन उस समय औरंगज़ेब ने जो कत्लेआम और मंदिरों को ध्वस्त करने का
अभियान चलाया हुआ था उसे देखते हुए राणा राज सिंह ने 1672 ईस्वी में इसे
वृन्दावन से कहीं दूर ले जाने का निश्चय किया ताकि वो अपने आराध्य देव की
प्रतिमा को सुरक्षित बचा सकें। लेकिन रास्ते में सिंहद गांव में एक जगह उस
रथ के पहिये कीचड़ में धंस गए , जिस रथ से भगवान को दूर ले जाया जा रहा था।
ये देखकर मुख्य पुजारी ने राणा को सलाह दी कि भगवान यहीं स्थापित होना
चाहते हैं और वो जगह नाथद्वारा (सिंहद) थी , और इस तरह नाथद्वारा के
प्रसिद्ध श्री नाथ जी मंदिर का निर्माण हुआ। स्थापत्य के नजरिया से देखें
तो इस मंदिर की बनावट बहुत साधारण है, भगवान का रूप और उनके प्रति आस्था
इसे विशिष्ट बनाती है।
मुख्य मंदिर
से दर्शन करने के पश्चात बाहर निकलने का अलग से रास्ता है। ये वास्तव में
एक गैलरी है जिसके दोनों तरफ बड़े बड़े हॉल नुमा कमरे बने हैं जिनमें भगवान
के विभिन्न रूपों वाली तसवीरें और मूर्तियां लगी हुई हैं। कुछ में वहां
के पुजारी अपना निवास स्थान बनाये हुए हैं। इस गैलरी के आखिर में जाकर एक
बहुत बड़ा खुला मंडप है जहां शायद व्यास जी अपनी कथा , अपने उपदेश भक्तों को
सुनाते होंगे। हमारे यहां व्यास जी कथा वाचकों को कहा जाता है। मुझे
यहां के पुजारी बिलकुल
अलग तरह की वेशभूषा के लगे। उनके सर पर एक अलग तरह की टोपी होती है और
अंगरखा शायद वृन्दावन और मथुरा के पुजारियों से ही मिलता जुलता है। ये
शायद वैषणव संप्रदाय के पुजारियों विशिष्ट वेशभूषा है ! मैं यहां भी
एकलिंगजी जैसा हाल नहीं होते देखना चाहता था इसलिए कैमरा छुपकर ले जाने की
भी हिम्मत नहीं थी।
श्रीनाथ जी मुख्य रूप से वल्लभ संप्रदाय ( वैष्णव संप्रदाय या पुष्टि
मार्गी ) के आराध्य माने जाते हैं। वल्लभाचार्य जी के सुपुत्र श्री विट्ठल
नाथ जी ने नाथद्वारा में श्रीनाथ जी की पूजा शुरू करवाई और उनके चित्र भी
इस मंदिर में जगह जगह विराजमान हैं। भगवान श्री कृष्णा जी की ये मूर्ति
उनके बाल्यकाल के रूप की है जब उन्होंने गोवेर्धन पर्वत उठाया था। इसलिए
उनका यहां प्राम्भिक नाम "देवदमन " भी था क्यूंकि उन्होंने इंद्रा का दम्भ
तोडा था। लेकिन बाद में उन्हें वल्लभाचार्य जी ने गोपाला नाम दिया और इस
जगह को "गोपालपुर " कहा। उनके पुत्र श्री विट्टल नाथ जी ने भगवान का
नामकरण किया " श्रीनाथ जी " और वो ही नाम अब प्रसिद्द है।
आइये फोटो देखते हैं :
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बस की स्लीपर सीट पर हर्षित बाबू आराम फरमा रहे हैं |
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बस की स्लीपर सीट पर हर्षित बाबू आराम फरमा रहे हैं |
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कहाँ जा के कंपनी ने अपना नाम लिखा है !! लेकिन अच्छा लगा मुझे और क्लिक |
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कहाँ जा के कंपनी ने अपना नाम लिखा है !! लेकिन अच्छा लगा मुझे और क्लिक |
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श्रीनाथ जी का द्वार |
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केवल पुरुष !! |
आगे अब हल्दी घाटी चलेंगे ! यात्रा जारी रहेगी :
Posted by
Yogi Saraswat
at
शुक्रवार, मार्च 27, 2015
उदयपुर से एकलिंगजी
अगर आप उदयपुर का यात्रा वृतांत पढ़ना चाहें तो
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पूरा एक दिन उदयपुर में व्यतीत करने के बाद जब लगा कि अब ऐसी कोई
महत्वपूर्ण जगह देखे बिना नहीं रही है तो वापस होटल लौट लिए ! होटल बस
स्टैंड के सामने वाली रोड पर था अम्बा पैलेस ! लौटते लौटते आठ बज गए ! अब
खाने का भी समय था ! पूरा दिन इधर उधर घूमते हुए जो कुछ मिला था , वही खाकर
काम चला लिया था तो अब खाना ही खाना था ! बस स्टैंड के पास में ही एक
बढ़िया सा खाने का स्थान दिखाई दिया , शानदार नाम था शायद उसका ! बढ़िया जगह
लगी ! हमारे लायक ! 130 रुपये की थाली ! राजस्थानी ले लो या गुजराती ! 20
रुपये का पराठा ! कुल मिलाकर सस्ता और बेहतर ! इतना थक चुके थे और इतना खा
लिया था कि ऐसा लगा कि अब बस होटल पहुंच जाएँ ! यही हुआ ! जाते ही बिस्तर
पर पड़ गए ! ऐसे हालत में , जब आप सुबह से ही घूम रहे हैं सबकी हालत यही हो
जाती है ! लेकिन सोने से पहले कल का प्रोग्राम जरूर बना लिया था !
जैसा कि अक्सर होता है , कार्यक्रम के अनुसार हमें आठ बजे होटल से निकल
जाना था लेकिन जनवरी के मौसम में बच्चों के साथ आठ बजे जागना ही बहुत
मुश्किल हो जाता है , तैयार होकर निकलना तो बहुत बड़ी बात हो जाती है ! खैर
जैसे तैसे 9 बजे हम होटल से निकलकर बस स्टैंड पहुंचे ! नाश्ता किया और फिर
बस के विषय में जानकारी ली ! आजकल टेक्नोलॉजी ने बहुत से काम आसान कर दिए
हैं ! ट्रेन के विषय में कुछ पता करना हो , ऍप्स है न ? बस के विषय में
कुछ जानना हो , ऍप्स है न !! लेकिन छोटी छोटी बातों के लिए एप्प रखना मुझे
पसंद भी नही और शायद जरुरत भी नही ! पूछताछ खिड़की सामने हो और आप एप्प यूज़
करें ? एकलिंगजी जाने के बारे में पता किया तो उसने तुरंत टिकेट काट दी !
दो टिकट थे ! अभी बच्चों को मुफ्त ही चला रहा हूँ ! हालाँकि एक छह साल का
हो गया है ! एक टिकट 22 रुपये का और दूसरा 16 रुपये का ! अंतर इस वजह से
क्योंकि राजस्थान में महिलाओं को बस में 30 प्रतिशत की छूट मिलती है !!
टिकट एकलिंगजी के नाम से नहीं बनता बल्कि कैलाशपुरी के नाम से बनता है !
वहां के स्थानीय लोग भी उस जगह को कैलाशपुरी ही कहते हैं , एकलिंगजी हमारे
और आपके लिए है ! उदयपुर से नाथद्वारा जाने वाली रोड पर उदयपुर से करीब 22
किलोमीटर दूर !
भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर को सिसोदिया शासकों ने सन 971 में बनवाना
शुरू किया ! एकलिंगजी यानि भगवान शिव मेवाड़ राज्य के आराध्य देव माने जाते
हैं ! ये एक तरह का काम्प्लेक्स है जिसमें 108 छोटे बड़े मंदिर हैं ! आज का
जो रूप इस मंदिर का है वो 15 वीं शताब्दी का है ! छोटे छोटे मंदिरों को
मंडप के रूप में बनाया गया है ! बाहर से देखने पर ऐसा लगेगा मानो ये कोई
खँडहर होगा लेकिन जब दरवाजे से अंदर जाते हैं तो इसका एक भव्य रूप दिखाई
देता है ! बाहर का दरवाज़ा ऐसा है जैसा आमतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के
गाँवों में बड़े बड़े घरों में होता है यानि हवेलियों में ! लकड़ी का बहुत
बड़ा सा दरवाज़ा, ऊपर की तरफ से थोड़ा सा अर्धवृत्ताकार ! अंदर का मुख्य मंदिर
पुराने रूप की स्थापत्य कला का बेहद बेहतरीन नमूना है ! इस मंदिर में
भगवान शिव चार चेहरे के साथ विराजमान हैं ! इसी काम्प्लेक्स में
भगवान लकुलीश
को समर्पित भारत का एक मात्र मंदिर भी स्थित है किन्तु उसे आजकल
श्रद्धालुओं और दर्शनार्थियों के लिए बंद कर दिया गया है , क्यों ! मुझे
नहीं मालुम ! ये इस काम्प्लेक्स के बिलकुल पीछे की ओर स्थित है जिसे आप
देख तो सकते हैं किन्तु वहां जाकर भगवान के दर्शन नहीं कर सकते !
एकलिंगजी भगवान के दर्शन करने में तो जो आनंद आया वो बयान नहीं किया जा
सकता ! भगवान की मूर्ति पांच दरवाज़ों के अंदर रखी हुई है ! पहला कमरा खाली ,
दूसरा और तीसरा भी खाली और चौथे में भगवान विराजमान हैं पांचवां फिर खाली !
ये शायद खाली कमरे वहां के पुजारियों के काम आते होंगे ! चौथे में भगवान
को विराजमान किया हुआ है ! दर्शन करने में बहुत ज्यादा भीड़ भाड़ यानि 27
जनवरी को तो नहीं मिली ! आराम से दर्शन किये , प्रसाद लिया और थोड़ी देर
बैठे भी ! मंदिर की स्थापत्य को देखने और उसकी खूबसूरती को निहारने के
लिए। मुख्य द्वार पर चौखट के तीनों तरफ चांदी लगाईं हुई है जिससे उसकी
खूबसूरती और भी बढ़ जाती है ! मूर्ति के ऊपर भगवान को पञ्च स्नान कराने के
लिए एक छतरी लगा रखी है , ये प्रयोग मुझे बहुत ही पसंद आया ! मथुरा में
बांके बिहारी मंदिर में शायद बाल्टी से भगवान को स्नान करवाते हैं !
एकलिंगजी जी के दर्शन करने के पश्चात इधर उधर के फोटो लेने लगा ! हालाँकि
वहां स्पष्ट लिखा है कि फोटो लेना सख्त मना है और वो कैमरा वहीं लॉकर में
रखवा लेते हैं लेकिन मैंने सिक्योरिटी वाले की नजर से बचा के छोटा कैमरा
अपनी पॉकेट में रख लिया था ! मैं सिक्योरिटी वालों की नज़रों से बचके फोटो
खींचता रहा और बहुत फोटो खींच भी लिए थे ! कैमरा वापस अपनी जेब में रख
लिया ! सिक्योरिटी वालों ने मुझे देख भी लिया था और एक बार मना भी किया था !
लेकिन 15 फोटो खींचने के बाद जैसे ही मैंने एक फोटो और ली , एक सिक्योरिटी
वाला मेरे पास आया और बोला आप मान नही रहे हैं , आप कैमरा दीजिये अपना !
मैंने उसे कहा -मेरे पास कैमरा है ही नहीं ! लेकिन वो मुझे मुन्तजिम
कार्यालय ( कंट्रोल ऑफिस ) ले गया और वहां मेरे द्वारा खींचे गए एकलिंगजी
के सब फोटो डिलीट करा दिए ! नालायक !! मेरा भी लालच था अन्यथा अगर मैं एक
फोटो और न खींचता तो शायद पकड़ा भी न जाता ! इसलिए एकलिंगजी के जो भी फोटो
आपको यहां मिलेंगे वो सब इंटरनेट से एकत्रित किये हुए हैं या मेरी पत्नी
ने लिए हैं अपने मोबाइल से ! क्षमा चाहूंगा !
इसी मंदिर के पीछे महाराणा रायमल द्वारा 1473 से लेकर 1509 तक बनवाए गए कई
मंदिर और भी हैं और एक महल भी है ! इनमें से सिर्फ एक ही में भगवान शिव
की मूर्ति स्थापित है !
आइये कुछ फोटो देखते हैं इसके बाद नाथद्वारा चलेंगे !!
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बाहर से देखने पर एकलिंगजी मंदिर किसी ग्रामीण इलाके का मंदिर लगता है |
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सड़क के ऊपर महल |
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एकलिंग जी के पीछे भी मंदिर और खंडहरनुमा महल हैं लेकिन शायद 100 में से 10 लोग भी उधर नहीं जाते |
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एकलिंग जी के पीछे के मंदिर |
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एकलिंग जी के पीछे के मंदिर |
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ये कभी महल रहा होगा , आज खंडहर है
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ये कभी महल रहा होगा , आज खंडहर है
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एक नमूना ये भी देखिये!
इसे नाला कहियेगा या महल का दरवाज़ा |
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ये भी एक महल है और इसके बाशिंदे कभी कभी यहां आते हैं |
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पीछे की तरफ से खींचा गया एकलिंग जी मंदिर का चित्र |
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पीछे की तरफ से खींचा गया एकलिंग जी मंदिर का चित्र |
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और ये एक लंगूर , दिख रहा है ?
आगे यात्रा आगे भी जारी रहेगी :
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उदयपुर रोप वे और दीनदयाल उपाध्याय पार्क
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सिटी पैलेस और जगदीश मंदिर देखते हुए जब सूरज अपनी ड्यूटी पूरी करके वापस
अपने घर अपने बीवी बच्चों के पास जाने की तैयारी करने लगा तब हमें भी याद
आया कि अभी तो हमें रोप वे और पंडित दीनदयाल उपाध्याय पार्क भी जाना है !
ऑटो वाले ने अपना ऑटो जगदीश मंदिर के सामने वाले पोल में खड़ा कर लिया था !
उससे बात करी तो वो फोन पर ही चिल्ला चिल्ला कर कहने लगा - सर सामने देखिये
, सामने ही हूँ ! कई बार देखा ! नहीं दिखा ! सर सामने , सामने वाले पोल
में ! दिख गया ! मैंने पूछा -यहां ऐसे छुप के क्यों बैठे हो ? बोला सर ,
पुलिस वाले चालान काट देते हैं इसलिए यहां अंदर की तरफ ही हूँ ! उसने जहां
अपना ऑटो लगा रखा था उसके ही बिल्कुल सामने चाय समोसे की दूकान भी थी !
खाना तो खाया ही नहीं था , बस ऐसे ही बीच बीच में कुछ खाकर काम चल जा रहा
था , और सच बात तो ये है कि हमें भूख लग भी नहीं रही थी ज्यादा ! बस चाय
पीने का ही मन था। अंदर घुस गए ! अंदर नमक पारे जैसी कोई चीज थी , 10
रुपये की 100 ग्राम ! ले ली ! सच में अच्छी थी ! बाहर ऑटो वाला खड़ा था उसे
भी अंदर ही बुला लिया , भाई तुम भी चाय पी लो ! पहले तो कुछ सकुचाया ! जब
मैंने कहा कि पी लो तुम्हारे पैसों में से कम नहीं होंगे , तब थोड़ा सा
मुस्कराता हुआ अंदर आ गया और अपनी चाय बाहर ही ले गया ! चाय ख़त्म करते ही
अब हमारी मंजिल सीधा मंशा पूर्ण करनी देवी मंदिर तक जाने की थी। मनसा
पूर्ण करनी देवी मंदिर एक ऊँची सी पहाड़ी पर है ! जहां तक गंडोला ( रोप वे )
से जाते हैं ! हालाँकि जब तक रोप वे नहीं बना था तब तक लोग शायद सीढ़ियों
से जाते होंगे। ये सीढ़ियां रोप वे की ट्राली से नजर आती है और एक आध आदमी
इनपर से ऊपर जाता
हुआ भी दिखाई दे जाता है ! चौड़ी लगती है और शायद एकदम साफ़ सुथरी भी ! इसका
मतलब इनका उपयोग अभी जारी है !
जग मंदिर दूर से देखते हुए पिछोला झील के किनारे किनारे से ऑटो वाले ने
बमुश्किल 10 मिनट में हमें रोप वे के पास पहुंचा दिया ! रोड के किनारे ही
एक छोटी सी दूकान है कन्फेक्शनरी की जहां चॉकलेट वगैरह ज्यादा बिकते हैं ,
उसी के एक कोने में छोटा सा केबिन बनाया हुआ है रोप वे के टिकेट बेचने के
लिए। वयस्क के लिए 78 रुपये का ! मैंने ढाई टिकट लिया , सोचा कि छोटे बेटे
का तो शायद फ्री चल जाएगा ! अभी चार ही साल का तो है ! टिकट लेकर दुकान
के बराबर से ही नीचे की तरफ से रोप वे स्टैंड तक जाने के लिए रास्ता है ।
नीचे पहुंचे , हमारा नंबर स्क्रीन पर आने लगा तो उसने टिकट चेक किया ,
बोला आधा टिकट और लेना पड़ेगा आपको। क्यों भाई ? अभी तो ये पांच साल का भी
नहीं हुआ !! उसने फिर बताया कि उम्र से नहीं बच्चे की हाइट से टिकट का
निर्धारण होता है , 110 सेंटीमीटर की हाइट से ज्यादा के बच्चे का आधा टिकट
लगता है ! ओह ! फिर दोबारा गया टिकट लेने , और फिर दोबारा लाइन में लगा !
बच्चे का 39 रूपये टिकट लगता है , पूरे चालीस ही हो जाते हैं ! एक रुपये की
टॉफ़ी पकड़ा देगा। ये अच्छा धंधा चल पड़ा है आजकल , जिसके पास खुले पैसे
नहीं होते वो 1 -2 रुपये की या तो टॉफ़ी पकड़ा देता है या माचिस दे देता है !
इसी को लेकर एक सच की कहानी मेरे पड़ोस में हुई थी। आज नहीं फिर कभी
सुनाऊंगा !
जून 2008 में शुरू हुआ उदयपुर का रोप वे घूमने वालों के लिए एक अच्छा स्थान
बन गया है। आने जाने का दोनों तरफ का किराया इस 78 रूपये में ही शामिल है !
रोप वे इधर से ले जाकर उधर करनी माता के मंदिर तक ले जाती है ! हालाँकि
मुख्य मंदिर के लिए थोड़ा सा और चलना पड़ता है ! लेकिन इस 10 मिनट के सफर में
बहुत रोमांच आ जाता है ! एक ट्राली में छह लोग आ जाते हैं। सामने की सीट
पर तीन और लोग बैठे थे ! थोड़ी देर बाद उनमें से एक ने मुझे पूछा - आप
आई.बी. में हैं ? मैंने कहा नहीं ! मैं इंजीनियरिंग कॉलेज में हूँ ! लेकिन
आप ऐसे क्यों पूछ रहे हैं ? आपकी जैकेट पर पीस ऑफिसर लिखा है ! ओह ! घंटोली
आदमी था। ऐसे किसी की जैकेट पर मोदी लिखा होगा तो वो नरेंद्र मोदी हो
जाएगा ?
करनी माता मंदिर ऐसे तो बीकानेर में है जो बहुत प्रसिद्द भी है किन्तु उसी
का एक रूप यहां भी बन रहा है ! अभी दान की अवस्था में है ! दान की अवस्था
में , मतलब दान आएगा तो काम चालू रहेगा ! करनी माता का मंदिर हो और चूहे न
हों , ऐसा कैसे हो सकता ? दान की पेटी रखी हो तो धर्म के लिए कुछ दान कर भी
देना चाहिए। मैंने भी कर दिया। इसी मंदिर से आगे एक दरगाह भी है !
किसकी है मालूम नहीं ! दरगाह में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं होती इसलिए मैं
अंदर भी नहीं जाता। नीचे एक रास्ता और भी जाता है , इसी रास्ते के अंत में
एक खँडहर सा है। दरवाज़ा तो खुला था मगर अंदर नही जा पाया लेकिन जब उसे
ऊपर से देखा तो उसका आँगन दिखाई दे रहा था जो एकदम गंदा , बीट से भरा पड़ा
था ! उसके बरामदे से लग रहा था कि वो शायद किसी का अधूरा महल रहा होगा ! न
इसके विषय में वहां किसी को पता था और न ही कोई पट्टिका दिखाई दी जिससे कुछ
पता चल पाता !
जब करनी माता मंदिर से इधर उतरकर आते हैं तो पास में ही पंडित दीन दयाल
उपाध्याय पार्क है ! यहां पंडित जी की जो मूर्ति लगी है उसका उद्घाटन
राजयपाल कल्याण सिंह ने किया है , इसका मतलब ये अभी हाल ही में लगी है !
क्यों अभी हाल ही में कल्याण सिंह जी राजस्थान के राजयपाल बनाये गए हैं !
अच्छी जगह है , विशेषकर बच्चों के लिए ! और बड़ी बात ये कि फ्री है ! उदयपुर
में फ्री होना बड़ी बात है !
इस पोस्ट के साथ हम उदयपुर की यात्रा ख़त्म करेंगे और अब आगे एकलिंगजी चलेंगे अगले दिन :
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केबल कार प्रतीक्षा स्थल |
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केबल कार सेट अप |
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केबल कार वो आई |
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केबल कार अभी दूर है |
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आ रही है |
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आ गयी |
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आ गयी |
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आ गयी |
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केबल कार से खींचे चित्र |
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केबल कार से खींचे चित्र |
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केबल कार से खींचे चित्र |
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बीच में दिखाई देता जगमंदिर |
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करणी माता मंदिर |
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मंदिर को पूर्ण करने के लिए और भी सामान की जरुरत पड़ेगी |
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वापस चलते हैं |
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दीन दयाल उपाध्याय पार्क |
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दीन दयाल उपाध्याय पार्क |
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सूर्यास्त के दर्शन |
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कुछ मौज मस्ती हो जाए |
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कुछ मौज मस्ती हो जाए |
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कुछ मौज मस्ती हो जाए |
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अब रात हो चली है ! होटल वापस चलते हैं |
यात्रा जारी है :
जगदीश मंदिर : उदयपुर
जगदीश मंदिर
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सिटी पैलेस अरावली पहाड़ियों पर बना हुआ है और इसकी हल्की सी चढ़ाई जगदीश
मंदिर से ही शुरू हो जाती है ! ऑटो -गाड़ियां खड़ी करने की जगह नहीं मिल पाती
लोगों को तो वो यहीं छोड़ देते हैं ! और कहते हैं कि सामने ही जगदीश मंदिर
है आप देख के आओ , मैं यहीं खड़ा हूँ ! मैं यहीं खड़ा हूँ के चक्कर में वो
अपने ऑटो को ले जाता है कहीं और ! उसे मालुम होता है कि अब आप 2 -3 घंटे से
पहले नहीं आने वाले लौटकर ! सिटी पैलेस और जगदीश मंदिर को देखने और घूमने
में इतना समय लग ही जाता है !
जगदीश मंदिर उदयपुर के दर्शनीय स्थलों में गिना जाता है ! असल में आप जिस
होटल में रुके होते हैं वो आपको एक बुकलेट दे देते हैं कि सर ये ये जगह हैं
उदयपुर में जहां आप जाना चाहेंगे ! आपकी मर्जी , आप कहाँ जाना चाहते हैं ?
सिटी पैलेस देखने के बाद हम पैदल पैदल ही जगदीश मंदिर की तरफ निकल चले !
आप देखेंगे की सिटी पैलेस काम्प्लेक्स के अंदर और बाहर इंडिया और भारत जैसा
ही अंतर है ! मतलब अंदर इंडिया जैसा एकदम साफ़ और सिटी पैलेस से बाहर
निकलते ही भारत जैसा गंदा माहौल ! सिटी पैलेस के बाहर की गन्दगी दिखाई दे
जाती है ! दौनों तरफ बाजार सजे हैं लेकिन गाहक मुझे तो नहीं दिखे ज्यादा !
आते होंगे शाम को !
सिटी पैलेस के बड़ा पोल की तरफ भगवान विष्णु ( लक्ष्मी नारायण ) को समर्पित
जगदीश मंदिर मारू गुर्जर स्थापत्य कला ( मेवाड़ की पुरानी स्थापत्य कला )
में बना हुआ है जिसे 1651 में महाराणा जगत सिंह ने बनवाया ! पूरी 32
सीढ़ियां हैं जो बिल्कुल सीधी हैं ! आप अनुमान लगाएं कि 10 मीटर की चौड़ाई
में अगर आप 32 सीढ़ियां बनावायें तो लगभग एकदम सीधी होंगी ! आधा दम तो
सीढ़ियां चढ़ते ही निकल जाता है !
ऐसा कहते हैं कि इस मंदिर को बनाने में 15 लाख रुपये का खर्च आया था ! इस
शानदार मंदिर के शिखर में नर्तकों , संगीतकारों , घुड़सवारों के मूर्तियां
लगी हैं जो इसे अद्भुत और स्थापत्य के तौर पर विशिष्ट बनाती हैं। प्रवेश
करते ही पत्थर के बने दो हाथी आपका स्वागत करने को तैयार हैं ! यहाँ गरुड़
की प्रतिमा इस तरह से स्थापित करी गयी है जैसे वो भगवान विष्णु के पहरेदार
के रूप में कार्यरत हों।
दर्शन करने में बिलकुल भी परेशानी नहीं होती ! मुख्य मंदिर के आसपास इतनी
जगह है कि भीड़ होने पर भी उसे नियंत्रित किया जा सकता है ! मंदिर की
दीवारों पर जो कलाकृतियां हैं उन्हें देखकर एक बारी लगता है जैसे हम
उदयपुर में नहीं बल्कि खजुराहो के मंदिर देख रहे हों !!
आइये फोटो देखते हैं :
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जगदीश मंदिर प्रवेश द्वार |
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जगदीश मंदिर प्रवेश द्वार |
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दीवारों पर कलाकृतियां |
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दीवारों पर कलाकृतियां |
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दीवारों पर कलाकृतियां |
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मंदिर के खंभे भी आकर्षित करते हैं |
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दीवारों पर कलाकृतियां |
उदयपुर : सिटी पैलेस
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मेवाड़ जितना समृद्ध आज दीखता है उतना ही समृद्ध पहले भी रहा होगा ! अगर आप
उनके बनाये हुए किले और महल देखें तो उस वक्त के मेवाड़ की झलक और कल्पना
आँखों में तैरने लगती है ! इसी समृद्ध स्थान को देखने के लिए हमने
सहेलियों की बाड़ी और सुखाड़िया सर्किल के बाद सीधा रुख किया सिटी पैलेस का ! आइये सिटी पैलेस चलते हैं और उसके विषय में जानते हैं !
उदयपुर का प्रसिद्द सिटी पैलेस लगभग 400 वर्ष बूढा हो चला है ! इसे महाराणा
उदय सिंह ने 1559 में बनवाना शुरू किया और फिर उनकी मृत्यु के बाद और
राजाओं ने इसके निर्माण को जारी रखा ! अरावली पहाड़ियों में लेक पिछोला के
पास बने इस भव्य महल के पीछे एक किवदंती हवा में फैली हुई सी रहती है !
महाराणा उदय सिंह जब लेक पिछोला ( उस वक्त तो ये गन्दी संदी सी कोई पोखर ही
रही होगी ) के आसपास शिकार के लिए गए हुए थे तब उन्हें यहां एक पहाड़ी पर
साधू महाराज तपस्या करते हुए मिले ! महाराणा ने उन्हें प्रणाम कर आशीर्वाद
लिया तो साधू ने उन्हें बताया कि तुम्हारे बुरे दिन शुरू होने वाले हैं
इसलिए बेहतर है कि अपनी राजधानी चित्तोड़ से यहां ले आओ ! महाराणा उदय सिंह
ने उनकी बात का ध्यान रखते हुए अपनी राजधानी को चित्तोड़ से उदयपुर ले जाने
का फैसला कर लिया ! एक ज्ञान की बात ये भी है कि चित्तोड़ आने से पहले उनकी
राजधानी उदयपुर के पास नागदा में थी। चित्तोड़ से लगभग 80 साल शासन चलाने
के बाद सिसोदिया वंश के महाराणा उदय सिंह को जब लगने लगा कि वो चित्तोड़
पर मुगलों के हाथों अपना शासन गंवा सकते हैं तब उन्होंने राजधानी उदयपुर ले
जाने का निश्चय कर लिया ! और वहां उन्होंने सिटी पैलेस के निर्माण की नींव
रखी जिसमें सबसे पहले उन्होंने शाही आँगन " राय आँगन " बनवाया ! सन 1572
ईस्वी में महाराणा उदय सिंह की मृत्यु के बाद परमवीर महाराणा प्रताप ने
शासन संभाला और सिटी पैलेस का निर्माण अनवरत जारी रहा ! उनके बाद भी इसकी
भव्यता को और राजाओं ने भी चार चाँद लगाने में कोई कसर बाकी नहीं रहने दी !
सन 1736 ईस्वी में मराठाओं ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया और ज्यादातर माल लूट
खसोट लिया और उसके साथ ही इस भव्य महल को तहस नहस कर दिया ! इसके बाद किसी
ने भी इस महल की सुध नहीं ली ! लेकिन जब अंग्रेज़ों की नजर इस अनमोल खजाने
पर पड़ी तो उन्होंने इसका पुनर्निर्माण कराया और उसे आज के समय की भव्यता
प्रदान करी ! भारत जब आज़ाद हुआ और सरदार पटेल के नेतृत्व में 1949 में
रियासतों को भारत गणराज्य में सम्मिलित किया गया तो मेवाड़ भी राजस्थान की
अन्य रियासतों के साथ भारत में शामिल हो गया और इसके साथ ही महाराणा उदय
सिंह के वंशजों ने इस महल पर अपना अधिकार खो दिया लेकिन कालांतर में
उन्होंने कोर्ट के माध्यम से और ट्रस्ट बनाकर इसे वापस अपने अधिकार क्षेत्र
में ले लिया !
सिटी पैलेस क्योंकि निजी हाथों में है और उदयपुर जाने वाला हर कोई व्यक्ति
इसे अपनी लिस्ट में जरूर शामिल करता है तो मुझे लगता है इसी का फायदा उन
लोगों ने उठाया है ! 115 रुपये का टिकेट है एक वयस्क का और बच्चे का 55
रुपये का ! बच्चे का मतलब 5 साल से ऊपर के बच्चे का ! तो इस तरह हमें देने
पड़ते 340 रूपये ! दो वयस्क और दो बच्चे ! लेकिन थोड़ी सी चोरी कर ली !
बच्चों का टिकट नहीं लिया ! सिटी पैलेस काम्प्लेक्स में एक हायर सेकण्ड्री
स्कूल भी है , और जिस समय हम वहां पहुंचे , उस स्कूल के बच्चे बाहर निकल कर
आ रहे थे , स्वाभाविक है भीड़ सी हो गयी और इसी चक्कर में हम अंदर चले गए !
न हमसे किसी ने बच्चों का टिकट माँगा , न हमने बताया ! पूरे 110 रूपये बचा
लिए !
अंदर जाकर बहुत सी दुकानें सजी हुई हैं ! ज्यादातर इंडियन क्राफ्ट और कपड़ों
की ! लोग भी वीआईपी ही अंदर जाते हैं , न मेरी हैसियत थी इतना महंगा कुछ
लेने की , न मुझे जरुरत थी ! मैं नहीं गया ! महल के अंदर ज़नाना महल ,
मर्दाना महल भी हैं जो निश्चित रूप से महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग अलग
बनवाए होंगे ! सिटी पैलेस को अगर महलों का समूह कहा जाए तो गलत नहीं होगा !
इसमें अलग अलग समय पर अलग अलग राजाओं द्वारा बनवाए गए महल हैं ! जैसे राजा
अमर सिंह ने बनवाया तो अमर महल , भोपाल सिंह ने बनवाया तो भोपाल महल आदि
आदि ! इस महल में महाराणा प्रताप और उनके वंशजों और पूर्वजों की आदमकद
तसवीरें लगी हैं , उनका सामान रखा हुआ है ! लेकिन कैमरे की भी टिकट लगती है
! भले ही टिकट महंगा है लेकिन आप जब एक बार अंदर जाकर इसकी खूबसूरती और
इसकी भव्यता देखते हैं तो निस्संदेह टिकट भूल जाते हैं !
इसी सिटी पैलेस में घूमते वक्त एक जापानी पर्यटक से मुलाकात हो गयी !
जापानी पर्यटक स्वभाव से बड़े शर्मीले और एकांतवासी होते हैं ! इन्हें आप
आसानी से पहिचान भी सकते हैं ! इनका मुंह थोड़ा चपटा सा और येल्लोयिश ( पीला
सा ) होता है ! हो सकता है वो चीनी हो , मंगोलियन या कम्बोडिया का भी हो !
यानी पूर्व एशिया का ! तो मैंने सोचा इसे पहले पूछ कर पक्का कर लेता हूँ
कि जापानी ही है ! भरोसा ऐसे भी था कि हिंदुस्तान में चीनी या मंगोलियन
पर्यटक बहुत कम आते हैं , जापानी ज्यादा आते हैं ! भगवान की कृपा से ठीक
ठाक जापानी भाषा मुझे आती है ! मैंने पूछा - अनातावा निहोंजिन देस का ? जब
उसने हाई कर दिया ! फिर तो पक्का हो ही गया कि बन्दा जापानी ही है और फिर
करीब 15 मिनट तक मैं उसका और वो मेरा दिमाग चाटता रहा !
आज इतना ही ! राम राम जी !!
आइये फोटो देखते हैं :
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इस महल में "रॉयल आँगन" सबसे पहले बनवाया गया था ! नेट से फोटो उतारी है |
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चेतक सर्किल |
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सिटी पैलेस प्रवेश द्वार |
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सिटी पैलेस प्रवेश द्वार |
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सिटी पैलेस प्रवेश द्वार |
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ओपन एयर रेस्तौरेंट |
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ओपन एयर रेस्तौरेंट |
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भारत की शानदार विरासत उदयपुर का सिटी पैलेस |
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ये महल के अंदर के दृश्य हैं
ये महल के अंदर के दृश्य हैं
ये महल के अंदर के दृश्य हैं
ये महल के अंदर के दृश्य हैं
ये महल के अंदर के दृश्य हैं
ये महल के अंदर के दृश्य हैं |
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भारत की शानदार विरासत उदयपुर का सिटी पैलेस |
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भारत की शानदार विरासत उदयपुर का सिटी पैलेस |
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भारत की शानदार विरासत उदयपुर का सिटी पैलेस |
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भारत की शानदार विरासत उदयपुर का सिटी पैलेस |
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सूरज पोल ! पोल राजस्थान में दरवाज़ों को बोलते हैं |
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शानदार फव्वारा |
यात्रा जारी रहेगी :
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उदयपुर जैसे शहर में , जहां देखने के लिए पग पग पर खज़ाना भरा हो , आपके पास
समय और अपना वाहन ( किराए पर भी ) होना बहुत जरुरी हो जाता है
अन्यथा आप कम जगह देखकर ही वापस लौटने को मजबूर हो जाएंगे ! मोती मगरी और
फ़तेह सागर लेक देखने के बाद अब चलते हैं सहेलियों की बाड़ी और सुखाड़िया
सर्कल !
पहले राजा महाराजाओं के समय में जब किसी राजकुमारी का ब्याह होता था तो उस
राजकुमारी के साथ ही उसकी सेविकाओं , सहेलियों को भी दहेज़ में उसके साथ ही
भेज दिया जाता था ! सहेलियों की बाड़ी भी 48 ऐसी ही सेविकाओं या सहेलियों
को समर्पित एक स्मारक है ! उदयपुर शहर के उत्तर में स्थित इस बगीचे को
महाराणा भोपाल सिंह ने दहेज़ में आईं ऐसी ही 48 सेविकाओं के मनोरंजन स्थल
के रूप में बनवाया था जो आज एक दर्शनीय स्थल बन चुका है ! इस बात को
दोहराना चाहूंगा कि यहां भी 10 रूपये का टिकट लगता है अंदर जाने के लिए !
इस गार्डन में देखने के लिए सुन्दर से फाउंटेन और एक संग्रहालय है ! ये
संग्रहालय विज्ञान और जीव विज्ञान को ज्यादा समर्पित कहा जा सकता है ! ये
संग्रहालय है तो बहुत छोटा सा लेकिन इस छोटी सी जगह में उन्होंने बहुत कुछ
दिखाने और इसे मनोरंजक के साथ साथ ज्ञानवर्धक बनाने की कोशिश जरूर की है !
अलग अलग तरह के मगरमच्छ , डायनासोर का विकास और पतन , लेंस के विभिन्न रूप
और सबसे बड़ी बात भारत द्वारा छोड़े गए मंगलयान का एक सुन्दर मॉडल वहां रखा
है जिसको लेकर उत्सुकता रहती है ! बच्चों को बहुत कुछ समझाया जा सकता है !
अंततः 10 रूपये में बुरा नहीं है !
अब आइये थोड़ा सा और आगे चलते हैं। बस पास में ही एक और जगह है देखने लायक !
ये मुफ्त है , हाहाहा ! कोई टिकट नहीं ! पहली जगह मिली है उदयपुर में ,
जहां टिकट नहीं लगता ! ये है सुखाड़िया सर्किल ! मोहन लाल सुखाड़िया के नाम
पर बना सर्किल ! उदयपुर में या ये कहूँ कि राजस्थान में आपको ज्यादातर
चौराहों के नाम ऐसे ही मिलते हैं , सुखाड़िया सर्किल , चेतक सर्किल फलां
फलां और एक नजर ज़रा उत्तर प्रदेश के शहरों के चौराहों के नाम भी देखते
चलें , मंदिर चौपला , हाथी पाड़ा चौराहा , गधा पाड़ा चौराहा ! अपना अपना
तरीका , अपनी अपनी सोच ! सुखाड़िया सर्किल , राजस्थान के प्रथम मुख्यमंत्री
और उदयपुर के निवासी मोहन लाल सुखाड़िया के नाम पर है जिसे 1970 में बनवाया
गया ! इसमें 21 फुट ऊँचा तीन स्तरीय शानदार फाउंटेन लगा हुआ है ! रात के
समय अगर आप इसे देखेंगे तो एक बार लगेगा कि आप किसी भारतीय शहर के फाउंटेन
को नहीं बल्कि यूरोप के किसी शहर में हैं ! बोटिंग करना चाहें तो भी ठीक है
लेकिन मैंने किसी को भी बोट में बैठे हुए नहीं देखा ! शायद इस वज़ह से कि
लोग फ़तेह सागर से बोटिंग का मजा लेकर आते हैं फिर इतनी छोटी सी जगह में कौन
बोटिंग करना चाहेगा , दो दो बार पैसे कौन खर्च करेगा एक ही चीज के लिए ?
आइये अब भारतीय लोक कला मंदिर चलते हैं ! यहां कठपुतली डांस देखेंगे !
राजस्थान और गुजरात के कारीगरों , लोक कलाओं , नृत्यों और वहां की
संस्कृति के विषय में जानेंगे ! सन 1952 में पदम भूषण देवीलाल सामर द्वारा
स्थापित इस संस्थान में आप राजस्थान की ग्रामीण वेशभूषा , गहने , खेल
खिलोने और उनकी संस्कृति से सम्बंधित कलाकृतियां देख सकते हैं ! टिकेट लगता
है ! लेकिन 15 मिनट का कठपुतली डांस आपको ये आभास कराता है कि आपके पैसे
बेकार नहीं गए ! पहले यहां के संग्रहालय में घूमिये , राजस्थान से थोड़ा
परिचित होइए फिर कठपुतली डांस देखिये ! एक बात कहना चाहूंगा , अगर कोई
उदयपुर से मेरा ब्लॉग पढता है तो भैया उन्हें कहिये कि संग्रहालय की दशा
थोड़ी सी सुधार लें ! वर्षों से वो ही कपडे पहना रखे हैं पुतलों को और वो
इतने गंदे हो चुके हैं कि अगर आप उन्हें झाड़ें तो 2-2 किलो गर्द जम पड़ी
होगी उन पर ! साफ़ किया जा सकता लेकिन शायद सरकारी होने की वज़ह से कोई
ध्यान नहीं देता ? मोदी जी का स्वच्छता सन्देश उधर पहुंचा नहीं है अभी शायद
!
आज इतना ही , ज्यादा हो जाएगा फिर ! राम राम जी
आइये फोटो देखते हैं :
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सहेलियों की बाड़ी का प्रवेश द्वार |
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सहेलियों की बाड़ी का प्रवेश द्वार |
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सहेलियों की बाड़ी का प्रवेश द्वार |
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फाऊन्टेन में सुन्दर कलाकृति |
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दोबारा से प्रवेश द्वार की फोटो ! इस बार खाली था |
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सुखाड़िया सर्किल |
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सुखाड़िया सर्किल |
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सुखाड़िया सर्किल |
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सुखाड़िया सर्किल , रात के समय |
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सुखाड़िया सर्किल , रात के समय |
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लोक कला मंडल में कठपुतली डांस |
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लोक कला मंडल में कठपुतली डांस |
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लोक कला मंडल में कठपुतली डांस |
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लोक कला मंडल में कठपुतली डांस |
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और ये डांस प्रोग्राम के जज साब ! कभी कभी ये भी हाथ पाँव चला लेते हैं डांस के लिए |
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यात्रा जारी है :
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मोती मगरी में अपना
तो टिकट लगता ही है , जिस वाहन से जाते हैं उसको अंदर ले जाने का भी टिकट
लेना पड़ जाता है ! लेकिन अन्दर पहुंचकर आप इस के विषय में भूल जाते हैं और
वहां से मंत्रमुग्ध कर देने वाले दृश्यों में इतना डूब जाते हैं कि याद ही
नहीं रहता कि हमने इसके लिए अलग से पैसे दिए हैं ! वैसे ऐसा कोई प्रतिबन्ध
नहीं है कि आप वाहन से ही अंदर जाएँ , मुख्य गेट के पास ही से मोती मगरी
हिल तक के लिए सीढ़ियां बानी हुई हैं जिनके माध्यम से आप ऊपर जा सकते हैं और
अपनी फिटनेस भी जांच सकते हैं ! मोती मगरी के ही बिल्कुल पास फ़तेह सागर झील
है ! 1680 ईस्वी में मेवाड़ के राजा महाराणा फ़तेह सिंह के नाम पर बनी इस
झील के लगभग मध्य में नेहरू पार्क नाम से एक पार्क है जहां तक आप सिर्फ नौका से ही
पहुँच सकते हैं और पक्की बात है कि इसके लिए भी आपको टिकट लेना पड़ेगा ! हर
15 मिनट के अंतराल पर एक नौका इस किनारे से निकलती है , ये समय और भी
ज्यादा हो सकता है अगर पर्याप्त सवारियां नहीं मिलती हैं तो ! नेहरू पार्क
में ऐसा कुछ भी नहीं है , जिसकी प्रशंसा करी जाए लेकिन आदमी वहां तक गया है
तो सोचता है , देखते ही चलते हैं ! इतना खर्च कर रहे हैं तो थोड़ा और सही !
और इसी चक्कर में वो अंदर तक भी हो ही आता है ! लेकिन इसके ही साथ इसमें
दो आइसलैंड और भी हैं ! एक है वाटर जेट फाउंटेन और दूसरा उदयपुर सोलर
ऑब्जर्वेटरी ! ये दोनों देखने लायक हैं ! फ़तेह सागर झील उदयपुर की चार
झीलों - पिछोला झील , उदय सागर झील , और धेबार झील में से एक है ! साफ़
सुथरी है !
वास्तव में फ़तेह सागर लेक का निर्माण महाराणा जय सिंह ने 1687
में शुरू कराया था लेकिन उनका निर्माण बाढ़ में बह गया और फिर सन 1889 के
आसपास महाराणा फ़तेह सिंह जी ने इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के पुत्र ड्यूक
ऑफ़ कनॉट की यात्रा को यादगार बनाने के लिए देवली झील के किनारे कनॉट डैम
बनवाया जिसे बाद में बड़ा करके झील में परिवर्तित कर दिया गया और फिर इस
झील को फतह सागर झील नाम दिया गया ! ये वही कनॉट थे जिनके नाम पर दिल्ली का
प्रसिद्द कनॉट प्लेस है।
कभी कभी दो जाने पहिचाने चेहरे कहाँ और कैसे मिल जाते हैं , अंदाजा लगाना
ज़रा मुश्किल है ! इधर इस किनारे से बोट चलने में थोड़ा समय बाकी था तो अपनी
फैमिली के साथ मैं बस ऐसे ही रोड साइड घूम रहा था ! किसी ने आवाज़ लगाईं
-सारस्वत ! यहाँ मुझे इस नाम से कौन बुला सकता है ? मैं पीछे मुड़कर देखता
उससे पहले ही वो मेरे कंधे पर हाथ मार चुका था ! राजू चौधरी ! मेरा मित्र !
झाँसी में डिप्लोमा करते समय हम हॉस्टल में साथ
रहे हैं ! राजकीय पॉलिटेक्निक झाँसी के दिन , वो तीन साल , याद आ गए पल भर
में ! हालाँकि राजू मेरे बेस्ट फ्रैंड में कभी शामिल नहीं रहा और उसकी
ब्रांच भी इलेक्ट्रॉनिक्स थी और मेरी मैकेनिकल (हथोड़ा छाप ), लेकिन साथ
पढ़े लोग हमेशा मित्र होते हैं और जब पंद्रह साल बाद मिलते हैं तो बेस्ट से
भी ज्यादा बेस्ट लगते हैं ! हालाँकि डिप्लोमा के बाद डिग्री भी हो गयी और
एम.टेक. भी !
लेकिन जो आनंद डिप्लोमा के उन तीन साल में आया वो दोबारा फिर कभी नहीं आ
सका । हॉस्टल की यादें फिर कभी साझा करूँगा ! आज बस इतना ही !
फतह सागर झील के ही बिलकुल पास में एक संग्रहालय है जिसे वीर भवन कहा जाता
है ! इस संग्रहालय में महाराणा प्रताप और उनके वंशजों और मेवाड़ के अनेक
वीरों और योद्धों में शहीद हुए भील नायकों की आदमकद तस्वीरें लगी हैं !
यहां आप मेवाड़ के उस समय के लोगों की देशभक्ति के साक्षात दर्शन कर सकते
हैं ! हमेशा पूजा पाठ और कर्मकांडों में व्यस्त रहने वाले ब्राह्मणों तक ने
देश की रक्षा के लिए तलवार उठाने में गुरेज नहीं किया था ! दो मंजिल के
इस संग्रहालय में आपको उस समय के कुम्भलगढ़ और चित्तौड़गढ़ के दुर्ग के मॉडल
देखने को मिलते हैं जिससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उस वक्त मेवाड़ कितना
विस्तृत , कितना धनी और कितना वीर हुआ करता था !
आइये कुछ फोटो देखते हैं :
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मोती मगरी हिल पर बनी प्याऊ और जमना लाल बजाज की प्रतिमा |
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वीर भवन , फतह सागर लेक के बिल्कुल पास ही है |
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कुम्भलगढ़ फोर्ट का मॉडल |
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और ये दाँत दिखाता पुराना मित्र राजू चौधरी |
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फतह सागर का शानदार नजारा ! बीच में नेहरू पार्क दिख रहा है |
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नेहरू पार्क |
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नेहरू पार्क |
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नेहरू पार्क में लगी एक कलाकृति |
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ये कौन सा वृक्ष है ? |
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नेहरू पार्क से दिखाई देता लक्ष्मी विलास |
यात्रा जारी है , पढ़ते रहिये :
लेक सिटी उदयपुर : मोती मगरी
दिनांक : 22 जनवरी 2015
उत्तराखंड और हिमाचल को जैसे हम देव भूमि कहते हैं उसी तरह राजस्थान को
वीरों की भूमि कहा जाता है ! उत्तर प्रदेश को क्या कहा जाता है ? मुझे नहीं
मालुम !! इसी राजस्थान का मेवाड़ इलाका विश्व भर में अपने वीरों और उनकी
वीरताओं की कहानियों से भरा हुआ है ! मेवाड़ का मूल नाम मेधपाट हुआ करता था
जो कालांतर में मेवाड़ हो गया और इस राज्य के देवता भगवन शिव हुआ करते थे
जिन्हें एकलिंगनाथ बोला जाता था , इसीलिए कभी कभी भगवन शिव को मेवाड़ में
मेधपाटेश्वर भी कहा जाता है ! वर्तमान में मेवाड़ का क्षेत्रफल यूँ राजस्थान
से लेकर गुजरात और इधर हरियाणा तक फैला है लेकिन मुख्य रूप से राजस्थान के
चित्तौड़गढ़ , भीलवाड़ा , राजसमन्द और उदयपुर मिलाकर मेवाड़ बनाते हैं ! इसी
मेवाड़ की धरती को नमन करने का मन वर्षों से दिल में था जो अब जाकर पूरा
हुआ ! नए साल के अवसर पर जिस कॉलेज में मैं काम करता हूँ उसने अपने उन
कर्मचारियों के लिए जिन्हें पांच साल या ज्यादा हो गए हैं , एक उपहार दिया
जिसमें पांच दिन की छुट्टी और परिवार के साथ कहीं घूमने फिरने का खर्च
शामिल था ! मुझे भी यहां सात साल हो गए हैं, मैं भी इसका हकदार था और
मैंने बिलकुल भी देर नहीं लगाईं अपना प्रोग्राम बनाने में !
21 जनवरी के लिए हजरत निजामुद्दीन स्टेशन , दिल्ली से उदयपुर तक मेवाड़
एक्सप्रेस ( 12963 ) में आरक्षण कराया और 26 जनवरी को उसी ट्रैन से वापसी
का भी ! राजस्थान की तरफ जाने वाली ट्रेनों की एक विशेषता है कि आपको
यात्रा वाले दिन से 3-4 दिन पहले तक भी कन्फर्म टिकेट मिल जाएगा जबकि बिहार
, बंगाल की तरफ जाने वाली ट्रेन देखें तो 3-4 महीने पहले भी शायद कन्फर्म
टिकेट न मिले ! तो 21 जनवरी को तय समय शाम को 7 :00 बजे गाडी रवाना हो गयी !
2-3 बार पहले भी इस ट्रेन से चंदेरिया तक जाने का अवसर प्राप्त हुआ है
लेकिन इस बार अंतिम स्टेशन उदयपुर तक जाना था ! मथुरा , भरतपुर निकलते
निकलते नींद आ गयी और आँख खुली अपने पुराने जाने पहिचाने स्टेशन चंदेरिया
पर ! चित्तौड़गढ़ से बिलकुल पहले का स्टेशन है चंदेरिया ! यहां बिरला के दो
बड़े सीमेंट कारखाने BCW ( बिरला सीमेंट वर्क्स ) और CCW ( चेतक सीमेंट
वर्क्स) हैं जिनमें से एक में मेरे बहनोई कार्यरत हैं ! उस वक्त सुबह के
लगभग चार बजे होंगे , बारिश हो रही थी और जनवरी के महीने में अगर बारिश हो
जाए तो सर्दी का क्या हाल होता है , आप जानते हैं ! जल्दी से फिर वापस आकर
कम्बल में घुस गया और उदयपुर के साफ़ सुथरे स्टेशन पर ही जाकर अपने डिब्बे
में से बाहर निकला ! राजस्थान में भी गजब की ठण्ड होती है यार !
स्टेशन से ऑटो कर सीधे होटल और फिर उसी ऑटो वाले को कह दिया कि भाई एक घंटे
बाद फिर से आ जाना , उदयपुर के दर्शनीय स्थल दिखाने के लिए ! कुल 12 जगह
दिखाने की बात थी और किराया तय हुआ 600 रूपया ! सुबह 9 बजे से शाम लगभग 7
बजे तक , ज्यादा नहीं था !
सबसे पहले उसने मोती मगरी ले जाने का तय किया ! क्यूंकि सुबह से बस एक कप
चाय ही पी थी , रास्ते में उससे कहीं नाश्ता कराने के लिए कहा तो उसने नगर
निगम के सामने अपना औरो रोक दिया , बोला सर - यहां बढ़िया नाश्ता मिल जाएगा
आपको ! चार कचौड़ी और दो मिर्ची बड़ा ! मिर्ची बड़ा , एक फुट लम्बी हरी मिर्च
के ऊपर बेसन लपेट कर बनाते हैं ! लेकिन मिर्ची बस नाम की , बिलकुल भी
तीखापन नही ! इसीलिए शायद उसने उस पैकेट में आठ दस ऐसी ही मिर्च और भी रख
दी होंगी ! कचर कचर गाजर की तरह खाते जाओ ! इसका नाम मिर्च न होकर हरी गाजर
होना चाहिए था !
आइये मोती मगरी की सैर करते हैं और इसी रास्ते पर पड़ने वाले उदयपुर नगर
निगम के अरावली पार्क को भी देखते चलते हैं :
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दोनों बेटे : हर्षित और पारितोष |
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महाराणा प्रताप की कांस्य प्रतिमा |
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महाराणा प्रताप की कांस्य प्रतिमा |
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महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की अंतिम सांस का मार्मिक दृश्य |
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महाराणा प्रताप की कांस्य प्रतिमा |
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महाराणा प्रताप की कांस्य प्रतिमा |
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मोती मगरी से उदयपुर का विहंगम दृश्य |
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हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप के सेनापति रहे हकीम खां सूर की प्रतिमा |
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मोती मगरी के सामने भामाशाह की प्रतिमा |
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मोती मगरी के सामने भामाशाह की प्रतिमा |
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मोती मगरी से फतेहसागर झील का एक दृश्य |
यात्रा जारी है :
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