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सात द्वार पार करके मैं सीधा कालिका माई मंदिर चला गया। वहाँ नारियल चढ़ाना था। 2007 में कुछ माँगा था और उसका प्रतिफल मिलने के बाद अब नारियल चढाने का नम्बर था। चित्तौड़गढ़ के किले को बनवाते समय वहां के राजा ने इसके चारों तरफ बहुत मोटी और ऊँची दीवार बनवाई थी जिससे दुश्मन पास तक न आ सके और इसीलिए सात सात द्वार बनवाए गए थे और उनपर पहरेदार बिठा दिए गए थे लेकिन जो होना होता है होता ही है , अलाउद्दीन ख़िलजी ने चालाकी से इस पर अधिकार जमा लिया था 1303 में ! कोई कुछ नही कर पाया , न दरवाजे , न द्वारपाल , न इतनी ऊँची और मजबूत दीवार। हालाँकि ये व्यक्तिगत बात है लेकिन लिखना चाहूंगा। आदमी जब परेशान होता है तो वो हर उपाय ढूंढता है , भगवान को प्रसन्न करने की कोशिश करता है। इसी राह में 2007 में मैंने पत्नी के साथ कई मंदिरों की यात्रा करी और ये भी वचन लिया कि कार्य संपादित होने के बाद फिर से जरूर आएंगे। इसी क्रम में गोवेर्धन मंदिर मथुरा , कालिका मंदिर चित्तौड़गढ़ , सांवरिया जी चित्तौड़गढ़ , नीलकंठ ऋषिकेश , बद्रीनाथ और केदारनाथ उत्तराखंड , हेमकुंड की यात्राएं करनी हैं ! वैष्णो देवी की यात्रा कर चुके हैं।
चित्तौड़गढ़ की कहानी आगे बढ़ाते हुए : अलाउद्दीन ख़िलजी ने 1303 में इस किले पर आक्रमण कर दिया था और इसे जीत भी लिया था। असल में ख़िलजी का मकसद किला जीतने से ज्यादा रानी पद्मिनी को जीतना था और उन्हें अपने हरम का हिस्सा बनाना था। राणा रतन सिंह को जब अलाउद्दीन की इस भावना का पता चला तो उन्होंने भलमनसाहत ( या शायद युद्ध से डर के ) की वजह से अलाउद्दीन को दर्पण के द्वारा रानी पद्मिनी के दर्शन कराने के लिए तैयार कर लिया लेकिन हरामखोर अलाउद्दीन की नियत बिगड़ गयी और वो रानी पद्मिनी को दर्पण में देखकर उन्हें पाने के लिए लालायित हो उठा। और जब रना रतन सिंह शिष्टाचार वश अलाउद्दीन को दरवाजे तक विदा करने आये तो उसने राणा को बंदी बना लिया और रानी तक ये पैगाम भिजवाया कि राणा को तभी मुक्त किया जाएगा जब रानी पद्मिनी उसके हरम का हिस्सा बनने को तैयार हो जाएंगी। रानी पद्मिनी तैयार भी हो गयी लेकिन इस शर्त पर कि उन्हें बिलकुल छुपा के शाही तौर तरीके से परिवारीजनों के साथ ले जाया जाए। रानी पद्मिनी ने एक चाल चल दी और छद्म वेश में अपने 700 सैनिकों को अलाउद्दीन के पास भेज दिया जो राणा को मुक्त करा लाये। लेकिन अलाउद्दीन उनके पीछे लग गया और किले के मुख्य द्वार पर भीषण युद्ध हुआ जिसमें राणा रतन सिंह की मौत हो गयी जिसके परिणाम स्वरुप रानी पद्मिनी को अपनी सहेलियों और दासियों के साथ जौहर करने को मजबूर होना पड़ा।
जैसा
मृदुला द्विवेदी कहती हैं , ये वास्तव में बहुत बड़ा किला रहा होगा कभी।
लगभग 13 किलोमीटर की परिधि में फैले इस किले की एक एक चीज को गौर से देख
पाना इतना आसान भी नही है। आप पहले पोल से ही कैमरा निकाल लें तो आखिर तक
आप इतना थक जाएंगे कि मन करेगा अब बस। कालिका माता के मंदिर के सामने ही
कई सारी दुकानें सजी रहती हैं प्रसाद की , चुनरी की और घास की भी। जी घास
भी वहां बेचीं जाती है। असल में वहां गायें बहुत हैं और अगर आप गाय को दान
करना चाहें तो घास खिलाकर दान कर सकते हैं। गाय भी खुश और आप भी खुश।
पांच रुपये की एक गड्डी और 10 रूपये की तीन गड्डी । ये दान सस्ता भी है और अच्छा भी। कालिका माँ के दर्शन के पश्चात वहीँ सामने से एक रास्ता जाता
है , मालुम नही कहाँ ? लेकिन मुझे एक मंदिर दिखाई दिया सामने तो मैं उधर
चल दिया। मुश्किल से एक दो एक दो आदमी ही चल रहा होगा उधर। एकदम सुनसान
सा रास्ता। वो एक छोटा सा मंदिर था लेकिन कोई दिखाई नही दिया वहां , किसी महात्मा के कपडे सूख रहे थे। शायद किले के मंदिर के किसी पुजारी का निवास स्थान रहा होगा वो।
वहां से लौटकर रानी पद्मिनी के महल की तरफ चल दिया। महल के चारों तरफ पानी भरा होता है। अंदर जाने की मनाही है लेकिन आप दूर से कितने भी फोटो खींच लें कोई रोकटोक नहीं। हाँ , महल के पास एक पार्क है। कहते हैं अलाउद्दीन ख़िलजी ने यहीं से रानी को सीसे में देखा था और उनकी सुंदरता पर मर मिटा था। इस पार्क का 10 रूपये का टिकेट लगता है। मुख्य कार्यालय से ही मिल जाता है , नही ले पाये तब भी कोई परेशानी नही। वहां टिकट चेक करने वाला आपसे 10 रुपया लेगा और अपनी पॉकेट में रख लेगा। और आपको अंदर जाने देगा !
आइये फोटो देखते हैं :
कालिका माई मंदिर |
कालिका माई मंदिर |
कालिका माई मंदिर |
ये वो अट्टालिका जिस पर चढ़कर आप सीधे पदमिनी महल को देख सकते हैं
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तीन मंजिल का पदमिनी महल , जिसके ताम्बे के दरवाज़ों को अकबर उखड़वाकर आगरा ले गया था |
इसके चारों तरफ पानी रहता है ! इसी की नकल करके उदयपुर का जल महल बनाया गया था
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कोई खण्डहर |
कोई खण्डहर |
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2 टिप्पणियां:
रना को राणा कर लीजिए भाई जी
बहुत बढ़िया यात्रा लेख है
जबरदस्त। पढ़ लिया है। तैयारी कर रहा हूँ जाने की।। मुसाफिर मन।।
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