मंगलवार, 27 नवंबर 2018

Adi Kailsh Yatra - Tenth Day ( Budhi to Dharchula Return)

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बुद्धी गाँव लखनपुर से करीब 20 किलोमीटर दूर है और बहुत से लोग जाते हुए पहले दिन वहीँ रुकते हैं , हालाँकि हम पहले दिन नजोंग टॉप पर ही रुके थे क्यूंकि हम धारचूला से ही 11 बजे करीब निकल पाए थे। लेकिन आज हम वापस लौट रहे हैं और विचार ये है कि आज अपनी यात्रा का समापन किया जाए और इसके लिए जरुरी होगा कि कुछ जल्दी भी निकला जाए और  बीच- बीच में थोड़ा कम रुका जाए।

बुद्धी से लौटते हुए लगातार चढ़ना था । वो नज़ारे जो हमें जाते हुए आकर्षित कर रहे थे , इस वक्त उनमें नया कुछ भी नहीं लग रहा था इसीलिए मैं ज्यादातर वो ट्रेक करता हूँ जिनमें उसी रास्ते से वापस न लौटना पड़े लेकिन सब कुछ मेरे हिसाब से थोड़े ही होता है ,  मुझे ही सबके हिसाब से चलना होता है । घने जंगल में सीढ़ीदार रास्ता बना हुआ है जिस पर एक -एक सीढ़ी चढ़ते हुए पाँव की नसें फूलने लगती हैं लेकिन अगर आपको बहुत जल्दी नहीं है तो आराम से चलते जाइये , अच्छा लगेगा । बुद्धी गाँव से पहले एक नाला आता है जिस पर लोहे का पुल बना है , हम चारों लोग इस पुल के बाद ही आगे -पीछे होने लगे थे और हमेशा जैसा क्रम रहा था उसी हिसाब से चलने लगे थे। पहले हरजिंदर .. फिर मैं .. फिर कोठारी जी .. और आखिर में जोशी जी । फिर से देवराज की वही दुकान पर पहुँच गए , वही देवराज जहाँ जाते हुए हरजिंदर ने उससे शेरो-शायरी का आनंद उठाया था । बस चाय पीनी थी । हालाँकि ज्यादा मन नहीं था लेकिन कभी कभी ऐसे चाय पीने का उद्देश्य सिर्फ चाय पीना नहीं होता बल्कि पीछे रह गए साथियों का इंतज़ार करना भी होता है ।

जैसे -जैसे दिन चढ़ता जाता है , इस रास्ते पर खच्चर चलने शुरू हो जाते हैं । खच्चरों से बचकर चलना तो जैसे तैसे कर भी लिया जाए लेकिन इनकी जो लीद होती है उससे बचना मुश्किल हो जाता है और उससे जो मक्खियां पनपती हैं वो ज्यादा दिमाग खराब करती हैं  । कभी -कभी तो मुंह में घुस जाने को आतुर रहती हैं । लमारी पहुँचने वाले हैं जहां रुकने की व्यवस्था है और बढ़िया साफ़ सुथरी जगह है । जाते हुए फोटो लगाईं थी , आज फिर लगा दूंगा जिससे आपको जानकारी मिल जाए । वैसे लमारी बहुत बड़ी जगह नहीं है और न बहुत ज्यादा घर हैं लेकिन एक होटल है जो साफ़ सुथरा दीखता है । आईटीबीपी और सशस्त्र सीमा बल की यूनिट हैं । यहां लमारी के आखिर में थोड़ा नीचे उतर कर "गर्म पानी का स्रोत " है । अगर आप इतने दिन से नहाये नहीं हैं तो बढ़िया मौका है आपके पास अपना वजन कुछ हल्का कर लेने का ।

लमारी से रास्ता कभी उतराई और कभी चढ़ाई वाला है जो थका देता है लेकिन फिर भी जाने की तुलना में आसान लग रहा है । पांच छह किलोमीटर आगे मालपा है , वही मालपा जहाँ अभिनेता कबीर बेदी की पत्नी और पूजा बेदी की माँ , प्रसिद्द नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी सहित सैकड़ों कैलाश यात्रियों की एक हादसे में मौत हो गई थी। एक लोहे का पुल है जिसके नीचे बहता हुआ झरना बहुत खूबसूरत लगता है , इसी पुल के दोनों तरफ एक -एक दुकान है जिनमें से एक को हयात सिंह और उनका एक नेपाली सहयोगी संभालते हैं तो दूसरी ढाबा जैसी दुकान को उनकी पत्नी और बच्चे संभालते हैं । जाते हुए हमने हयात सिंह के यहाँ खाना खाया था तो अब वहीँ चलते हैं और वैसे भी खाने का समय तो हो ही रहा है । हरजिंदर भी पक्का वहीँ होगा । जब तक खाना खाकर फ्री हुए पीछे से कोठारी जी और जोशी जी भी पहुँच चुके थे । ठण्ड का कोई नामोनिशान निशान भी नहीं था और जो इनर पहन रखी थी वो भी उतार डाली । वैसे भी जब आप 4400 -4500 मीटर की ऊंचाई पर से आ रहे हों तब आपको ये 2800 मीटर के आसपास की ऊंचाई पर ठण्ड लगेगी भी नहीं ।

मालपा में अब उस ढाबे के अलावा कुछ नहीं बचा है लेकिन नाम आज भी मालपा ही है । वहां से आप लगातार नीचे की तरफ उतरते हैं और काली नदी के लगभग बराबर में चलने लगते हैं लेकिन करीब 200 -300 मीटर चलने के बाद ही एक बढ़िया सी चढ़ाई शुरू हो जाती है जो करीब एक -डेढ़ किलोमीटर तक , नजंग टॉप तक बनी रहती है । भयंकर चढ़ाई है लेकिन लौटते हुए आप ये सोचते हैं कि बस ये आखरी है तो आपके कदमों में ऊर्जा का पुनः संचरण होने लगता है और आप आखिरकार उस शेड तक पहुँच जाते हैं जहाँ हमने पहली रात गुजारी थी । इधर से जाते समय ये पहली शेड है और इससे थोड़ा ही नीचे एक नेपाली परिवार ने अपना ढाबा बनाया हुआ है । जब हम यात्रा पर जा रहे थे तब महिला अकेली थी लेकिन अब मुझे पति -पत्नी दोनों दिख रहे थे । पत्नी बर्तन धोने में लगी थी और उसका पति फुल वॉल्यूम में नेपाली गाने सुनने में व्यस्त था । इतने सारे बर्तन देखकर ये अंदाज़ा जरूर लग रहा था कि आज उनकी ठीक -ठाक दुकानदारी चली होगी , चलनी भी चाहिए क्यूंकि अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर यहाँ निर्जन जगह में इसीलिए तो पड़े हैं । नजंग टॉप और नजंग फॉल में आज उतनी कशिश नहीं है जितनी जाते हुए लगी थी ।

अब यहाँ रुकने का बिल्कुल मन नहीं था इसलिए लगातार उतरता चला गया और बिल्कुल नीचे आ गया । इस समय दोपहर के करीब दो बजे थे , सामने हरजिंदर भाई नहीं दिख रहे थे लेकिन पीछे मुड़कर देखने पर उस शेड के आसपास कोठारी जी नजर आ रहे थे । इसका मतलब जोशी जी भी पीछे ही होंगे ।  लखनपुर मुश्किल से आधा घण्टे की दूरी पर और होगा यानि यात्रा समाप्त होने में बस कुछ देर और ।  लखनपुर में कोई न कोई जीप मिल ही जायेगी जिससे धारचूला चले जाएंगे । मैं ये सब सोचते हुए मस्ती में चलता चला गया ....लेकिन जिस रास्ते से हम गए थे वो रास्ता नजर ही नहीं आया ! मैं और आगे चलता गया तो एक मजदूर से पूछा -भाई लखनपुर का रास्ता ? कैसे जाऊं ? सीधे ही चले जाओ ! उसके कहे अनुसार सीधा चलता गया लेकिन करीब आधा किलोमीटर चलने के बाद रास्ता ही बंद मिला । ये रास्ता पहाड़ को काटकर बनाया गया था जिसमें रोड पर मैं खड़ा था और मेरे ऊपर पहाड़ टंगा था ।  काली नदी के दूसरी तरफ पांच -छह नेपाली मजदूर अपनी झोंपड़ी में दिख रहे थे जिन्हें देखकर मैं जोर -जोर से चिल्लाने लगा ताकि उनका ध्यान खींच पाऊं लेकिन न उन तक आवाज पहुंची और न उनकी नजर । ये पहला मौका था जब मैं अकेला महसूस कर रहा था और सच बताऊँ तो बहुत डर भी रहा था । मैं अपना बोतल का पानी खत्म कर चुका था लेकिन अभी भी कोई रास्ता नजर नहीं आया । आखिर वापस लौटा उसी रास्ते पर । मुझे नीचे जाना था यानी काली नदी के किनारे तक पहुंचना चाहता था लेकिन अभी करीब 20 मीटर ऊंचा टंगा हुआ था । एक जगह बहुत सारे पत्थर पड़े हुए थे छोटे-छोटे और एक आदमी उन पर जैसे -तैसे चढ़ते हुए ऊपर की तरफ आ रहा था । उससे पूछा -नीचे कैसे जाऊं ?  यहीं से चले जाओ ! उसका कहना आसान था लेकिन मेरे लिए उतरना मुश्किल था । मुझे डर लग रहा था कि अगर उतरने में फिसल गया तो मेरा सर फट जाएगा और मैं मर जाऊँगा । और अगर ये न हुआ तो मैं फिसलते हुए नीचे तेज बहाव से बह रही काली नदी में पहुँच जाऊँगा और फिर डूब जाऊँगा । इस यात्रा का आज हमें 12 वां दिन था लेकिन आज पहली बार मुझे अपने बच्चों की फ़िक्र सताने लगी थी । मेरी आँखों में आंसू भर आये  .. जैसे मौत मेरे आसपास ही घूम रही हो .. हालाँकि रास्ता इतना भी कठिन नहीं था लेकिन उस वक्त पता नहीं मुझे कुछ भी सूझ नहीं पा रहा था । डरने की जरुरत नहीं है और न कोई भ्रम पालने या अफवाह फैलाने की जरुरत है कि रास्ता ऐसा है -वैसा है । बस मैं उस क्षण सही निर्णय नहीं ले पा रहा था ....न ढंग से सोच पा रहा था । आखिर मैंने उन्हीं पत्थरों से उतरने की तैयारी कर ली और सबसे पहले अपना बैग नीचे लुढ़का दिया । बैग सही-सलामत काली नदी के किनारे जाकर रुक गया जिससे मुझे भी ये भरोसा होने लगा कि अगर मैं भी लुढ़का तो किनारे तक रुक जाऊँगा । चार फुट का किनारा था जिस पर खच्चर आ -जा रहे थे जिन्हें मैं ऊपर से देख देख कर आश्चर्य चकित हो रहा था कि मैं वहां कैसे पहुंचूंगा । मैंने बैग में से अपना तौलिया और एक स्वेटर निकाल के लोअर में अपने हिप्स की तरफ लगा लिए जिससे अगर इन पत्थरों पर फिसल भी जाऊं तो दुकान बची रहे , मुंह पर मफलर बाँध लिया और राम -राम कहते हुए पहला पैर रख दिया । पैर ऐसे कांप रहा था जैसे मौत सामने खड़ी हो .....दूसरा और फिर तीसरा पैर ....बढ़ाता चला गया ।   इस बीच मैंने शायद राम -राम इतनी बार याद कर लिया होगा जितना कुल मिलाकर अपनी 40 साल की उम्र में भी नहीं किया होगा । मैं सुरक्षित था मेरा बैग सुरक्षित था !

तीन बजे के कुछ बाद मैं लखनपुर के जीप स्टैंड पर था जहाँ हरजिंदर पहले से ही विराजमान थे । एक लास्ट जीप खड़ी भी थी लेकिन अभी तक कोठारी जी और जोशी जी का कोई संकेत नहीं मिल रहा था आने का इसलिए जीप वाले को थोड़ा और इंतज़ार करने को कहा , वो मान भी गया लेकिन इंतज़ार करते करते पांच बज गए । न वो आये न उनकी कोई खबर आई । दो तीन लोगों से पूछा भी -भाई दो बुजुर्ग से दिखाई दिए क्या कहीं ? नहीं ! आखिर वहां मौजूद हर व्यक्ति को , ढाबे वाले को भी ये बताकर कि वो दोनों लोग आएं तो बता देना हम चले गए और उन्हें यहीं रोक लेना ....भारी मन से हम दोनों यानि मैं और हरजिंदर धारचूला के लिए निकल पड़े।

जितनी ख़ुशी और उमंग लेकर आये थे उतना ही उदास होकर धारचूला लौट रहे थे । लौटते समय एक विचार ये भी था कि हमें भी वहीँ कहीं रुक जाना चाहिए था और कोठारी जी और जोशी जी का इंतज़ार करना चाहिए था लेकिन मुझे अंदाज़ा था कि कोठारी जी अनुभवी ट्रेक्कर हैं और वो इन परिस्थितियों में स्वयं ही बेहतर निर्णय ले सकते हैंv। अगर वो रात होने से पहले यहां तक आ गए तो संभव है कि कोई जीप लेकर धारचूला ही पहुँच जाएँ या यहीं ढाबे पर रुक जाएँ । क्यूंकि आखरी बार मैंने ही कोठारी जी को नजांग टॉप पर देखा था तो मुझे ये भी लग रहा था कि वो कहीं उसी नेपाली परिवार के ढाबे में न रुक गए हों , जहाँ से होकर हम आये हैं । कोठारी जी को देखकर , जोशी जी भी वहीँ रुक गए हों ? और ऊपर की तरफ से आने वाला हर आदमी पूछने पर बता रहा है कि उन्होंने दोनों बुजुर्ग जैसे दिखने वाले लोगों को आते हुए नहीं देखा , और ये जवाब मेरी उस संभावना को बार -बार सच कर रहा था कि वो दोनों लोग ऊपर ही कहीं रुक गए हैं ।

धारचूला पहुँचने के बाद भी मन खुश नहीं था और न बेहतरीन यात्रा के खत्म होने की कोई ख़ुशी थी । रात दस बजे तक इंतज़ार करते रहे और हर आहट में सोचते रहे कि वो लोग शायद आ गए ! मुझे ये भी डर था कि कहीं मेरी तरह वो लोग भी तो नहीं फंस गए !! आखिर सुबह हुई तो अब हमें लखनपुर से आने वाली पहली जीप का इंतज़ार था । सुबह सात बजे ही हमने पता कर लिया था कि 9 -9 :30 बजे तक आ जाती है । दस बज गए लेकिन वो नहीं आये , अब हम दोनों और दूसरे विकल्प सोचने लगे थे जिसमें एक ये था कि हरजिंदर धारचूला में एक होटल में खड़ी अपनी बाइक लेकर आएंगे और हम दोनों वापस उन्हें देखने लखनपुर जाएंगे लेकिन उससे पहले SDM ऑफिस से अपने आधार कार्ड वापस ले लेते हैं , नहीं तो दो दिन और रुकना पड़ जाएगा । कल रविवार है ! SDM ऑफिस से लौटकर होटल के कमरे से जरुरी सामान उठा रहे थे कि जोशी जी ने दस्तक दी । आप उस ख़ुशी का अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते जो उस वक्त हमें हुई थी जोशी जी को अपने सामने देखकर !!

कोठारी जी ने पिछले दिन का जो किस्सा सुनाया : सब ठीक चल रहा था । जोशी जी भी अपनी चाल से चले आ रहे थे लेकिन लखनपुर पहुँचते -पहुँचते उन्हें अँधेरा हो गया । शाम को वहां रोड बनाने के लिए ब्लास्टिंग भी शुरू हो गई थी जिससे गाड़ियों का आवागमन बंद हो गया । लखनपुर के ढाबे वाले ने उन्हें हमारे बारे में , हमारी बात का कोई जिक्र ही नहीं किया और वो लोग चलते गए । एक जगह पहुंचे जहाँ कुछ नेपाली मजदूरों की झौंपडियां थी लेकिन रुकने -खाने की कोई व्यवस्था नहीं थी । किसी ने बताया -आप मांगती चले जाओ वहां आपको रुकने और खाने की व्यवस्था मिल जायेगी । रात में 9 बजे दोनों लोग सात -आठ किलोमीटर चलने के बाद मांगती नाला पहुंचे जहाँ रुकने की व्यवस्था तो हो गई लेकिन खाने के लिए सिर्फ अण्डे थे । जोशी जी तो अंडे खा लेते हैं लेकिन कोठारी जी हाथ भी नहीं लगाते ! आखिर कोठारी जी ने कोल्ड ड्रिंक और बची हुई नमकीन से पेट भरा हुआ मान लिया । अगली सुबह मंगती से धारचूला पहुँच गए ।

आज रविवार है जून 2018 की 24 तारीख । मुझे वापस घर लौटना था , जोशी जी और हरजिंदर सिंह जी को बाइक से पंचचूली पीक देखने जाना था और कोठारी जी को अपने होटल में ही आराम करना था । बाकी जो हमारे साथ गए जरूर थे लेकिन लौटने में अलग -अलग हो गए थे उनमें से अधिकांश लोग अपने -अपने घर सुरक्षित और ख़ुशी -ख़ुशी पहुँच चुके हैं । .. इस यात्रा के सकुशल और इतनी सस्ती संपन्न हो जाने की ख़ुशी जितनी उन सभी मित्रों को है उससे कहीं ज्यादा मुझे है क्योंकि इस यात्रा की योजना मेरी ही थी और जब अपनी योजना सफलतापूर्वक संपन्न हो जाती है तो ख़ुशी होना स्वाभाविक है । आज अब इस यात्रा को सेलिब्रेट करेंगे !! जय भोलेनाथ



हयात​ सिंह और हरजिंदर सिंह
 यही है वो रास्ता जिसने मुझे रुला दिया था ...... कुछ कठिन थोड़े ही है ?

 इन जैसों के बलबूते ही पहाड़ों में जिंदगी चलती रहती है
पिथौरागढ़ से दन्या होते हुए .....काठगोदाम पहुँचने के रास्ते में कहीं

अगली पोस्ट में पूरा खर्च , कम से कम खर्च में इस यात्रा को करने की योजना और बाकी सब चीजों पर लिखने का प्रयास होगा।  आपके मन में जो भी सवाल हों , लिख डालिये !!

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