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काँगड़ा माता को
नगरकोट वाली माता भी कहते हैं और ब्रजेश्वरी देवी भी ! ब्रजेश्वरी का नाम
मुझे कांगड़ा में ही पता चला ! ब्रजेश्वरी मंदिर , ऐसा कहा जाता है कि सती
के जले हुए स्तनों पर बनाया गया है ! ये मंदिर कभी अपने वैभव के लिए जाना
जाता था किन्तु इस पर लूटेरों की बुरी नजर क्या पड़ी , इसका वैभव जाता रहा !
सन 1009 में गज़नी ने इसे लूटा और इसे खँडहर बना कर यहां एक मस्जिद बना दी
और अपनी सेना की एक टुकड़ी को यहां छोड़ दिया। लगभग 35 वर्षों के लम्बे
अंतराल के बाद स्थानीय राजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया और देवी की एक
मूर्ति स्थापित की ! इस मंदिर को फिर से सोने , चांदी और हीरों से सुसज्जित
कर दिया गया लेकिन फिर से सन 1360 में फ़िरोज़ तुगलक ने इसे लूट लिया। बाद
में अकबर अपने मंत्री टोडरमल के साथ यहां पहुंचा और उसने इसका गौरव और वैभव
वापस लाने की कोशिश करी किन्तु फिर से 1905 में आये भयंकर भूकम्प में ये
जमींदोज़ हो गया ! लेकिन धन्यवाद देना चाहिए उस समिति को जिसने उसी वर्ष
इसका पुनर्द्धार करवाया !
कांगड़ा माता के दर्शन करके जब होटल लौटे तो बस बिस्तर पकड़ने की देर लगी और 10 मिनट भी नहीं लगे होंगे नींद आने में ! अगले दिन सुबह सुबह कांगड़ा से करीब 35 किलोमीटर दूर ज्वाला जी जाने का कार्यक्रम पहले से तय था ! अगली सुबह 3 अक्टूबर था ! आठ बजे हम बस स्टैंड पर थे और मुश्किल से 10 मिनट में बस आ गयी ! ज्यादा सवारियां नहीं थी ! हिमाचल की सरकारी या प्राइवेट बसें इस मामले में अच्छी हैं कि ज्यादा देर रूकती नहीं हैं कहीं और न ज्यादा भीड़ होती है उनमें ! हमारे यहां गाज़ियाबाद से नॉएडा तक आने वाली प्राइवेट बस तो आधा आधा घंटा रुकी रहती है विजय नगर पर ! जब तक उसकी बस भर नही जायेगी वो एक कदम भी नहीं सरकेगा !
ज्वालाजी मंदिर को ज्वालामुखी मंदिर भी कहते हैं ! ज्वालाजी मंदिर को भारत के 51 शक्तिपीठ में गिना जाता है ! लगभग एक टीले पर बने इस मंदिर की देखभाल का जिम्मा बाबा गोरखनाथ के अनुयायियों के जिम्मे है ! कहा जाता है की इसके ऊपर की चोटी को अकबर ने और शोभायमान कराया था ! इसमें एक पवित्र ज्वाला सदैव जलती रहती है जो माँ के प्रत्यक्ष होने का प्रमाण देती है ! ऐसा कहा जाता है कि माँ दुर्गा के परम भक्त कांगड़ा के राजा भूमि चन्द कटोच को एक सपना आया , उस सपने को उन्होंने मंत्रियों को बताया तो उनके बताये गए विवरण के अनुसार उस स्थान की खोज हुई और ये जगह मिल गयी , जहां लगातार ज्वाला प्रज्वलित होती है ! ये ही ज्वाला से इस मंदिर का नाम ज्वाला जी या ज्वालामुखी हुआ ! इस मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है बल्कि प्राकृतिक रूप से निकलती ज्वाला की ही पूजा होती है ! एक आयताकार कुण्ड सा बना है जिसमें 2-3 आदमी खड़े रहते हैं ! अगर मैं सही देख पाया तो मुझे लगता है ये ज्वाला दो जगह से निकलती है ? एक जगह से थोड़ा ज्यादा और एक से कम !
हम करीब साढ़े नौ बजे ज्वालाजी पहुंचे होंगे ! बस स्टैंड के बिलकुल सामने से मंदिर के लिए रास्ता बना हुआ है ! चौड़ी रोड और रोड के दोनों तरफ प्रसाद , खिलौनों और महिलाओं के श्रृंगार के सामान से सजी दुकानें ! हाँ पूरे रास्ते पर फाइबर की छत पड़ी हुई है जिससे धूप से बचा जा सकता है ! एकदम लम्बी लाइन लगी हुई थी , कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने यहां भी अपनी जान पहिचान निकालने की कोशिश करी और शायद उनकी कोशिश सफल भी हुई थी , वो यानी वो चार लोग थे , माँ , बाप और दो बेटियां ! बेटियां करीब 18-19 साली की होंगी और बड़ी फैशनेबल भी थीं ! वो सब हमारे साथ में दूसरी लाइन में चल रहे थे लेकिन थोड़ी देर के बाद ही वो लाइन में से निकल गए और फिर करीब 1 घंटे के बाद उनके दर्शन हुए ! उनके माथे पर तिलक लगा था , इसका मतलब उन्होंने दर्शन कर लिए थे , इसीलिए मैंने कहा कि उनकी "एप्रोच " काम कर गयी और हम अभी भी लाइन में ही लगे रहे ! व्यवस्था अच्छी है लेकिन कई सारे चक्कर काटने पड़ते हैं मंदिर तक पहुँचने के लिए ! और फिर हम जैसे ही मंदिर के मुख्य द्वार से 15 मिनट की दूरी पर होंगे कि दरवाजे आरती के लिए , बताया गया कि अब साढ़े बारह बजे द्वार खुलेंगे और उस वक्त बजे थे साढ़े ग्यारह ! यानी अब एक घंटा यहीं लाइन में खड़े रहो या जगह मिल जाए तो घुटने मोड़ के बैठ भी सकते हो ! और जब नंबर आया तो पांच मिनट भी नही रुकने दिया मंदिर के अंदर ! मैंने हाथ में चालू हालत में कैमरा ले रखा था लेकिन जैसे ही प्रज्वलित ज्वाला की फोटो खींची पुजारी ने देख लिया और मेरा हाथ मोड़ दिया ऊपर की तरफ कि फोटो मत खींच ! नही ले पाया बढ़िया फोटो ! आखिर ज्वाला जी के दर्शन करके अकबर द्वारा चढ़ाया गया छत्र देखा ! वहीँ हवन के लिए एक निर्धारित स्थान भी है !
मंदिर प्रांगण में ही एक मंडप भी है जिसमें पीतल का एक बहुत बड़ा घंटा लगा था कभी , अब इसे उतारकर रख दिया गया है , इस घंटे को नेपाल के राजा ने लगवाया था ! किस राजा ने लगवाया , ये मुझे नहीं मालुम , क्यूंकि वहां इस तरह का कुछ भी नही लिखा हुआ ! महाराजा रंजीत सिंह जब 1815 में इस मंदिर में आये तो उन्होंने इसके गुम्बद (डोम ) को सोने से बनवाया ! इसी मंदिर के ऊपर जाने पर एक लगभग 5 -6 फुट गहरा एक खड्ड सा है, इसकी तलहटी में भी एक छोटा सा गड्ढा है उसमें लगातार पानी उबलता रहता है ! क्यों है , कैसे है , मैं नहीं जानता ! ऐसा ही एक लम्बा चौड़ा गर्म पानी का कुण्ड बद्रीनाथ पर भी है !
पोस्ट ज्यादा बड़ी हो जायेगी , अब विराम देता हूँ !
आइये फोटो देखते हैं :
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चलती -फिरती फूलों की दूकान |
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ऐसे दो तीन तोरण द्वार हैं ज्वालाजी पर |
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मंडप |
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ज्वालाजी मंदिर |
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ज्वालाजी मंदिर |
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ज्वालाजी मुख्य मंदिर , अति की भीड़ थी उस दिन |
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मुख्य
मंदिर के बराबर में ही एक और मंदिर है जिसमें एक प्रतिमा लगी है और इसमें
ही अकबर का चढ़ाया हुआ छात्र भी है ! ये वास्तव में एक हाल है जहां
श्रद्धालु आराम फरमाते हैं कुछ देर |
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ये ढोल आरती के समय एक आध मिनट के लिए बजता है फिर बंद हो जाता है !
विशेषता ये है कि मैकेनिकली बजता है ! एक मोटर लगा रखी है इसमें |
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मंडप में ज्वाला माँ का विश्राम स्थल और शयन सैय्या |
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मंडप में बहुत सी मूर्तियां हैं , उनमें से ही एक
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पास में एक हवन कुण्ड भी है
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नेपाल के राजा द्वारा चढ़ाया गया सवा कुंतल का घंटा |
यात्रा जारी है
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