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कल का दिन एक खराब दिन के बाद अच्छा गुजरा था और हम कागभुशुण्डि लेक तक पहुँचने के बाद ब्रह्मघाट रुक गए थे। ब्रह्मघाट में पानी की एक चौड़ी सी स्ट्रीम बह रही थी जो कल हमारे लिए water source थी लेकिन आज उसे पार कर के आगे बढ़ना था। रास्ता हमारे बाएं तरफ की चोटियों से होकर था तो लाजिमी था कि हमें ऊपर और ऊपर चढ़ते जाना था। आज का ट्रैक शुरू करते ही लगभग 15 मिनट में ही चढ़ाई शुरू कर देनी पड़ी और बड़ी -बड़ी घास और झाड़ियां न हमें कोई रास्ता देखने दे रही थीं न बनाने दे रही थीं।
हालाँकि करीब एक-डेढ़ घण्टा निकल जाने के बाद छोटी सी पगडण्डी नजर आने लगी थी। ये वो पगडंडी रही होगी जो पैंका गाँव के लोग कभी कभार आते जाते रहे होंगी अपने तीज त्योहारों पर , उससे बनी होगी लेकिन आज हमारे लिए जीवन रेखा जैसा काम कर रही थी। पंकज मेहता जी को जल्दी ही निकलना था और आगे उन्हें आसाम भी जाना था इसलिए उन्होंने आज जल्दी ही ट्रेक शुरू कर दिया था और फिर उसके बाद वो हमें कहीं नजर नहीं आए ! नजर आए तो सिर्फ उनके मैसेज -योगी भाई हम लोग एक ही दिन में बाकी का ट्रैक पूरा कर के नीचे गोपेश्वर की बस पकड़ लिए थे। गजब जीवट है उनका , पहाड़ी हैं , वायु सेना में हैं तो फिटनेस लेवल हमसे ज्यादा होना ही होना है। हम ठहरे मास्टर आदमी जिसकी तौंद निकल रही हो :) लेकिन तारीफ कर दीजिये मेरी भी कि तौंद निकलने और अस्थमा का मरीज होते हुए भी मैं ट्रैकिंग कर पाता हूँ।
पंकज भाई के साथ उनके तीनों मित्रों ने भी उनके साथ निकलना बेहतर समझा और अब हम रह गए कुल सात ट्रेक्कर और छह पोर्टर। सुबह करीब 8 बजे हम ब्रह्मघाट से निकले थे और ब्रह्मताल पहुँचते -पहुँचते 11 बज गए। ब्रह्मताल ऊपर से छोटा सा दिखाई दे रहा था क्यूंकि ऊपर आसमान में बादल लटके पड़े थे और जैसे ही बादल छंटे हमें ब्रह्मताल का वृहद रूप दिखाई देने लगा। ये हमारा सौभाग्य रहा कि जहाँ बाकी लोग इस ट्रैक में सिर्फ कागभुशुण्डि ताल ही देख पाते हैं हमें तीन-तीन ताल देखने को मिल गए ! 1. मच्छी ताल 2 .कागभुशुण्डि ताल और 3. ब्रह्मताल ! हालांकि हम चौथा ताल "हाथी ताल " भी देखना चाहते थे लेकिन हमारा एक दिन बेकार चला गया था और उस तरफ बादल भी बहुत लगे हुए थे इसलिए ज्यादा रिस्क लेना ठीक नहीं लगा और जो मिला , जितना मिला उतने में संतोष कर लिया। हिमालय में भटकना -खो जाना और फिर कभी न मिलना .. इससे बेहतर है कि एक ताल को skip ही कर दिया जाए !
ब्रह्मताल के ऊपर से बड़े बड़े पत्थरों के बीच से निकल रहे थे हम। पत्थरों में रास्ता नाम की कोई चीज नहीं हुआ करती , हाँ कुछ निशान जरूर कुछ भले लोग बना देते हैं लेकिन यहाँ हमारे गाइड देवेंद्र पंवार जी आगे-आगे बढ़ते चले जा रहे थे और हम उन्हें बस फॉलो कर रहे थे। हरजिंदर भाई , हनुमान जी न जाने कब उड़कर आगे पहुँच चुके थे। लेकिन हम चार-पांच फिसड्डी लोग आज भी हर रोज़ की तरह पीछे ही घिसट रहे थे जिनमे मैं भी शामिल था। कुलवंत भाई आगे -आगे चलते जा रहे थे मगर अब बादल आने लगे थे जो जल्दी ही बारिश में बदल गए।
सामने पत्थरों वाले पहाड़ की एक लम्बी-ऊँची दीवार सी दिखाई देने लगी थी। उसी दीवार में एक खिड़की जैसा पहाड़ कटा हुआ था जहाँ तक एक अच्छी खासी चढ़ाई तय कर के पहुंचना था। ये अच्छी बात थी कि उस "खिड़की " तक पहुँचने की जो ऊंचाई थी उसमे slope था मगर बारिश की वजह से ये स्लोप बहुत कठिन और फिसलन भरा हो गया था। मैं आगे-आगे कभी त्रिपाठी जी का हाथ पकड़ के ऊपर की तरफ चढ़ने में सहारा देता तो कभी अपना रेन कोट (पोंचो ) संभाल रहा होता। अंततः हम दोनों बारिश में ही उस "खिड़की" तक पहुँच गए जहाँ हमारे गाइड पंवार जी खड़े थे सभी को इस खिड़की से पार पहुंचाने के लिए।
ये जो "खिड़की" थी बड़ी जानलेवा थी ! ये खिड़की ही बरमाई पास (Barmai Pass ) है जो कागभुशुण्डि वाली घाटी को फर्स्वाण वाली घाटी से जोड़ता है और इसीलिए ये पास कहा जाता है ! अभी हम लगभग 4700 मीटर की ऊंचाई पर थे लेकिन यहाँ ऊंचाई से ज्यादा उतराई खतरनाक थी। बरमाई पास से जब नीचे की तरफ झाँक के देखा तो नीचे मौत की खाई नजर आ रही थी। लगभग 30 -35 डिग्री का स्लोप था उतरने में और ऊपर से लगातार बारिश। रास्ता नाम की चीज नहीं थी। लेकिन कभी ऊपर से पानी आता रहा होगा जिससे ऊपर से नीचे की तरफ एक नाला जैसा बन गया था , हालाँकि उसमे छोटे-बड़े पत्थरों की भरमार थी मगर हमारे पास न कोई दूसरा चारा था न कोई दूसरा रास्ता !
मुझे बरमाई पास से नीचे कदम रखने में भयंकर डर लग रहा था। महसूस हो रहा था कि अगर कैसे भी फिसल गया और पाँव न टिका पाया तो नीचे 300 मीटर तक गिरता चला जाऊँगा और तब तक मेरे शरीर की 206 की 206 हड्डियों का पाउडर बन चुका होगा। लेकिन भगवान शिव का आशीर्वाद काम आया और हम सुरक्षित नीचे उतरने लगे। बस एक जगह सिर्फ एक ही पाँव रखने की जगह थी करीब 5 -7 मीटर तक , उसे भी हम जैसे तैसे पार करते हुए नीचे पहुँच गए जहाँ एक बड़ा सा मैदान हमारा स्वागत करने को तैयार था और बारिश के बीच ही तैयार थे हमारे पॉर्टर जिन्होंने बारिश में भी छतरियां तानकर सबको एक-एक कप गर्मागर्म चाय पिला दी।
मुश्किल सफर लगभग खत्म हो चुका था। बरमाई पास वाला हिस्सा इसलिए भी और कठिन हो गया था हमारे लिए क्यूंकि हमसे पहले किसी भी भाई ने इस जगह का कुछ भी विवरण सोशल मीडिया में नहीं लिखा जिससे कुछ अंदाज़ा लगाया जा सकता। खैर कभी-कभी एकदम अनजान और अनदेखी चीजें और भी ज्यादा रोमांच देती हैं और बरमाई पास ने हमारे साथ यही किया।
रास्ता आगे भी आसान नहीं था। हम अब भी लगभग 4600 मीटर की ऊंचाई पर चल रहे थे लेकिन हाल फिलहाल जिंदगी का रिस्क उठाने जैसा रास्ता नहीं था। उस मैदान में एक चबूतरा बना है सीमेंट का और उस पर सीमेंट और ईंटों से ही शिवलिंग बनाया हुआ है। इसका मतलब पैंका गाँव के लोग यहाँ तक आते रहते होंगे।
थोड़ी सी चढ़ाई करीब 10 -12 मीटर की सामने दिख रही थी जिसे चढ़ते ही एक और मैदान मिल गया। ऐसा लग रहा था जैसे कोई मिटटी का पहाड़ एकदम समतल कर दिया गया हो और जब वहां से उतरे तो ब्रह्मकमल का बेहतरीन जंगल नजर आने लगा जो शायद हमारे इस ट्रेक का आखिरी ऐसा पॉइंट था जहाँ हमें ब्रह्मकमल देखने का अवसर मिला। आखिरी बार इस ट्रेक पर ब्रह्मकमल देख रहे थे तो जीभर के देख लेने में क्या बुराई थी :)
करीब तीन चार घण्टे शांत रहने के बाद इन्द्र देवता को फिर खुजली होने लगी और बारिश आ गई। अभी हम लगभग समतल जमीन पर ही चल रहे थे तो दिक्क्त नहीं थी। बारिश और बादलों ने ऐसा मायाजाल फैलाया कि मैं एक जगह कई सारे पत्थरों को मंदिर की तरह लगे हुए देखकर खुश हो गया कि मैं आज की अपनी मंजिल फर्स्वाण टॉप पहुँच गया :) जब गाइड साब आए और बोले अभी फर्स्वाण टॉप तीन किलोमीटर और आगे है तो हवा निकल गई :)
हम इस खूबसूरत और कठिन ट्रैक के आखिरी पड़ाव में थे , लगातार बारिश हो रही थी मगर हम रुक नहीं सकते थे क्यूंकि पहले ही एक दिन देरी से आगे बढ़ रहे थे। दूसरी बात कि हम सभी के पास बेहतरीन रेनकोट थे तो बारिश से शरीर को या हमें बहुत परेशानी नहीं थी लेकिन रास्तों की हालत बहुत खराब हो चुकी थी। एक जगह हमें पहाड़ी के नीचे से होते हुए जाना था करीब 40 मीटर का फासला तय कर के लेकिन वहां बहुत गहरा गड्ढा बन चूका था जिसे किसी भी हालत में पार कर पाना संभव नहीं दिख रहा था। अब क्या कर सकते हैं ? थोड़ी दूरी पर वापस लौटे और गाइड ने तीन पोर्टरों को आगे भेजा। हम सभी के बैग हमारे कंधों से उतरवाए गए और पोर्टरों ने एक एक कर के उन्हें दूसरी तरफ पहुँचाया। अब असली खतरा था -हम सभी को उसी पहाड़ी पर बाहर की तरफ निकले हुए पत्थरों पर एक-एक पाँव रखकर आगे बढ़ना था। पहाड़ी के पत्थर गीले हुए पड़े थे और हम सिर्फ एक पैर ही रख सकते थे , हाथ छूटा तो जिंदगी छूटी ! हालाँकि बाकी पॉर्टर नीचे खड़े थे उस गड्ढे को छोड़कर ! भगवान भोलेनाथ की कृपा रही कि वो अंतिम कठिन समय भी सभी ने बेहतरीन तरीके से निकाल दिया। ट्रैकिंग में हर कदम एक नई जंग है !!
अब बढ़िया और एकदम स्पष्ट पगडण्डी दिखने लगी थी। रास्ते में ही एक जगह , एक पत्थर पर लिखा दिखा : फर्स्वाण टॉप 2 किलोमीटर @ 4166 मीटर height ! मन को सुकून देने वाले शब्द थे ये और मन को ये एहसास भी कि एक कठिन और बेहद खूबसूरत ट्रेक को पूरा करने का आनंद ही अलग होता है।
हम करीब पांच बजे फर्स्वाण पास पहुँच चुके थे जहाँ से जोशीमठ शहर और औली बुग्याल दिखने लगे थे। जोशीमठ और औली उस ऊंचाई से बड़े सुन्दर गाँव से दिख रहे थे और गाड़ियां खीलों के जैसी नजर आ रही थीं। कुछ ही देर में अँधेरा उतर आया और बारिश भी बंद हो गई और फिर जब जोशीमठ और औली शहर की रोशनियां जगमगाने लगीं तो एक सुन्दर नजारा आँखों के सामने आने लगा। ऊपर एकदम साफ़ -नीला आसमान और नीचे जोशीमठ और औली जैसे सुन्दर शहर ! आँखों की रौशनी को और बढ़ा दे रहे थे ! मौसम में ठण्डक बहुत भयानक थी। आज लगभग पूरे दिन बारिश होती रही जिससे हमारे स्लीपिंग बैग भी ठण्डे हो गए थे।
आखिरी रात थी इस ट्रैक पर। आज हमें इस ट्रैक पर छठवां दिन था ! जिंदगी के बेहतरीन लम्हों में शुमार रहने वाले थे ये दिन। मैग्गी खा के कुछ ऊर्जा आई तो अपने -अपने टैंट से बाहर निकल के आसपास और जोशीमठ की लाइटों को निहारते रहे। पूरे छह दिन बाद हमें मानव सभ्यता फिर से देखने मिली थी लेकिन अभी हम गिने चुने मानवों के आलावा और कोई बाहरी मानव देखने को नहीं मिला। शायद कल जरूर देख पाएंगे कुछ और "मानवों " को !
रात के लगभग 10 बजे होंगे ! मैं , डॉक्टर अजय त्यागी जी और सुशील भाई एक ही टैण्ट में थे , बादल गरजने लगे और बिजलियाँ ऐसी चमक रही थीं जैसे हमारे ही टैण्ट पर आके गिरेगी ! हवा इतनी तेज कि लग रहा था हमें टैंट सहित उड़ा ले जाएगी। सभी की घिग्घी बंधी हुई थी , अंदर से सब डरे हुए थे। मैंने मजाक में कहा -काश ! हवा हमें अल्लादीन की चटाई की तरह उड़ाते हुए ले जाए और नीचे पहुंचा दे :)
डर मैं भी रहा था
वो एक -डेढ़ घण्टा भगवान् भोलेनाथ की कृपा से बस निकल गया ! बारिश पूरी रात होती रही.... मगर हवा बंद हो गई थी , बिजली के कड़कने की आवाज भी नहीं आ रही थी और हम थके मगर मन से जीते हुए लोग नींद के आगोश में पहुँच ही गए। अगली सुबह नहाई हुई सी , मद्धम मद्धम खुशबु लिए हुए थी .. मगर अगले दिन की बात अगली पोस्ट में होगी !
तब तक के लिए राम राम सभी मित्रों को !!
1 टिप्पणी:
वाह योगी भाई याद ताजा करवा दी इस ट्रेक की
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