दिल्ली की सब पोस्ट एक साथ
गाँधी दर्शन
जैसा कि पहले भी बात हो चुकी है कि दिल्ली में अगर आपने घूमने का प्रोग्राम
बनाया है तो आप अपने दिल को इस बात के लिए तैयार रखिये कि आप दिल्ली में
ज्यादातर दो तरह की जगहों के दर्शन करेंगे ! एक मुगलिया और एक गांधी !
दिल्ली में जैसे इनके सिवाय कुछ है ही नहीं ? है बहुत कुछ , लेकिन भारत
वर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री और तथाकथित प्रथम परिवार ने इसके अलावा किसी और
जगह को प्रमोट ही नहीं किया और न ही करने दिया ! और जब तक आप उस जगह के
बारे में जानेंगे नहीं , पढ़ेंगे नहीं तो आप जाएंगे भी नहीं ! और ये
सिलसिला अब तक जारी है लेकिन भला हो भारत की जनता जनार्दन का कि इस बार
निज़ाम बदला है , तो उम्मीद करी जा सकती है कि भारत में और दिल्ली में नए नए
स्थान जनता के सामने आएंगे ! आइये आज एक और गांधी स्थल यानी गांधी दर्शन
चलते हैं !
रिंग रोड पर यमुना किनारे बने महात्मा गांधी की समाधि राजघाट के पास ही एक
भी दिन प्रधानमंत्री के रूप में लोकसभा का मुँह न देख पाने वाले चौधरी चरण
सिंह का समाधी स्थल "किसान घाट " भी है लेकिन वहां तक शायद ही कोई जाता हो
! जाएगा भी क्यों ? समाधि के आसपास ऊँची ऊँची घास उगी हुई है , लगता ही
नहीं कि ये किसी पूर्व प्रधानमंत्री की समाधि है ! और यही हाल पूर्व लोकसभा
अध्यक्ष मीरा कुमार के पिता और जाने माने दलित कांग्रेसी नेता बाबू जगजीवन
राम की भी है ! वो भी बेचारे अकेले पड़े हैं। नितांत अकेले , इतने बड़े
जंगल में , अकेले , डर लगता होगा उनकी आत्मा को !
बाबू जगजीवन राम की बात चली है तो मुझे कुछ याद आ रहा है ! वो शायद
स्वास्थ्यमंत्री भी रहे हैं , और जब वो स्वास्थ्यमंत्री थे तब उन्होंने
अपने कार्यकाल में गांवों में एक स्वस्थ्य योजना चलाई थी ! जिसमें गांंव के
ही किसी आदमी को CHV ( community Health worker of village ) बनाया जाता
था ! मेरे पापा भी CHV हो गए और तनख्वाह जानते हैं कितनी मिलती थी ? 50
रुपये महीना , और वो भी छह छह महीने या साल के बाद ! लेकिन दवाईयाँ जरूर
मिलती थीं , उन्ही में एक लाल दवाई भी होती थी , वो शायद चोट मोच के लिए
होती थी ! बहुत चलती थी वो दवाई ! पापा की तनख्वाह कोई मायने नहीं रखती थी
लेकिन वो इस काम के साथ साथ इंजेक्शन भी लगाना सीख गए थे और उससे कुछ कमा
लेते थे ! लोगों का भरोसा भी था उन पर इसलिए तनख्वाह से ज्यादा इंजेक्शन
वगैरह से कमा लिया करते थे ! इन्हीं दवाइयों के साथ परिवार नियोजन यन्त्र
यानी निरोध भी आया करता था , मुझे याद नहीं पड़ता की कोई उन्हें लेने भी आता
था , लेकिन उनकी सप्लाई सबसे ज्यादा थी ! कोई लेने आये या न आये लेकिन वो
हमारे काम बहुत आते थे , हम उन्हें गुब्बारे की तरह फुलाते रहते और मजे
करते रहते ! गुब्बारे लेने की औकात तो थी नहीं हमारी इसलिए ये ही हमारे
गुब्बारे हो जाया करते थे और सच कहूँ तो ये बड़े मजबूत और लम्बे होते थे !
एक और बात याद आती है , साझा करना चाहूंगा ! गांव में उस वक्त एक वृद्ध
हरिजन महिला थीं ! उनका काम नालियों की सफाई करना होता था ! सरकार की तरफ
से नहीं , गांव वालों की तरफ से ! शायद रेणुका नाम था उनका लेकिन मैंने कभी
किसी को उन्हें इस नाम से पुकारते नहीं देखा , सब उन्हें रेनुकी ही कहते
और कभी कभी तो मेरी जैसी उम्र के बच्चे रेणुकी भी नही कहते बल्कि मेंढकी कह
कह के चिढ़ाते ! लेकिन मैंने उन्हें कभी चिढ़ते हुए भी नहीं देखा ! चिढ़ती भी
कैसे ? गुस्सा करती भी कैसे ? गुस्सा करती तो सफाई के बाद उन्हें हर घर
से जो 1 -1 , 2 -2 रोटी मिल जाती थी , वो भी बंद हो जाती ! किसी के घर में
बच्चा पैदा होता तो उनके बारे न्यारे हो जाते , उन्हें उम्मीद बन जाती कि
जच्चा बच्चा के गंदे कपडे धोने के बदले उन्हें कुछ सेर गेंहू और नयी नहीं
तो कम से कम एक पुरानी धोती ही मिल जायेगी !
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Yogi Saraswat
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बुधवार, अगस्त 20, 2014
कॉन्ग्रेसपुर दिल्ली
भारत की आज़ादी की लड़ाई में गाँव से लेकर शहर तक और अमीर से लेकर गरीब तक
सबने अपने अपने हिसाब और अपनी हिम्मत के साथ अपना योगदान दिया लेकिन आज अगर
इधर उधर कहीं भी नज़र उठा के देखिये तो आपको ऐसा लगेगा कि पूरी आज़ादी की
लड़ाई सिर्फ एक परिवार ने लड़ी हो , और उसी परिवार ने आज़ादी के बाद भारत पर
अघोषित कब्ज़ा भी कर लिया ! आप उस परिवार को कांग्रेस कह सकते हैं या गांधी
नेहरू परिवार कह सकते हैं ! मुझे दोनों में कोई अंतर नहीं मालुम पड़ता ,
शायद आपको कोई अंतर लगता हो !
पिछले सप्ताह कॉन्ग्रेसपुर दिल्ली में राजघाट सहित अन्य कांग्रेसी नेताओं
की समाधियाँ देखने का मौका मिला ! जितनी जगह और जितना पैसा इन पर खर्च हुआ
है , एक गरीब देश भारत के लिए बहुत गंभीर बात है ! लेकिन क्यूंकि ये देश एक
परिवार की जागीर रहा है तो उन्हें ये अधिकार मिल गया था कि वो जैसे चाहें
जनता के पैसे का इस्तेमाल करें ! अगर इनकी समाधी बनाने का इतना ही शौक और
इतना ही जरुरी था तो हर समाधि को अलग अलग बनाने की जगह एक साथ बनाया जा
सकता था !
आइये इनके विषय में थोड़ा जानकारी ले लेते हैं ! राजघाट पहले पुरानी दिल्ली (
शाहजहानाबाद ) का यमुना नदी के किनारे ऐतिहासिक घाट हुआ करता था और इसी के
नाम से दरयागंज के पूर्व का स्थान राजघाट गेट कहलाता था ! बाद में जब
महात्मा गांधी की समाधि बनाई गयी तो इसे राजघाट नाम दे दिया गया !
नाम समाधि का नाम क्षेत्रफल (एकड़ में )
महात्मा गांधी राजघाट 44. 35
जवाहर लाल नेहरू शान्तिवन 52. 60
लाल बहादुर शास्त्री विजय घाट 40 . 0
संजय गांधी ------------- --------------
इंदिरा गांधी शक्ति स्थल 45 . 0
जगजीवन राम समता स्थल 12. 5
चौ. चरण सिंह किसान घाट 19 . 0
राजीव गाँधी वीर भूमि 15. 0
ज्ञानी जैल सिंह एकता स्थल 22 . 56
और लोगों की भी समाधियाँ वहां हैं लेकिन वो सब ऐसे लोग हैं जो कभी न कभी या
तो कांग्रेस के चमचे रहे हैं या फिर अपनी इज्जत ईमान सब छोड़कर सत्ता के
लालच में कांग्रेस का पट्टा अपने गले में डाल कर घूमते रहे ! लेकिन मेरे
कैमरे की बैटरी ख़त्म हो गयी तो मैं वापिस आ गया !
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Yogi Saraswat
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शनिवार, अगस्त 09, 2014
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अमां मियाँ हौज़ ख़ास नाम ऐसे ई नहीं है
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हौज़
ख़ास देश विदेश में आई आई टी के कारण ज्यादा फेमस है लेकिन इसी हौज़ ख़ास में
देखने को , वीकेंड बिताने को बहुत कुछ है ! हौज़ ख़ास तक मेट्रो लीजिये या
फिर ग्रीन पार्क तक बस या टैक्सी जैसा मन करे वो लीजिये और एक दिन बढ़िया
तरह से एन्जॉय करिये !
हौज़ मतलब पानी का
टैंक या छोटी सी झील और ख़ास मतलब ख़ास लोगों के लिए ! ख़ास मतलब रॉयल , शाही
लोगों के लिए ! साउथ दिल्ली के केंद्र में स्थित हौज़ ख़ास में आपको शहरी और
ग्रामीण दौनों तरह का जीवन देखने को मिलेगा हालाँकि ग्रामीण जीवन ऐसा नहीं
कि आप हौज़ ख़ास गाँव देख लें और ये अनुमान लगा लें कि उत्तर प्रदेश और बिहार
के गाँव भी ऐसे ही होते होंगे ! हालाँकि मैं जब उस रास्ते पर पैदल पैदल
जा रहा था तो वहां एक कूड़ा करकट इकठ्ठा करने का घर सा बना हुआ है , कुछ लोग
उस गंदे कूड़े को नंगे हाथों से उठाकर ट्रक में भर रहे थे , कितनी भयंकर
बदबू आ रही , राम राम ! कैसे कर लेते हैं वो ऐसा ? पेट की खातिर ? क्या और
कोई तकनीक नहीं ! इतनी बुरी सड़ांध तो मेरे उत्तर प्रदेश के गाँव से भी
नहीं उठती होगी, पॉलिटिक्स की सड़ांध की बात नहीं कर रहा हूँ !
हौज़
ख़ास
को सीरी फोर्ट में रहने वाले लोगों तक पानी पहुंचाने के लिए अल्लाउद्दीन
ख़िलजी ने 1296 ईस्वी से 1316 ईस्वी के बीच बनवाना शुरू किया था ! वो झील
अभी तक जिन्दा है लेकिन उसके आसपास ज्यादातर या तो खँडहर हो चूका है या
फिर कब्जाया जा चूका है लेकिन जो कुछ भी बचा है उसे ASI पूरी तरह संजोये
रखना चाहती है ! हौज़ ख़ास गाँव और अन्य किसी गाँव में थोड़ा अंतर है ! अंतर
ये है कि हौज़ ख़ास गाँव में आपको बीना रमानी जैसे डिज़ाइनर के बुटीक और टॉप
लेवल के रेस्टोरेंट्स दिखेंगे , मॉडर्न लोग दिखेंगे ! फोटो शूट कराती मॉडल
भी मिल सकती है ! मैं सौभाग्यशाली रहा क्यूँकि मैंने पहली बार ओपन में किसी
महिला मॉडल का फोटोशूट होते हुए देखा , वो भी इतने कम कपड़ों में ! उस
वक्त कुछ पल के लिए मुझे लगा कि मैं शायद हिंदुस्तान से बाहर हूँ ! यहाँ
मेरी मानसिकता गलत नहीं है , बल्कि मेरी मानसिकता गाँव की है ! खैर !
इसी
हौज़ ख़ास गाँव के शुरू होने पर डियर पार्क और रोज़ गार्डन हैं ! डियर पार्क
में आपको हिरन मस्ती करते हुए बहुत नजदीक से देखने को मिलेंगे ! इस डियर
पार्क का नाम मशहूर समाज सेवी आदित्य नाथ झा के नाम पर ए. एन. झा डियर
पार्क है ।
लेकिन अगर आप डियर पार्क के बिलकुल अपोजिट रोज़ गार्डन में ये सोचकर जा रहे
हैं कि वहाँ सारे तरह तरह के गुलाब मिलेंगे तो फिर आपको निराशा होगी !
हाँ , वैसे घूमने लायक जगह तो है ये ! और जब गाँव को पार करते हैं तो लगभग
आखिरी छोर पर है मशहूर हौज़ ख़ास झील और हौज़ ख़ास कॉम्प्लेक्स और उससे लगी
हुई मीनारें और गुम्बद !
इसी रास्ते पर जगन्नाथ जी को समर्पित श्री नीलाचल सेवा संघ द्वारा निर्मित खूबसूरत मंदिर भी है ! आइये फोटो देखते हैं :
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नीलचला मंदिर |
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नीलचला मंदिर की ऊपरी मंजिल |
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रात के समय प्रकश में नहाया नीलचला मंदिर |
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डियर पार्क |
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डियर पार्क में बहुत नजदीक से हिरणों को देखा जा सकता है |
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डियर पार्क में एक गमला टाइप कुछ लगा रखा है |
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डियर पार्क के सामने ही है रोज़ गार्डन |
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ये भी रोज़ गार्डन है |
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हौज़ ख़ास कॉम्प्लेक्स |
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इस कॉम्प्लेक्स में बच्चे म्यूजिक की प्रैक्टिस के लिए आते हैं , एक क्लिक |
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हौज़ ख़ास |
जल्दी ही मिलेंगे एक और यात्रा वर्णन के साथ
Garden of Five Senses ( गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसस )
इस ब्लॉग को शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
गार्डन ऑफ़ फाइव
सेंसस घूमने के लिए मुझे दो बार जाना पड़ा ! पहली बार गया तो पता पड़ा कि शाम
छह बजे तक ही खुलता है और मैंने अपनी कलाई घड़ी में देखा तो सवा छह बज रहे
थे ! मतलब आना बेकार रहा | लेकिन फिर भी इधर उधर देख कर और टिकेट की कीमत
वगैरह पता करके चला आया ! तब टिकट 20 रूपया का था , यानी 18 अप्रैल 2014 को
!
गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसस तक पहुँचना बहुत ही आसान है , बस महरौली -बदरपुर रोड पर स्थित
साकेत मेट्रो स्टेशन पर उतरिये, उसी साइड में थोड़ा सा चलिए और ऑटो लीजिये 20
रूपये में अकेले के लिए ! पैदल चलने की शक्ति और हिम्मत है तो ज्यादा नहीं
बस 1 या डेढ़ किलोमीटर ही होगा ! मजे मजे में चलते जाइए , अफ्रीकन लडकियां
दिखती रहेंगी नए नए फैशन के कपडे पहने हुए !
वहाँ जाने का
अगला मौका मिला 2 मई 2014 को ! शुक्रवार का दिन था यानि पक्का था कि गार्डन
खुला होगा ,सोमवार को बंद रहता है ! ये गार्डन ही क्या दिल्ली के ज्यादातर
घमूने वाली जगहें सोमवार को बंद ही रहती हैं ! ये अच्छा भी है कि
ज्यादातर जगहों पर लोग घूमने के लिए रविवार को जाते हैं इसलिए रविवार को
सभी जगहें खुली रहतीं हैं !
कैमरा और मेट्रो
कार्ड उठाया और निकल लिए गार्डन देखने , पांच
इन्द्रियों वाला बाग़ ! इस जगह को सईद उल अज़ाब गाँव के नाम से भी जाना जाता
है ! इसे दिल्ली पर्यटन निगम ने बनाया तो ये सोचकर होगा कि दिल्ली के
लोगों को घूमने , पिकनिक मनाने की बढ़िया जगह मिल जायेगी लेकिन मुझे नहीं
लगता कि यहां कोई भी भला आदमी अपने बच्चों को लाता होगा घुमाने के लिए !
क्यों ? आगे पढ़ेंगे !
सन 2003 में शुरू
हुए इस गार्डन को बनाने का उद्देश्य मानव को प्रकृति को समझने और महसूस
करने के माध्यम के तौर पर रहा होगा ! पाँचों इन्द्रियों को दर्शाते चित्र
आपको दिखेंगे ! मैं दोपहर में गया था वहां ! टिकट खिड़की पर पहुंचा तो जो
टिकट 15 दिन पहले 20 रुपये का हुआ करता था वो 30 रुपये का कर दिया था ! आया हूँ तो देखूंगा जरूर !
मैंने खिड़की में हाथ डाला और उसे कहा एक टिकट देना भाई ! बोला अकेले हो ?
मैंने कहा हाँ ! उसने टिकट दे दिया , फिर दोबारा उसने पूछा अकेले ही हो ,
मैंने कहा हाँ भाई हाँ ! अकेला ही हूँ ! वो मुस्कराया , मुझे ऐसा लगा !
भीड़ बिलकुल भी नहीं थी , शायद दोपहर की वजह से और गर्मी की वजह से !
अंदर चला गया , आधा
टिकट गेट पर बैठे आदमी ने फाड़ लिया और आधा मुझे पकड़ा दिया ,बोला अकेले हो ?
मैंने कहाँ हाँ ! थोड़ा ही अन्दर गया होऊंगा तो धीरे धीरे सब समझ आने लगा
कि
हर कोई ये क्यों पूछ रहा है - अकेले हो ? असल में मैं शायद एकमात्र आदमी या
ये कहूँ घुमक्कड़ होऊंगा जो अकेला घूम रहा था , सबके साथ अपने अपने बॉय
फ्रेंड या गर्ल फ्रेंड थे जो एक दूसरे को बाहों में भरे हुए घूम रहे थे !
खैर में उन दृश्यों को देखते देखते , कभी शर्माता हुआ , कभी इस कल्चर को
महसूस करता हुआ , बुदबुदाता हुआ आगे निकल मतलब के फोटो खेंच लेता ! बहुत
घना लेकिन छोटे छोटे झाड़ झंकड़ों का ये जंगल बहुत बड़ा है और मैं जैसे जैसे
इस जंगल में घुसता गया और मेरी आँखें शर्माने लगीं ! वो जो कुछ एक पति
पत्नी घर के अंदर करते हैं , मुँह पर दुपट्टा डालकर या फिर झाडी के ऊपर
दुपट्टा डालकर वो सब वो लोग कर रहे थे जिन्हें हम देश का युवा कहते हैं ,
जो एक दूसरे के बॉय फ्रेंड - गर्ल फ्रेंड होते हैं ! मैं गाँव से हूँ इसलिए
शायद ज्यादा मॉडर्न नहीं हूँ ! मैं खुद शर्मा गया ! वहां से जितना
निकलने की कोशिश करता उतना ही और अंदर जंगल में घुसता जाता और वहां हर जगह
वो ही एक जैसे
दृश्य , जैसे आज सबको अपनी मन मर्जी करने की छूट मिली हुई हो ! आखिर में
वहाँ काम
कर रहे एक मजदूर से रास्ता पूछा और तब बाहर निकलकर आया ! ओह ! तो इसलिए
वो पूछ रहे थे- अकेले हो ? और यही जवाब है ऊपर लिखे क्यों का !
आइये फोटो देखते हैं :
पत्थरों को काटकर कारीगरों ने क्या खूबसूरत नमूने गढ़े हैं , दिल से तारीफ निकलती है !
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फिर मिलेंगे जल्दी ही एक और घुमक्कडी का नमूना लेकर ! बने रहिये मेरे साथ |
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Yogi Saraswat
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गुरुवार, मई 29, 2014
Gandhi Smriti ( गाँधी स्मृति )
इस यात्रा वृत्तान्त को शुरु से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें
तीस जनवरी मार्ग, नई
दिल्ली, में पुराने बिड़ला भवन में स्थित गांधी स्मृति वह पावन स्थल है जहाँ
पर 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की इह लोक लीला समाप्त हुई। इस भवन
में महात्मा गांधी 9 सितम्बर, 1947 से 30 जनवरी, 1948 तक रहे थे। इस प्रकार
पावन हुए इस भवन में गांधी जी के जीवन के अंतिम 144 दिनों की अनेक
स्मृतियाँ संग्रहित हैं। पुराने बिड़ला भवन का भारत सरकार द्वारा 1971 में
अधिग्रहण किया गया और इसे राष्ट्रपिता के राष्ट्रीय स्मारक के रूप में
परिवर्तित कर दिया गया। 15 अगस्त, 1973 को इसे जनसामान्य के लिए खोल दिया
गया । यहाँ
संग्रहित वस्तुंओं में वह कक्ष है जिसमें महात्मा गांधी ने निवास किया था
तथा वह प्रार्थना स्थल है जहाँ वह प्रत्येक दिन संध्याकाल में जन सभा
संबोधित करते थे । इसी स्थल पर गांधीजी को गोलियों का शिकार बनाया गया। यह
भवन तथा यहाँ का परिदृश्य उसी रूप में संरक्षित है जैसा उन दिनों में था।
इस
जगह पर जाने के लिए न जाने कितनी बार सोचा होगा , लेकिन जब वहां पहुँचता
तो कभी 5 बज गए होते तो कभी सोमवार पड़ जाता ! असल में मेरा हंगरी भाषा का
कोर्स तीस जनवरी मार्ग के पास ही स्थित हंगरी कल्चरल सेंटर में चल रहा था
जो सोमवार और शुक्रवार को 6 बजे शुरू होता है , तो ये दो ही दिन मुझे मिल
पाते थे ! जबकि गाँधी स्मृति 5 बजे बन्द हो जाता है और सोमवार को साप्ताहिक
अवकाश है उनका !
आखिर
कॉलेज की छुट्टी पड़ गयी शनिवार की और इस बार मन बना लिया कि अब तो देख के
आना ही है गाँधी स्मृति को ! इसे देखने के बाद मैं ये कह सकता हूँ कि अगर
आप अपने बच्चों को गांधी बाबा के विषय में बताना चाहते हैं तो कम से कम एक
बार उन्हें इस संग्रहालय में जरूर ले जाएँ ! इस संग्रहालय
में महात्मा गांधी द्वारा यहाँ बिताए गए वर्षों के संबंध में फोटोग्राफ,
मूर्तियाँ, चित्र, भित्तिचित्र, शिलालेख तथा स्मृतिचिन्ह संग्रहित है।
गांधीजी की कुछ निजी वस्तुएँ भी यहाँ सावधानीपूर्वक संरक्षित हैं।
आइये फोटो देखते हैं
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गाँधी स्मृति में लगी आकर्षक प्रतिमा |
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अहिंसा घण्टा |
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यहीं शहीद हुए थे महात्मा गाँधी
30 जनवरी सन 1948 को शाम 5 बजकर 17 मिनट पर शहीद हुए महात्मा गांधी
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गांधी स्मृति में लगी एक फोटो में गांधी जी अपने बाल कटवा रहे हैं
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महात्मा गाँधी के अलग अलग उम्र के फोटो |
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गाँधी स्मृति में लगी आकर्षक प्रतिमा
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शीशे में महात्मा |
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महात्मा गांधी का बिड़ला हाउस में रुकने का लेखा जोखा | | | | | | | |
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Yogi Saraswat
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शनिवार, मई 24, 2014
इस यात्रा वृत्तान्त को शुरु से पढ़ने के लिये यहाँ करें
कभी कभी जब बाहर
घुमक्कडी करने के लिये समय न मिले तो अपने आसपास के स्थानों को भी देख आना
चाहिये ! 1 मई को पत्नी को एम्स के डॉक्टरों ने ऑपरेशन के लिये भर्त्ती तो
कर लिया लेकिन ऑपरेशन नही किया ! 2 मई भी इसी इंतज़ार में चला गया और जब ये
पता चला कि अब सोमवार यानि 5 मई को ही ऑपरेशन हो सकेगा तो उठाया अपना कैमरा
और निकल लिया दिल्ली के दिल देखने ! बहुत तेज धूप थी, असहनीय ! दिल्ली में
ठण्ड भी कड़ाके की पड़ती है और गर्मी भी कड़ाके की ! लेकिन जब जाना है तो
जाना ही है !
आदम खान का मकबरा
मोबाइल
में मैप देखा तो महरौली इलाके में स्थित आदम खान का मक़बरा ज्यादा नजदीक लगा
! यानि क़ुतुब मीनार मेट्रो स्टेशन पर उतरकर थोड़ा ही पैदल चलना पड़ेगा !
मैट्रो स्मार्ट कार्ड हमेशा ही पॉकेट में होता है , तो न टिकेट के लिये
लाइन में लगने की दिक्कत और न कोई इंतज़ार ! क़ुतुब मीनार मैट्रो स्टेशन
पहुँचकर बाहर निकला और पता किया तो असलियत समझ आई कि बेटा इतना भी नजदीक
नहीं है कि तुम आदम खान के मक़बरे तक पैदल चले जाओ ! और वो भी इतनी गर्मी
में ! खैर क़ुतुब मीनार तक बस ले ली पाँच रूपये किराया लगा और फ़िर पैदल पैदल
ही निकल लिया आदम खान का मक़बरा देखने !
आदम खान का
मकबरा अगर कहा जाये तो क़ुतुब मीनार के बिल्कुल पीछे है लेकिन वहां तक आने
का कष्ट न सैलानी करते हैं और न भारत सरकार का एएसआइ ! इसलिए क़ुतुब मीनार
जितना सुन्दर लगता है आदम खान का मकबरा उतना ही गंधियाता है !
किसी के एक आँसू पर हज़ार दिल धड़कते हैँ
किसी का उम्र भर रोना यूं ही बेकार जाता है !!
इतिहास में थोड़ी सी
भी रुचि रखने वाले जानते हैं कि आदम खान , महामंगा का बेटा और अकबर का
सिपहसालार था ! लेकिन जब आदम खान ने अकबर के विश्वस्त अतगा खान की हत्या कर
दी तो अकबर ने उसे दो बार छत से फैंक कर मारने का फरमान जारी कर दिया ! और
ये खबर अकबर ने स्वयं महामंगा को सुनाई ! इस खबर के बाद महामंगा भी 40 दिन
के बाद स्वर्ग सिधार गयी !
ये
मक़बरा , दिल्ली के महरौली इलाके में स्थित विश्व प्रसिद्ध कुतुबमीनार के
उत्तर में स्थित है ! ज्यादातर स्थानीय लोग इसे भूलभुलैया के नाम से भी
जानते हैं ! सन 1561 ईस्वी में बने इस मकबरे में ही आदम खान और उस की माँ महामंगा की कब्रें बनाई गईं !
लेकिन सन 1830 में एक ब्लैक नामक अँगरेज़
ने मकबरे को अपना निवास बना लिया और कब्रों को वहाँ से हटवा दिया ,
जिस जगह पर आदम और महामंगा की क़ब्रें हुआ करती थीं उस जगह को ब्लैक ने
डाइनिंग हॉल बना लिया ! ब्लैक की मौत के बाद भी ये मक़बरा कभी पुलिस थाने के
रूप में और कभी डाकखाने के रुप में प्रयोग में लाया जाता रहा ! आखिर लार्ड
कर्जन के आदेश के बाद इस जगह को ख़ाली किया गया और आदम खान की कब्र को वापस
लाया गया ! लेकिन महामंगा की कब्र कभी नही आई !
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आदम खान का मक़बरा |
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आदम खान का मक़बरा |
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आदम खान का मक़बरा , दूसरे कौण से |
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आदम खान का मक़बरा , दूसरे कौण से |
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आदम खान के मक़बरे का बाहरी हिस्सा |
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आदम खान के मक़बरे का अंदरूनी हिस्सा |
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कुतुब काम्प्लेक्स में पहले कभी समय बताने वाला डायल |
कुतुब काम्प्लेक्स में पहले कभी समय बताने वाला डायल
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आदम खान के मक़बरे से दिखाई देता कुतुबमीनार |
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शाम के समय में कुतुबमीनार का सुन्दर चित्र |
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आदम खान के मक़बरे से दिखाई देता कुतुबमीनार |
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शाम के समय में कुतुबमीनार का सुन्दर चित्र |
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Yogi Saraswat
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मंगलवार, मई 13, 2014
जब भी कभी हम दिल्ली के विषय में या वहाँ घूमने , देखने की जगहों के विषय
में बात करते हैं तब बस कुछ गिने चुने नाम ही जहन में आते हैं जैसे लाल
किला , जंतर मंतर , क़ुतुब मीनार ! लेकिन सच कहा जाए तो दिल्ली में देखने को
इतना कुछ है कि आप विस्मित हो जायेंगे कि अरे ! इतना सब कुछ है यहाँ ,
इसके बारे में तो हमें पता ही नहीं था ! लेकिन इसमें आपकी कोई गलती नहीं है
, असल में हमारा ध्यान उधर ही जाता है जिधर सरकार चाहती है ! मतलब जिन
जगहों को सरकार ने सुधार दिया है , जहां व्यवस्था कर दी गयी है , जो
प्रचलित हैं हम वहीँ तक जा पाते हैं ! लेकिन अगर आप इंटरनेट पर सर्च करेंगे
तो एक बड़ा खजाना आपके हाथ लगेगा ऐसी जगहों का जहाँ आप एक बार जरुर जाना
चाहेंगे ! मैंने कोशिश करी है आपको ऐसी ही जगहों के विषय में बताने की और
आपको वहाँ तक इंटरनेट के माध्यम से ले जाने की ! आइये चलते हैं
महाराज अग्रसेन की बावली :
पहले जमाने में राजा महाराजा पानी इकठ्ठा करने के लिए सीढ़ी दार कुँए बनवाया
करते थे जिनमें पानी को महीनों तक सुरक्षित रखा जा सके । इन्हीं सीढ़ीदार
कुओं को बावली कहा जाता है । पश्चिम भारत में यानि राजस्थान और गुजरात में
बहुत सी बावली आज भी हैं लेकिन दिल्ली में बहुत कम ! दिल्ली में खारी बावली
का नाम प्रचलित है , लेकिन दरयागंज के इलाके में स्थित यह बावली अब गायब
है ! लेकिन नाम चलता है खारी बावली ! अब वहाँ प्रकाशकों की दुकानें और
प्रतिष्ठान हैं ! एक है राजाओं की बावली जो दिल्ली के मेहरौली इलाके में है
, इसको बहुत ढूँढा लेकिन असफल रहा । बस फिर एक ही बावली मिली , महाराज
अग्रसेन की बावली ! ऐसा कहा जाता है कि इस बावली को महाराज अग्रसेन
(उग्रसेन भी कहा जाता है ) ने बनवाया था और चौदहवीं शताब्दी में अग्रवाल
समाज ने इसका पुनुर्द्धार कराया !
इस बावली तक पहुँचने के लिए बहुत बेहतर रास्ता मण्डी हाउस मेट्रो स्टेशन से
बाहर निकलकर बाराखम्बा रोड से निकलने वाले हैली रोड पर है । यह पूरा इलाका
नई दिल्ली के कनॉट प्लेस के आसपास का है । नजदीक ही जंतर मंतर है इसलिए
ढूंढने में ज्यादा परेशानी नहीं होती । सुन्दर जगह है आप को अच्छा लगेगा
वहाँ पहुंचकर , हालाँकि आजकल ये ऐतिहासिक स्थल से ज्यादा लव पॉइंट ज्यादा
मालुम पड़ता है ।
नेशनल म्यूजियम ऑफ़ नेचुरल हिस्ट्री :
मण्डी हाउस मेट्रो स्टेशन के ही नजदीक एक और स्थान है जो आपका मन मोह लेगा !
ये है नेशनल म्यूजियम ऑफ़ नेचुरल हिस्ट्री । ये म्यूजियम और दूसरे म्यूजियम
से कुछ हटकर है । इस म्यूजियम में आप जीवन से जुड़े तथ्य और आस पास की
जलवाऊ , पशु पक्षियों से मानव के रिश्ते को बहुत ही सटीक तरीके से प्रस्तुत
किया गया है ! इस म्यूजियम में वृक्ष बचाने के लिए हुए चिपको आंदोलन को भी
चित्रों के माध्यम से बेहतर तरीके से परिभाषित किया है !
मण्डी हाउस से निकलकर आप जैसे ही तानसेन मार्ग पर पहुंचेंगे तो सामने ही
आपको फिक्की बिल्डिंग दिखाई देगी , उसी बिल्डिंग में स्थित है ये अपने तरह
का विचित्र म्यूजियम । इस म्यूजियम को के के बिरला ने पूर्व प्रधानमन्त्री
श्रीमती इंदिरा गांधी के कहने पर बनवाया ! असल में सन 1972 ईस्वी में
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी , आज़ादी के 25 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में कुछ
विशेष करना चाहती थीं और इसके लिए उन्होंने भारतीय जीवन और भारतीय व्यक्ति
के जंगल और वन्य जीवों से सम्बन्ध को दिखाने के लिए एक प्रोजेक्ट शुरू
करने के विषय में सोचा और उसका प्रतिफल है ये आज का म्यूजियम !
ज़हाज महल :
ज़हाज़ महल वास्तव में मुसाफिरों के लिए एक सराय के रूप में बनाया गया था !
महरौली इलाके में स्थित ज़हाज़ महल को 1452 से लेकर 1526 ईस्वी तक चले लोधी
सल्तनत में बनवाया गया ! उस वक्त अफगानिस्तान , अरब , इराक आदि मुस्लिम
देशों से हिन्दुस्तान आने वाले तीर्थयात्रियों के लिए रुकने के स्थान के
रूप में बनवाया गया जहाज महल , इसके चारों ओर बने जलाशय में इसकी परछाई
जहाज की तरह की दीखती थी , इसलिए इसे जहाज महल कहा गया ।
ज़हाज़ महल , हर साल अक्टूबर में होने वाले प्रोग्राम "फूल वालों की सैर " के
लिए भी विख्यात है । इस कार्यक्रम में फूल विक्रेता फूलों से बने पंखों को
सजाकर महरौली से यात्रा प्रारम्भ करते हैं और सर्वप्रथम योगमाया के मंदिर
में श्रद्धा पूर्वक फूलों से बना पंखा अर्पित करते हैं, वहाँ से चलने के
बाद ये यात्रा हज़रत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की मज़ार पर चादर और फूल
अर्पित करने के साथ समाप्त होती है ! इस यात्रा को अकबर शाह द्वितीय ने सन
1820 में शुरू कराया लेकिन सन 1942 में अंग्रेज़ों ने इस पर प्रतिबन्ध लगा
दिया ! फिर सन 1961 ईस्वी में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस प्रथा को
दोबारा शुरू किया जो बदस्तूर जारी है । इस कार्यक्रम में अक्टूबर में
विभिन्न प्रदेशों के लोक कलाकार अपनी अपनी प्रस्तुति जैसे नृत्य , नाटक और
कवालियों का कार्यक्रम पेश करते हैं !
इस जगह तक आसानी से पहुँचा जा सकता है ! राजीव चौक मेट्रो स्टेशन से येलो
लाइन जो गुडगाँव तक जाती है , वो मेट्रो लीजिये और छतरपुर मेट्रो स्टेशन
उतरिये ! लगभग 10 मिनट की वाल्किंग डिस्टेंस पर है ज़हाज़ महल ! इस जगह को
अंधेरिया मोड़ भी कहते हैं !
तो आज बस इतना ही ! कुछ और जगहें आएँगी इस लिस्ट में थोडा इंतज़ार करिये !
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दिल्ली के आईटीओ पर लगी हनुमान जी की मूर्ति |
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महाराज अग्रसेन की बावली |
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महाराज अग्रसेन की बावली |
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महाराज अग्रसेन की बावली |
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महाराज अग्रसेन की बावली |
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नेशनल म्यूजियम ऑफ़ नेचुरल हिस्ट्री में एक सींग वाला गैंडा |
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जानवरों की खाल से बने कपडे , जिन्हें पहनकर हम इतराते हैं |
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अपने स्वार्थ के लिए हमने पेड़ों को भी नहीं बक्शा |
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चिपको आंदोलन को दिखाते चित्र |
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चिपको आंदोलन को दिखाते चित्र |
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ज़हाज महल |
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ज़हाज महल |
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ज़हाज महल
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