शनिवार, 23 मार्च 2019

Flag staff : New Delhi

आवारा हूँ .. लेकिन ये आवारगी ऐसी है कि चलते चलते कुछ ऐसा मिल जाता है जो आज के जमाने का भले न हो , तड़क -भड़क भले न हो लेकिन जब घर लौटकर उसके बारे में पढ़ते हैं तो आश्चर्य होता है कि हम जाने -अनजाने एक ऐतिहासिक स्थान देख आये और उसे अपने कैमरे में भी कैद कर लाये। मैंने 2018 के जुलाई -अगस्त महीने में लगातार कई चक्कर लगाए दिल्ली के। कारण -जिस जगह को देखने जाता तो वहीँ आसपास कुछ और भी मिल जाता था मगर उस दिन इतना समय नहीं रहता था कि मैं उस जगह को जीभर देख पाऊं। एक दिन गया तो कमला नेहरू रिज पर स्थित अशोक स्तम्भ और म्युटिनी मेमोरियल ( अजीतगढ़ ) देख के वापस आ गया , फिर पता चला दिल्ली में एक और अशोक स्तम्भ है , फिरोज शाह कोटला में , वहां होकर आया फिर पता चला कि यार कमला नेहरू रिज के पास ही हिंदूराव हॉस्पिटल के पीछे एक बावली है ..फिर गया और वहां से पैदल -पैदल ही लौटने लगा। सिविल लाइन मेट्रो स्टेशन के लिए निकला था करीब दो किलोमीटर पैदल होगा लेकिन ये सोचकर कि पैदल चलूँगा तो पेट कुछ कम होगा , चलना शुरू कर दिया। और जब चला तो रास्ता भूल गया और एक जंगल में पहुँच गया। दिल्ली में भी इतना घना जंगल है ? पहली बार पता चला मुझे। जंगल मुझे डराते हैं और ये जंगल भी मुझे डरा रहा था। लगता था अभी दो -तीन लड़के आएंगे और मुझे चार -पांच जमाके मेरे फ़ोन , कैमरा और रुपया पैसा सब ले जाएंगे। पचास -सौ मीटर चला होऊंगा कि सामने से एक बजुर्ग और उनकी बुजुर्गायन इवनिंग वाक करते हुए दिख गए। कुछ हिम्मत आई तो डर जाने लगा। थोड़ा और आगे बढ़ा तो दिल्ली की ''कल्चर " दिखने लगी। रास्ते के दोनों तरफ एक दूसरे से जुड़े चेहरे ..किसी से पूछा कि पास में कोई मेट्रो स्टेशन है ? हाँ , थोड़ा आगे से लेफ्ट हो जाना सिविल लाइन्स है। 


सामने एक गोल सी संरचना दिख रही है। वाह ! ये तो फ्लैग स्टाफ की बिल्डिंग है जो बिना टिकट ही सामने चली आई। शायद ये भी चाहती होगी कि मेरा भी कहीं जिक्र हो , मेरी भी बात हो। कोई मुझे भी जाने -पहिचाने.... देखने आये ! ये फ्लैग स्टाफ बिल्डिंग है जो 1828 में बनवाई गई थी। बनवाई तो एक सिग्नल टावर के रूप में थी लेकिन बाद में विख्यात या शायद कुख्यात और कारण से हुई। यहां इस इलाके में कभी अंग्रेज़ों के परिवार रहा करते थे जिनके लिए ये बिल्डिंग बनवाई गयी लेकिन 11 मई 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सिपाहियों ने दिल्ली के अन्य स्थानों के साथ इस जगह को भी अपने कब्जे में ले लिया। उस वक्त कुछ मौतें भी हुईं और फिर ये खबर मेरठ पहुंची जहाँ से ब्रिटिश -इंडियन आर्मी की टुकड़ी वहां से करीब एक महीने बाद 7 जून को यहाँ पहुंची। भयंकर मारकाट हुई जिसके परिणामस्वरूप ये जगह बाद में अंग्रेज़ों को छोड़नी पड़ी। 

सम्पूर्ण रूप से गोलाकार रूप में बनी ये संरचना जितना वीभत्स इतिहास अपने आसपास लपेटे हुए है , अगर आप इसे महसूस करेंगे तो रोंगटे खड़े हो जाएंगे लेकिन आज की तारीख में ये बच्चों के खेलने और मस्ती करने की जगह है !! आज बस इतना ही ......











सोमवार, 4 मार्च 2019

Kangra Fort : Himachal Pradesh

कांगड़ा फोर्ट  
अक्टूबर 2018
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शाम हो चली थी बगुलामुखी मंदिर में ही। हमारा अगला ठिकाना कांगड़ा था और हम चाहते थे कि आज ही कांगड़ा पहुँच जाएँ और वहीँ रुकें। दो कारण थे -एक तो कांगड़ा से हम भलीभांति परिचित थे और दूसरा ये कि हमारा अगले दिन का समय बच जाता। रात आठ -साढ़े आठ बजे तक हम कांगड़ा के एक सामान्य से होटल के कमरे खाना -वाना खाकर आज की यात्रा के फोटो देख रहे थे। अक्टूबर का महीना था लेकिन मच्छर अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद लगे मुझे , इनका भी सर्जिकल स्ट्राइक जरुरी था। आल ऑउट बहुत सही तरह की मिसाइल का काम करती है मच्छरों के लिए। कांगड़ा जितना बड़ा है उतना ही जीवंत शहर है। लगता ही नहीं पहाड़ी शहर है , देर से सोता है देर से ही जागता है।


आज हमारे दो प्रोग्राम थे। सुबह - सुबह कांगड़ा मंदिर में ब्रजेश्वरी देवी के दर्शन और दूसरा कांगड़ा फोर्ट। मंदिर के दर्शन के लिए हम 2014 में एक बार कांगड़ा आ चुके हैं लेकिन क्योंकि ब्रजेश्वरी देवी हमारी कुलदेवी मानी जाती हैं इसलिए जब भी अवसर मिलता है , दर्शन के लिए पहुँच जाते हैं। ब्रजेश्वरी देवी को हमारे यहाँ नगरकोट वाली देवी भी कहा जाता है। आप कभी वहां जाएँ तो किसी श्रद्धालु से पूछियेगा कि वो कहाँ से आये हैं ? आपको बुलंदशहर , अलीगढ जिले में से ही कोई होंगे वो श्रद्धालु ! कारण ये कि बुलंदशहर और अलीगढ में नगरकोट वाली देवी को बहुत माना जाता है।

सुबह करीब साढ़े आठ बजे हम ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के प्रवेश द्वार पर थे और प्रसाद तथा चांदी का छत्र सजाकर अंदर की तरफ जब चले तो एक तरह की आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी का एहसास हुआ। कारण ये था कि हमारे आगे दर्शन की लाइन में कोई नहीं था और मजे की बात की पीछे भी कोई नहीं था। बाहर साफ़ सफाई चल रही थी और हम मंदिर में दर्शन कर रहे थे। पिछली बार जब आये थे तब हमें एक लम्बी लाइन में इंतज़ार करना पड़ा था लेकिन आज हमें मौका मिल रहा था बहुत बेहतर और समय लेकर दर्शन करने का। जय माँ ब्रजेश्वरी !!

मंदिर से मुख्य रोड करीब आधा किलोमीटर होगा । लेकिन पहले नाश्ता वगैरह कर लें तब फिर आगे कांगड़ा फोर्ट चलेंगे । कांगड़ा फोर्ट शहर के बाहरी हिस्से में स्थित है और कोई शेयर्ड जीप , ऑटो या बस वहां नहीं जाती और आपको किराए पर ही अपना वाहन लेना होता है। मेरा मानना है कि ऑटो लेना सबसे बेहतर विकल्प है। शायद एक ये कारण हो सकता है कि जितने लोग कांगड़ा देवी मंदिर दर्शन के लिए आते हैं , उतने यहाँ कांगड़ा फोर्ट तक नहीं पहुँचते।

कांगड़ा फोर्ट को हिमालय क्षेत्र में स्थित सबसे बड़ा फोर्ट माना जाता है और ये भी कहा जाता है कि ये किला भारत के सबसे प्राचीन किलों में से एक है। इस किले को कटोच राजवंश के राजपूत राजाओं ने चौथी शताब्दी में बनवाया था। कटोच शासकों का सम्बन्ध महाभारत में वर्णित त्रिगर्त राजवंश से भी माना जाता है। इसकी दीवारें इतनी मजबूत हुआ करती थीं ( आज भी हैं ) कि 1615 ईस्वी में जब मुग़ल शासक अकबर ने इसे जीतने की कोशिश की तब उसे कई दिनों की कोशिश के बाद भी मायूसी झेलनी पड़ी और अंततः वो इसे छोड़कर वापस लौट गया हालाँकि बाद के वर्षों में अकबर के पुत्र जहांगीर ने राजा सूरजमल की मदद से हिमाचल के सबसे शक्तिशाली माने जाने इस किले पर 1620 में कब्जा कर लिया। गद्दार शुरू से ही रहे हैं इस देश में !! 

वक़्त बीतता रहा और उधर एक राजपूत का खून लगातार खौलता रहा। वो राजपूत खून था राजा संसार चंद्र का जो लगातार अपने पूर्वजों के इस किले को वापस लेना चाहता था। संसार चंद्र ही नहीं , उनसे पहले के राजा भी मुग़ल शासकों के अधीन सल्तनतों को मौका पड़ते ही लूटते रहे और कमजोर करते रहे। आखिरकार सन 1789 में राजा संसार चंद्र ने अपने पूर्वजों की इस धरोहर को , राजपूतों की शान को वापस जीत लिया। बीच में कुछ समय के लिए ये फोर्ट गोरखाओं के कब्जे में भी रहा लेकिन फिर अंग्रेज़ों के इसमें आने तक महाराजा रणजीत सिंह ने , राजा संसार चंद की मौत के बाद इसे अपने अधीन रखा। सन 1905 में आये एक भूकंप की वजह से इसे बहुत नुकसान पहुंचा और इसी डर से अंग्रेज़ों ने इसे छोड़ भी दिया।

किले का रहस्य :
ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार , कांगड़ा फोर्ट पर हमला करने वाला पहला राजा कश्मीर का राजा श्रेष्ठ था जिसने 470 AD में इस फोर्ट पर आक्रमण किया था। उसके बाद महमूद ग़ज़नवी ने भी 1000 A.D. में अपनी फौजों को इस फोर्ट पर आक्रमण करने का आदेश दिया। और ये सब ऐसे ही नहीं था ! ऐसा माना जाता है कि इस फोर्ट में 4 मीटर गहरे और 2.5 मीटर व्यास के , खजाने से भरे 21 कुँए हैं / थे जिनमें से ग़ज़नवी की फौजों ने आठ कुओं को ढूंढ भी लिया और लूट ले गए। इसके बाद 1890 के आसपास ब्रिटिश फौजों ने भी खजाने से भरे पांच कुओं को लूट लिया। ऐसा माना जाता है कि इस किले में अभी भी 8 कुएं ऐसे हैं जिनमें खजाना भरा पड़ा है और जिन्हें अभी तक खोजा नहीं जा सका है / या कह सकते हैं खोजा नहीं गया है।


फोर्ट में अलग -अलग समय पर बनवाये गए गेट हैं जैसे रणजीत सिंह द्वार , अहानी दरवाज़ा , गंगा -यमुना द्वार। अंदर लक्ष्मी नारायण मंदिर के अलावा एक जैन मंदिर भी है लेकिन इन मंदिरों के अलावा जब हम ऊपर जाते हैं तो इसके खँडहर इसके एक शानदार विरासत होने का नमूना प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं। हालाँकि ये फोर्ट बहुत बड़ा नहीं है लेकिन इसको बनाया बहुत ही सोच -समझकर है। दीवारों में तीर -हथियार चलाने के लिए छिद्र बनाये गए हैं और सबसे ऊपर से लगभग उस समय पूरा कांगड़ा शहर दिखाई देता होगा।

लोग कांगड़ा जाते हैं तो सिर्फ उनके मन में टॉय ट्रेन की सवारी और मंदिर दर्शन की इच्छा रहती है। इस बार जाएँ तो अपनी इच्छाओं की लिस्ट को थोड़ा और बड़ा करके जाइये और कांगड़ा फोर्ट को भी एक बार देखकर आइये !! 






























मिलते हैं जल्दी ही :