सोमवार, 30 मार्च 2015

चन्दरू की दुनियाँ - चौथी किश्त

गतांक से आगे

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पारो की देखा देखी उसकी दूसरी सहेलियां भी चन्दरु को सताने लगीं और कई छोटे छोटे लड़के भी। मगर लड़कों को चन्दरू डाँट देता था और वो जल्दी से भाग जाते। एक बार पारो की अपनी सहेलियों से आज़िज़ आकर उन्हें भी डाँट बताई। तो उस पर पारो इस क़द्र नाराज़ हुई कि उसने आगे तीन चार दिनों तक चन्दरू को सताना बंद कर दिया। उस पर चन्दरू को ऐसा लगा कि आसमान उस पर उलट गया है। या उसके पैरों तले जमीन फ़ट गयी हो। ये पारो मुझे सताती क्यों नही है ? तरह तरह के बहनों से उसने चाह कि पारो उसे डाँट पिलाये। लेकिन जब इस पर भी पारो के अंदाज़ नही बदले और वो चांट बेचने वाले छोकरों को फासले पर रखने वाली लड़की की तरह उससे चाँट खाती रही तो चन्दरूअपनी गूंगी हिमाकतों पर बहुत नादिम ( शर्मिंदा ) हुआ।

एक दफ़ा उसने बजाय पारो के खुद से हिसाब में घपला कर दिया। सवा रुपया बनता था , उसने पारो से पौने दो रूपये तलब किये। जानबूझ कर। खूब लड़ाई हुई। जम के लड़ाई हुई। बलआखिर चन्दरू ने सिर झुकाकर गलती स्वीकार कर ली और ये गोया एक तरह की पिछली तमाम गलतियों की भी माफ़ी थी। चन्दरूबहुत खुश हुआ क्योंकि पारो और उसकी सहेलियां अब फिर से उसे सताने लगी थीं।

बस उसे इतना ही चाहिए था। एक पाजेब की खनक और एक शदीद हँसी जो फुलझड़ी की तरह उसकी गूंगी , सुनसान दुनियां के वीराने को एक लम्हे के लिए रोशन कर दे। फिर जब पारो के कदम सहेलियों के कदमों में गड्डमड्ड हो के चलते जाते , वो उस पाजेब की खनक को की खनक से अलग करके सुनता था क्योंकि दूसरी लड़कियां भी चंडी की पाजेब पहनती थीं। मगर पारो की पाजेब का संगीत ही कुछ और था। वो संगीत जो उसके कानों में नही उसके दिल के किसी तन्हा तार को छेड़ देने के लिए काफी था। बस इतना ही काफी था , और वो भी बस इतने में ही खुश था।


अचानक मुसीबत नाज़िल हुई। एक दूसरे ठेले की सूरत में। क्या ठेला था ये ? बिल्कुल नया और ज़दीद डिज़ाइन था। चारों तरफ चमकता हुआ कांच लगा था , ऊपर- नीचे , दायें- बाएं। चारों तरफ लाल पीले हरे और नीले रंग के कांच थे। गैस के दो हंडे थे ( हंडे को पेट्रोमैक्स ) भी कहते हैं। जिनसे ये ठेला बहुत सुन्दर बन गया था। पत्तल की जगह चमकती हुई चीनी की प्लेटें थीं। ठेले वाले के साथ एक छोटा सा छोकरा भी था जो ग्राहक को बड़ी मुस्तैदी से एक प्लेट और एक साफ़ सुथरी नेपकिन भी पेश करता था और पानी भी पिलाता था। चाँट वाले के घड़े के गिर्द मोगरे के फूलों का हार भी लिप्त हुआ था और एक छोटा हार चाँट वाले ने अपनी कलाई पर भी बाँध रखा था। और जब वो मसालेदार पानी में गोलगप्पे डुबो कर प्लेट में रखकर ग्राहक के हाथों की तरफ सरकाता तो चाँट की करारी ख़ुशबू के साथ ग्राहक के नथुनों में मोगरे की महक भी शामिल हो जाती और ग्राहक मुस्कराकर नए चाँट वाले से गोया किसी तमगे की तरह उस प्लेट को हासिल कर लेता। और नया चाँट वाला गूंगे चाँट वाले की तरफ़ तिरछी नज़रों से देखकर जोरदार आवाज़ में कहता :

"चखिए ! "

एक एक , दो दो कर के चन्दरूके बहुत से गाहक टूट कर नए ठेले वाले के गिर्द जमा होने लगे तो भी , चन्दरू को ज्यादा परेशानी नही हुई। फिर आ जाएंगे , ये ऊंची दूकान फीका पकवान वाले कब तक चन्दरू की सच्ची , असली और सही मसालों में रची हुई चाँट का मुकाबला करेंगे ? हम भी देख लेंगे ? उसने दो एक गाहकों को नए चाँट वाले की तरफ जाते हुए कनखियों से देख भी लिया था और उसे ये भी मालुम हो गया था कि चिकनी , चमचमाती प्लेटों और होटलनुमा सरोश के बावजूद नए चाँट वाले की चाँट ज्यादा पसंद नही आ रही है।

अब वो पहले से भी ज्यादा मुस्तैद होकर अपने काम में जुट गया। यकायक उसके कानों में पाजेब की एक खनक सुनाई दी। उसका दिल जोर जोर से धड़क गया। उसने निगाह उठा के देखा। गली से पारो पाजेब खनकती अपनी सहेलियों के संग चली आ रही थी। जैसे चिड़ियाँ चहकें , ऐसे वो लड़कियां बोल रही थीं। कितनी ही बड़ी बड़ी और शोख निगाहें थीं। फ़िज़ा में अबा बैलून की तरह तैरती हुईं वो सड़क पार करके उसके ठेले की तरफ बढ़ने लगीं। अचानक पारो की निगाहें नए ठेले वाले की तरफ उठीं। वो रुक गयी। उसकी सहेलियां भी रुक गयीं। वो सांस लिए बगैर पारो की तरफ देखने लगा। पारो ने एक उचटती सी निगाह चन्दरूके ठेले पर डाली। फिर एकदम मुंह फेर लिया और एक अदा ए ख़ास से मुड़कर अपनी सहेलियों को लेकर नए ठेले वाले के पास पहुँच गई।

तुम भी ! तुम भी ! पारो तुम भी !!

                                                                                                     ​कहानी आगे ज़ारी रहेगी :

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

एकलिंगजी से श्रीनाथ जी मंदिर नाथद्वारा

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एकलिंग जी में दर्शन तो बढ़िया हुए किन्तु उन्होंने मेरे सब फोटो डिलीट कर दिए थे इसलिए थोड़ा सा गुस्सा भी था मन में ! हालाँकि गलती मेरी थी , लेकिन कोई फोटो थोड़े ही डिलीट करता है ऐसे ? अब मन नही लग रहा था वहां बिलकुल भी ! इसलिए बाहर आ गये और सीधे चाय की दुकान पर दस्तक दे दी। बिलकुल सामने ही चाय , समोसे की दुकान हैं ! मिर्ची पकोड़ा भी बढ़िया मिलता है , खाना चाहिए। कम से कम एक बार तो खाने में कोई बुराई नहीं है अन्यथा आप राजस्थान की एक फेमस चीज से वाकिफ नहीं हो पाएंगे। पेट पूजा करने के बाद अब हमारा ध्येय , हमारी मंजिल नाथद्वारा पहुंचना था।

नाथद्वारा मंदिर उदयपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है और यहां एकलिंगजी से 30 किलोमीटर। पता किया कि कैसे जाया जा सकता है , बोले बस से। सरकारी बस एक दो ही निकली होगी और पूरा एक घंटा गुजर गया। किसी ने रोकी ही नही। राजस्थान में भी ऐसा होता है ? उत्तर प्रदेश ही बहुत है ऐसे कामों के लिए। फिर वहीँ के दूकानदार ने बताया कि आप ट्रेवल्स बस को हाथ देना , जगह हुई तो वो बिठा ले जाएगा। पहली ट्रेवल्स बस आई , हाथ दिया , उसने पूछा कहाँ - मैंने कहा नाथद्वारा ! बस आगे बढ़ा ले गया। एक और आई थोड़ी ही देर बाद। बिठा लिया ! लेकिन एक ही सीट खाली थी। पत्नी को बिठा दिया। मुझे बोला -आप ऊपर बैठ जाओ। ऊपर ? कहाँ ? समझ आया। वो ट्रेवल्स की बस थी और उसमें सोने वाली सीट भी होती हैं। मैं और बड़ा बेटा उसमें ही जा घुसे। पहली बार ऐसी सीट मिली है जीवन में। असल में कभी बस में बहुत लम्बी यात्रा नहीं करी है मैंने तो स्लीपर बस का ज्ञान नहीं था। लेकिन बहुत आरामदायक लगी। दो लोगों के लिए सोने के लिए पर्याप्त जगह होती है। दो लोग अगर सामान्य हों तो , असामान्य के लिए हर जगह कम पड़ जाती है।

एकदम बढ़िया चकाचक सड़क है। मुश्किल से एक घंटा लगा होगा नाथद्वारा पहुँचने में। बस स्टैंड पर उतरकर समय देखा तो ठीक दोपहर के एक बज रहे थे। मंदिर पहुंचे , मंदिर बंद मिला। अब मंदिर 4 बजे खुलेगा। यानि तीन घंटे खराब होंगे। और नाथद्वारा में ऐसा और कुछ भी नही है कि वहां दो घंटे गुजारे जा सकें। तो अब क्या करें ? तो अब सीधा हल्दी घाटी चलते हैं। ये ठीक रहेगा। लेकिन आज कुछ बदलाव होगा। घूमा हमने पहले हल्दी घाटी था लेकिन वृतांत आपको पहले श्रीनाथजी मंदिर , नाथद्वारा का पढ़वाऊंगा।

जैसा कि मैंने पहले लिखा कि दोपहर में मंदिर बंद हो जाता है सुबह 5 बजकर 45 मिनट से शुरू होकर दर्शन दोपहर में भगवान को राजभोग खिलाने तक हो सकते हैं। राजभोग का समय 12 बजकर 10 मिनट है , उसके बाद भगवान जी , अटल बिहारी वाजपेयी जी की तरह दोपहर की नींद लेते हैं। अटल जी भी दोपहर में दो घंटे जरूर सोते थे , जब प्रधानमंत्री थे तब। अब का पता नही। फिर भगवान दोपहर बाद 3 बजकर 40 मिनट पर पुनः उपस्थित होते हैं दर्शनार्थियों के लिए। सुना तो ऐसे है कि भगवान हर समय , हर जगह उपस्थित हैं फिर ऐसे लोक सभा और राज्यसभा की कार्यवाही की तरह कैसे ? भगवान ही जानें। बीच बीच में 15 मिनट के लिए "वो " लोग भगवान को दर्शन देने के लिए मुक्त करते हैं। अलग ही व्यवस्था है। पुरुषों के लिए अलग , महिलाओं के लिए अलग प्रवेश द्वार हैं लेकिन अंदर जाकर सब एक जगह मिल जाते हैं और क्या अव्यवस्था फैलती है , राम जाने। आधे लोग तो बिना दर्शन के लिए ही लौट आते होंगे। ऐसे मारामारी फैलती है। ये अव्यवस्था असल में वहां के टोपीधारी पंडितों की बनाई हुई लगती है। पहले वो बाहर भीड़ इकट्ठी होने देते हैं फिर एकदम से दरवाजा खोलते हैं जिससे भीड़ धक्का मुक्की करती हुई आगे बढ़ती है। जैसे सर्कस चालू करने वाले हैं या कोई इंटरव्यू टेस्ट लेना है। मैंने तो नही देखा लेकिन मेरी पत्नी ने शायद देखा था कि कुछ लोगों को "दक्षिणा " लेकर बैक डोर एंट्री भी मिलती है। धंधा है ? एक अलग चीज जो मैंने वहां महसूस करी , वो ये थी कि वहां प्रांगण में सीधे हाथ पर बहुत सी दुकानें हैं , जहां आप अलग अलग चीज दान कर सकते हैं ! जैसे आप चाहें तो खाना दान करें , गायों के लिए घास दान करें या उनके खाने की कोई और चीज जैसे चोकर वगैरह ! लेकिन दूकान कोई भी खुली हुई नही थी।  संभव है सुबह के समय में खुलती हों।  श्रीनाथ जी के मंदिर में गायों की सेवा का लगा से प्रावधान किया हुआ है ! ये अच्छा है !
हमें हल्दी घाटी से लौटकर पांच बजे के दर्शन मिल गए थे। पांच बजे यानि आरती के बाद के दर्शन। अब कुछ बात हो जाए भगवन श्रीनाथ जी के मंदिर के इतिहास विषय में। बनास नदी के किनारे बसे नाथद्वारा में भगवान श्री नाथ जी ( श्री कृष्णा जी ) को समर्पित मंदिर 17 वीं शताब्दी का बना हुआ है। नाथद्वारा मतलब नाथ +द्वार यानि भगवान का द्वार। विशेषकर गुजरात में इस मंदिर को श्रीनाथ जी की हवेली के नाम से भी पुकारा जाता है। इस मंदिर के निर्माण से जुडी एक बहुत प्रसिद्द कहानी है। भगवान श्री नाथ जी वृन्दावन में विराजमान थे लेकिन उस समय औरंगज़ेब ने जो कत्लेआम और मंदिरों को ध्वस्त करने का अभियान चलाया हुआ था उसे देखते हुए राणा राज सिंह ने 1672 ईस्वी में इसे वृन्दावन से कहीं दूर ले जाने का निश्चय किया ताकि वो अपने आराध्य देव की प्रतिमा को सुरक्षित बचा सकें। लेकिन रास्ते में सिंहद गांव में एक जगह उस रथ के पहिये कीचड़ में धंस गए , जिस रथ से भगवान को दूर ले जाया जा रहा था। ये देखकर मुख्य पुजारी ने राणा को सलाह दी कि भगवान यहीं स्थापित होना चाहते हैं और वो जगह नाथद्वारा (सिंहद) थी , और इस तरह नाथद्वारा के प्रसिद्ध श्री नाथ जी मंदिर का निर्माण हुआ। स्थापत्य के नजरिया से देखें तो इस मंदिर की बनावट बहुत साधारण है,  भगवान का रूप और उनके प्रति आस्था इसे विशिष्ट बनाती है। 

मुख्य मंदिर से दर्शन करने के पश्चात बाहर निकलने का अलग से रास्ता है।  ये वास्तव में एक गैलरी है जिसके दोनों तरफ बड़े बड़े हॉल नुमा कमरे बने हैं जिनमें भगवान के विभिन्न रूपों वाली तसवीरें और मूर्तियां लगी हुई हैं।  कुछ में वहां के पुजारी अपना निवास स्थान बनाये हुए हैं। इस गैलरी के आखिर में जाकर एक बहुत बड़ा खुला मंडप है जहां शायद व्यास जी अपनी कथा , अपने उपदेश भक्तों को सुनाते होंगे।  हमारे यहां व्यास जी कथा वाचकों को कहा जाता है।  मुझे यहां के पुजारी बिलकुल अलग तरह की वेशभूषा के लगे। उनके सर पर एक अलग तरह की टोपी होती है और अंगरखा शायद वृन्दावन और मथुरा के पुजारियों से ही मिलता जुलता है।  ये शायद वैषणव संप्रदाय के पुजारियों  विशिष्ट वेशभूषा है ! मैं यहां भी एकलिंगजी जैसा हाल नहीं होते देखना चाहता था इसलिए कैमरा छुपकर ले जाने की भी हिम्मत नहीं थी। 


श्रीनाथ जी मुख्य  रूप से वल्लभ संप्रदाय ( वैष्णव संप्रदाय या पुष्टि मार्गी ) के आराध्य माने जाते हैं। वल्लभाचार्य जी के सुपुत्र श्री विट्ठल नाथ जी ने नाथद्वारा में श्रीनाथ जी की पूजा शुरू करवाई और उनके चित्र भी इस मंदिर में जगह जगह विराजमान हैं। भगवान श्री कृष्णा जी की ये मूर्ति उनके बाल्यकाल के रूप की है जब उन्होंने गोवेर्धन पर्वत उठाया था। इसलिए उनका यहां प्राम्भिक नाम "देवदमन " भी था क्यूंकि उन्होंने इंद्रा का दम्भ तोडा था। लेकिन बाद में उन्हें वल्लभाचार्य जी ने गोपाला नाम दिया और इस जगह को "गोपालपुर " कहा।  उनके पुत्र श्री विट्टल नाथ जी ने भगवान का  नामकरण किया " श्रीनाथ जी " और वो ही नाम अब प्रसिद्द है। 





आइये फोटो देखते हैं :


बस की स्लीपर सीट पर हर्षित बाबू आराम फरमा रहे हैं
बस की स्लीपर सीट पर हर्षित बाबू आराम फरमा रहे हैं

कहाँ जा के कंपनी ने अपना नाम लिखा है !! लेकिन अच्छा लगा मुझे और क्लिक

कहाँ जा के कंपनी ने अपना नाम लिखा है !! लेकिन अच्छा लगा मुझे और क्लिक
 श्रीनाथ जी का द्वार
केवल पुरुष !!





















                                                                                 आगे अब हल्दी घाटी चलेंगे ! यात्रा जारी रहेगी :

मंगलवार, 24 मार्च 2015

चन्दरु की दुनिया - तीसरी किश्त

गतांक से आगे

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सांवली पारो को उसे परेशान करने में बड़ा मजा आता था। कानों में चांदी  के बाले झुलाती , पाँव में छोटी सी पाजेब खनकाती , वो अपनी सहेलियों के साथ उसके ठेले के गिर्द हो जाती तो चन्दरु समझ जाता कि अब उसकी शामत आई है। दही बड़े की पत्तल तकरीबन चाट कर वो ज़रा सा दही बड़ा उस पर लगा रहने देती और फिर उसे दिखा कर कहती - अबे गूंगे , तू बहरा भी है क्या ? मैंने दही बड़े नहीं मांगे थे , दही पटाकरी मांगी थी। अब उसके पैसे कौन देगा ? तेरा बाप ? वो उस बड़े की पत्तल उसे दिखा कर बड़ी हिकारत से जमीन पर फैंक देती।

वो जल्दी जल्दी उसके लिए दही पटाकरी बनाने लगता। पारो उस पटाकरी की पत्तल साफ़ करके उसमें आधी पटाकरी छोड़ देती और गुस्से से कहती - इतनी मिर्च डाल  दी ! इतनी मिर्ची ? चाट बनाना नहीं आता तो ठेला लेकर इधर क्यों आता है ? ले अपनी पटाकरी वापस ले ले ! इतना कहकर वो दही और चटनी की पटाकरी अपने नाखून की नोंक में फँसा कर उसके ठेले पर घुमाती। कभी उसे झूठी पटाकरियों के थाल में वापस डाल देने की धमकी देती। उसकी सहेलियां हँसती , तालियां बजाती। चन्दरु दोनों हाथों से नायं नायं के इशारे करता हुआ पारो से अपनी झूठी पटाकरी जमीन पर फैंक देने का इशारा करता। अच्छा समझ गयी ! तेरे चने के थाल में डाल दूँ ? वो जान बूझकर उसका इशारा गलत समझती। जल्दी जल्दी घबराये हुए अंदाज़ में चन्दरु जोर जोर से सिर हिलाता फिर जमीन की तरफ इशारा करता। पारो खिलखिलाकर कहती : अच्छा जमीन से मिटटी उठाकर तेरे दही के बर्तन में डाल दूँ ? पारो नीचे जमीन से थोड़ी सी मिटटी उठा लेती। इस पर चन्दरु और भी घबरा जाता। दोनों हाथ जोर से हिलाकर मना करता। बलआखिर पारो उसे धमकाती। तो चल जल्दी से आलू की टिकियां तल दे। और खूब गरम गरम मसाले वाले चने देना और अदरक भी। नहीं तो ये पटाकरी अभी जायेगी तेरे काले गुलाब जामुन के बर्तन में ....…… . चन्दरु खुश होकर पूरी बत्तीसी निकाल देता। माथे पर आई हुई एक घुंघराली लट पीछे को हटा के तौलिये से हाथ पौंछ के पारो और उसकी सहेलियों के लिए आलू की टिकिया तलने में मसरूफ हो जाता।

फिर कभी कभी पारो भी हिसाब में भी घपला किया करती। साठ पैसे की टिकिया , तीस पैसे की पटाकरी , दही बड़े तो मैंने मांगे ही नही थे इसलिए पैसे क्यों मिलेंगे तुझे ....... ? हो गए नब्बे पैसे , दस पैसे कल के बाकी हैं तेरे ...………। ले एक रुपया ! गूँगा चन्दरु पैसे लेने से इंकार करता। वो कभी पारो की शोख चमकती हुई आँखों को देखता , कभी उसकी लम्बी लम्बी उँगलियों में  कंपकपाते एक रुपये के नोट को देखता और सिर हिलाकर इंकार कर देता और फिर हिसाब समझाने बैठता। वो वक्त क़यामत का होता था जब वो पारो को हिसाब समझाता था। दही बड़े के थाल की तरफ इशारा करके अपनी ऊँगली को मुंह पर रख कर चप चप की आवाज़ पैदा करते हुए गोया उससे कहता - दही बड़े खा तो गयी हो , उसके पैसे क्यों नहीं दोगी ? " तीस पैसे दही बड़े के भी लाओ " वो अपने गल्ले में से तीस पैसे निकाल के पारो को दिखाता। इस पर पारो फ़ौरन चमक कर कहती " अच्छा तीस पैसे मुझे वापस दे रहे हो "? लाओ ………………… . ! इस पर चन्दरु फ़ौरन अपना हाथ वापस खींच लेता 'नहीं ' ! इनकार में वो सिर हिलाकर पारो को समझाता। मुझे नहीं तुम्हें देने होंगे ये तीस पैसे। वो अपनी ऊँगली पारो की तरफ बढ़ाकर इशारा करके कहता। इस पर पारो फ़ौरन उसे धमकाती : " अबे अपना हाथ पीछे रख। ………… नही तो मारूंगी चप्पल।"  इस पर चन्दरू घबरा जाता। पारो की डांट से लाजवाब होकर बिलकुल बेबस होकर मजबूर और खामोश  निगाहों से पारो की तरफ देखने लगता कि उस पर पारो को रहम आ जाता और पारो जेब से पूरे पैसे निकालकर उसे दे देती। तू बहुत घपला करता है हिसाब में , कल से तेरे ठेले पर नही आउंगी। मगर दूसरे दिन फिर आ जाती जाती। उसे चन्दरु को छेड़ने में मजा आता था। और अब चन्दरु को भी मजा आने लगा था। जिस दिन पारो नही आती थी , हालाँकि उस दिन भी चन्दरु की गाहकी में कोई फर्क  पड़ता था मगर जाने क्या बात थी चन्दरु को वो दिन सूना सूना लगता था। 
जहां पर उसका ठेला रखा था , वो उसके सामने एक गली से आती थी।  पहले पहल चन्दरु का ठेला बिल्कुल  यूनियन बैंक के सामने नाके पर था। हौले हौले चन्दरु अपने ठेले को खिसकाते खिसकाते पारो की गली के बिलकुल सामने ले आया।  अब वो दूर से पारो को अपने घर से निकलते देख सकता था।  पहले दिन जब उसने ठेला यहां लगाया था तो पारो ठेले की बदली हुई जगह देखकर कुछ चौंकी थी।  कुछ गुस्से से भड़क गयी थी।   अरे तू नाके से इधर क्यों आ गया गूंगे ? गूंगे चन्दरु ने टेलीफोन एक्सचेंज की ईमारत की तरफ इशारा किया।  जहां वो अब तक ठेला लगाता आ रहा था।  उधर केबल बिछाने के लिए जमीन खोदी जा रही थी और बहुत से काले काले पाइप रखे हुए थे।  वज़ह माकूल थी , पारो लाजवाब हो गयी।  फिर कुछ नही बोली।   लेकिन जब केबल बिछ गयी और जमीन की मिटटी समतल कर दी गयी तो  भी चन्दरु ने अपना ठेला नहीं हटाया।  तो भी वो कुछ नही बोली।  हाँ , उसके चंचल स्वभाव में एक अजीब सी तेज़ी आ गयी।  वो उसे पहले से ज्यादा सताने लगी !


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                                                                                                 कहानी आगे ज़ारी रहेगी :

गुरुवार, 19 मार्च 2015

उदयपुर से एकलिंगजी

अगर आप उदयपुर का यात्रा वृतांत पढ़ना चाहें तो यहां क्लिक कर सकते हैं !!


पूरा एक दिन उदयपुर में व्यतीत करने के बाद जब लगा कि अब ऐसी कोई महत्वपूर्ण जगह देखे बिना नहीं रही है तो वापस होटल लौट लिए ! होटल बस स्टैंड के सामने वाली रोड पर था अम्बा पैलेस ! लौटते लौटते आठ बज गए ! अब खाने का भी समय था ! पूरा दिन इधर उधर घूमते हुए जो कुछ मिला था , वही खाकर काम चला लिया था तो अब खाना ही खाना था ! बस स्टैंड के पास में ही एक बढ़िया सा खाने का स्थान दिखाई दिया , शानदार नाम था शायद उसका ! बढ़िया जगह लगी ! हमारे लायक ! 130 रुपये की थाली ! राजस्थानी ले लो या गुजराती ! 20 रुपये का पराठा ! कुल मिलाकर सस्ता और बेहतर ! इतना थक चुके थे और इतना खा लिया था कि ऐसा लगा कि अब बस होटल पहुंच जाएँ ! यही हुआ ! जाते ही बिस्तर पर पड़ गए ! ऐसे हालत में , जब आप सुबह से ही घूम रहे हैं सबकी हालत यही हो जाती है ! लेकिन सोने से पहले कल का प्रोग्राम जरूर बना लिया था !

जैसा कि अक्सर होता है , कार्यक्रम के अनुसार हमें आठ बजे होटल से निकल जाना था लेकिन जनवरी के मौसम में बच्चों के साथ आठ बजे जागना ही बहुत मुश्किल हो जाता है , तैयार होकर निकलना तो बहुत बड़ी बात हो जाती है ! खैर जैसे तैसे 9 बजे हम होटल से निकलकर बस स्टैंड पहुंचे ! नाश्ता किया और फिर बस के विषय में जानकारी ली ! आजकल टेक्नोलॉजी ने बहुत से काम आसान कर दिए हैं ! ट्रेन के विषय में कुछ पता करना हो , ऍप्स है न ? बस के विषय में कुछ जानना हो , ऍप्स है न !! लेकिन छोटी छोटी बातों के लिए एप्प रखना मुझे पसंद भी नही और शायद जरुरत भी नही ! पूछताछ खिड़की सामने हो और आप एप्प यूज़ करें ? एकलिंगजी जाने के बारे में पता किया तो उसने तुरंत टिकेट काट दी ! दो टिकट थे ! अभी बच्चों को मुफ्त ही चला रहा हूँ ! हालाँकि एक छह साल का हो गया है ! एक टिकट 22 रुपये का और दूसरा 16 रुपये का ! अंतर इस वजह से क्योंकि राजस्थान में महिलाओं को बस में 30 प्रतिशत की छूट मिलती है !! टिकट एकलिंगजी के नाम से नहीं बनता बल्कि कैलाशपुरी के नाम से बनता है ! वहां के स्थानीय लोग भी उस जगह को कैलाशपुरी ही कहते हैं , एकलिंगजी हमारे और आपके लिए है ! उदयपुर से नाथद्वारा जाने वाली रोड पर उदयपुर से करीब 22 किलोमीटर दूर !

भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर को सिसोदिया शासकों ने सन 971 में बनवाना शुरू किया ! एकलिंगजी यानि भगवान शिव मेवाड़ राज्य के आराध्य देव माने जाते हैं ! ये एक तरह का काम्प्लेक्स है जिसमें 108 छोटे बड़े मंदिर हैं ! आज का जो रूप इस मंदिर का है वो 15 वीं शताब्दी का है ! छोटे छोटे मंदिरों को मंडप के रूप में बनाया गया है ! बाहर से देखने पर ऐसा लगेगा मानो ये कोई खँडहर होगा लेकिन जब दरवाजे से अंदर जाते हैं तो इसका एक भव्य रूप दिखाई देता है ! बाहर का दरवाज़ा ऐसा है जैसा आमतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँवों में बड़े बड़े घरों में होता है यानि हवेलियों में ! लकड़ी का बहुत बड़ा सा दरवाज़ा, ऊपर की तरफ से थोड़ा सा अर्धवृत्ताकार ! अंदर का मुख्य मंदिर पुराने रूप की स्थापत्य कला का बेहद बेहतरीन नमूना है ! इस मंदिर में भगवान शिव चार चेहरे के साथ विराजमान हैं ! इसी काम्प्लेक्स में भगवान लकुलीश को समर्पित भारत का एक मात्र मंदिर भी स्थित है किन्तु उसे आजकल श्रद्धालुओं और दर्शनार्थियों के लिए बंद कर दिया गया है , क्यों ! मुझे नहीं मालुम ! ये इस काम्प्लेक्स के बिलकुल पीछे की ओर स्थित है जिसे आप देख तो सकते हैं किन्तु वहां जाकर भगवान के दर्शन नहीं कर सकते !

एकलिंगजी भगवान के दर्शन करने में तो जो आनंद आया वो बयान नहीं किया जा सकता ! भगवान की मूर्ति पांच दरवाज़ों के अंदर रखी हुई है ! पहला कमरा खाली , दूसरा और तीसरा भी खाली और चौथे में भगवान विराजमान हैं पांचवां फिर खाली ! ये शायद खाली कमरे वहां के पुजारियों के काम आते होंगे ! चौथे में भगवान को विराजमान किया हुआ है ! दर्शन करने में बहुत ज्यादा भीड़ भाड़ यानि 27 जनवरी को तो नहीं मिली ! आराम से दर्शन किये , प्रसाद लिया और थोड़ी देर बैठे भी ! मंदिर की स्थापत्य को देखने और उसकी खूबसूरती को निहारने के लिए। मुख्य द्वार पर चौखट के तीनों तरफ चांदी लगाईं हुई है जिससे उसकी खूबसूरती और भी बढ़ जाती है ! मूर्ति के ऊपर भगवान को पञ्च स्नान कराने के लिए एक छतरी लगा रखी है , ये प्रयोग मुझे बहुत ही पसंद आया ! मथुरा में बांके बिहारी मंदिर में शायद बाल्टी से भगवान को स्नान करवाते हैं !

एकलिंगजी जी के दर्शन करने के पश्चात इधर उधर के फोटो लेने लगा ! हालाँकि वहां स्पष्ट लिखा है कि फोटो लेना सख्त मना है और वो कैमरा वहीं लॉकर में रखवा लेते हैं लेकिन मैंने सिक्योरिटी वाले की नजर से बचा के छोटा कैमरा अपनी पॉकेट में रख लिया था ! मैं सिक्योरिटी वालों की नज़रों से बचके फोटो खींचता रहा और बहुत फोटो खींच भी लिए थे ! कैमरा वापस अपनी जेब में रख लिया ! सिक्योरिटी वालों ने मुझे देख भी लिया था और एक बार मना भी किया था ! लेकिन 15 फोटो खींचने के बाद जैसे ही मैंने एक फोटो और ली , एक सिक्योरिटी वाला मेरे पास आया और बोला आप मान नही रहे हैं , आप कैमरा दीजिये अपना ! मैंने उसे कहा -मेरे पास कैमरा है ही नहीं ! लेकिन वो मुझे मुन्तजिम कार्यालय ( कंट्रोल ऑफिस ) ले गया और वहां मेरे  द्वारा खींचे गए एकलिंगजी के सब फोटो डिलीट करा दिए ! नालायक !! मेरा भी लालच था अन्यथा अगर मैं एक फोटो और न खींचता तो शायद पकड़ा भी न जाता ! इसलिए एकलिंगजी के जो भी फोटो आपको यहां मिलेंगे वो सब इंटरनेट से एकत्रित किये हुए हैं या मेरी पत्नी ने लिए हैं अपने मोबाइल से ! क्षमा चाहूंगा !

इसी मंदिर के पीछे महाराणा रायमल द्वारा 1473 से लेकर 1509 तक बनवाए गए कई मंदिर और भी हैं और एक महल भी है ! इनमें से सिर्फ एक ही में भगवान शिव की मूर्ति स्थापित है !

आइये कुछ फोटो देखते हैं इसके बाद नाथद्वारा चलेंगे !!


बाहर से देखने पर एकलिंगजी मंदिर किसी ग्रामीण इलाके का मंदिर लगता है








सड़क के ऊपर महल
एकलिंग जी के पीछे भी मंदिर और खंडहरनुमा महल हैं लेकिन शायद 100 में से 10 लोग भी उधर नहीं जाते
एकलिंग जी के पीछे के  मंदिर
एकलिंग जी के पीछे के  मंदिर

ये कभी महल रहा होगा , आज खंडहर है

ये कभी महल रहा होगा , आज खंडहर है
एक नमूना ये भी देखिये!
इसे नाला कहियेगा या महल का दरवाज़ा
ये भी एक महल है और इसके बाशिंदे कभी कभी यहां आते हैं
पीछे की तरफ से खींचा गया एकलिंग जी मंदिर का चित्र
पीछे की तरफ से खींचा गया एकलिंग जी मंदिर का चित्र

और ये एक लंगूर , दिख रहा है ? 




                                                                                     आगे यात्रा आगे भी जारी रहेगी  : 




सोमवार, 9 मार्च 2015

उदयपुर रोप वे और दीनदयाल उपाध्याय पार्क

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सिटी पैलेस और जगदीश मंदिर देखते हुए जब सूरज अपनी ड्यूटी पूरी करके वापस अपने घर अपने बीवी बच्चों के पास जाने की तैयारी करने लगा तब हमें भी याद आया कि अभी तो हमें रोप वे और पंडित दीनदयाल उपाध्याय पार्क भी जाना है ! ऑटो वाले ने अपना ऑटो जगदीश मंदिर के सामने वाले पोल में खड़ा कर लिया था ! उससे बात करी तो वो फोन पर ही चिल्ला चिल्ला कर कहने लगा - सर सामने देखिये , सामने ही हूँ ! कई बार देखा ! नहीं दिखा ! सर सामने , सामने वाले पोल में ! दिख गया ! मैंने पूछा -यहां ऐसे छुप के क्यों बैठे हो ? बोला सर , पुलिस वाले चालान काट देते हैं इसलिए यहां अंदर की तरफ ही हूँ ! उसने जहां अपना ऑटो लगा रखा था उसके ही बिल्कुल सामने चाय समोसे की दूकान भी थी ! खाना तो खाया ही नहीं था , बस ऐसे ही बीच बीच में कुछ खाकर काम चल जा रहा था , और सच बात तो ये है कि हमें भूख लग भी नहीं रही थी ज्यादा ! बस चाय पीने का ही मन था। अंदर घुस गए ! अंदर नमक पारे जैसी कोई चीज थी , 10 रुपये की 100 ग्राम ! ले ली ! सच में अच्छी थी ! बाहर ऑटो वाला खड़ा था उसे भी अंदर ही बुला लिया , भाई तुम भी चाय पी लो ! पहले तो कुछ सकुचाया ! जब मैंने कहा कि पी लो तुम्हारे पैसों में से कम नहीं होंगे , तब थोड़ा सा मुस्कराता हुआ अंदर आ गया और अपनी चाय बाहर ही ले गया ! चाय ख़त्म करते ही अब हमारी मंजिल सीधा मंशा पूर्ण करनी देवी मंदिर तक जाने की थी। मनसा पूर्ण करनी देवी मंदिर एक ऊँची सी पहाड़ी पर है ! जहां तक गंडोला ( रोप वे ) से जाते हैं ! हालाँकि जब तक रोप वे नहीं बना था तब तक लोग शायद सीढ़ियों से जाते होंगे। ये सीढ़ियां रोप वे की ट्राली से नजर आती है और एक आध आदमी इनपर से ऊपर जाता हुआ भी दिखाई दे जाता है ! चौड़ी लगती है और शायद एकदम साफ़ सुथरी भी ! इसका मतलब इनका उपयोग अभी जारी है !


जग मंदिर दूर से देखते हुए पिछोला झील के किनारे किनारे से ऑटो वाले ने बमुश्किल 10 मिनट में हमें रोप वे के पास पहुंचा दिया ! रोड के किनारे ही एक छोटी सी दूकान है कन्फेक्शनरी की जहां चॉकलेट वगैरह ज्यादा बिकते हैं , उसी के एक कोने में छोटा सा केबिन बनाया हुआ है रोप वे के टिकेट बेचने के लिए। वयस्क के लिए 78 रुपये का ! मैंने ढाई टिकट लिया , सोचा कि छोटे बेटे का तो शायद फ्री चल जाएगा ! अभी चार ही साल का तो है ! टिकट लेकर दुकान के बराबर से ही नीचे की तरफ से रोप वे स्टैंड तक जाने के लिए रास्ता है । नीचे पहुंचे , हमारा नंबर स्क्रीन पर आने लगा तो उसने टिकट चेक किया , बोला आधा टिकट और लेना पड़ेगा आपको। क्यों भाई ? अभी तो ये पांच साल का भी नहीं हुआ !! उसने फिर बताया कि उम्र से नहीं बच्चे की हाइट से टिकट का निर्धारण होता है , 110 सेंटीमीटर की हाइट से ज्यादा के बच्चे का आधा टिकट लगता है ! ओह ! फिर दोबारा गया टिकट लेने , और फिर दोबारा लाइन में लगा ! बच्चे का 39 रूपये टिकट लगता है , पूरे चालीस ही हो जाते हैं ! एक रुपये की टॉफ़ी पकड़ा देगा। ये अच्छा धंधा चल पड़ा है आजकल , जिसके पास खुले पैसे नहीं होते वो 1 -2 रुपये की या तो टॉफ़ी पकड़ा देता है या माचिस दे देता है ! इसी को लेकर एक सच की कहानी मेरे पड़ोस में हुई थी। आज नहीं फिर कभी सुनाऊंगा !


जून 2008 में शुरू हुआ उदयपुर का रोप वे घूमने वालों के लिए एक अच्छा स्थान बन गया है। आने जाने का दोनों तरफ का किराया इस 78 रूपये में ही शामिल है ! रोप वे इधर से ले जाकर उधर करनी माता के मंदिर तक ले जाती है ! हालाँकि मुख्य मंदिर के लिए थोड़ा सा और चलना पड़ता है ! लेकिन इस 10 मिनट के सफर में बहुत रोमांच आ जाता है ! एक ट्राली में छह लोग आ जाते हैं। सामने की सीट पर तीन और लोग बैठे थे ! थोड़ी देर बाद उनमें से एक ने मुझे पूछा - आप आई.बी. में हैं ? मैंने कहा नहीं ! मैं इंजीनियरिंग कॉलेज में हूँ ! लेकिन आप ऐसे क्यों पूछ रहे हैं ? आपकी जैकेट पर पीस ऑफिसर लिखा है ! ओह ! घंटोली आदमी था। ऐसे किसी की जैकेट पर मोदी लिखा होगा तो वो नरेंद्र मोदी हो जाएगा ?


करनी माता मंदिर ऐसे तो बीकानेर में है जो बहुत प्रसिद्द भी है किन्तु उसी का एक रूप यहां भी बन रहा है ! अभी दान की अवस्था में है ! दान की अवस्था में , मतलब दान आएगा तो काम चालू रहेगा ! करनी माता का मंदिर हो और चूहे न हों , ऐसा कैसे हो सकता ? दान की पेटी रखी हो तो धर्म के लिए कुछ दान कर भी देना चाहिए। मैंने भी कर दिया। इसी मंदिर से आगे एक दरगाह भी है ! किसकी है मालूम नहीं ! दरगाह में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं होती इसलिए मैं अंदर भी नहीं जाता। नीचे एक रास्ता और भी जाता है , इसी रास्ते के अंत में एक खँडहर सा है। दरवाज़ा तो खुला था मगर अंदर नही जा पाया लेकिन जब उसे ऊपर से देखा तो उसका आँगन दिखाई दे रहा था जो एकदम गंदा , बीट से भरा पड़ा था ! उसके बरामदे से लग रहा था कि वो शायद किसी का अधूरा महल रहा होगा ! न इसके विषय में वहां किसी को पता था और न ही कोई पट्टिका दिखाई दी जिससे कुछ पता चल पाता !


जब करनी माता मंदिर से इधर उतरकर आते हैं तो पास में ही पंडित दीन दयाल उपाध्याय पार्क है ! यहां पंडित जी की जो मूर्ति लगी है उसका उद्घाटन राजयपाल कल्याण सिंह ने किया है , इसका मतलब ये अभी हाल ही में लगी है ! क्यों अभी हाल ही में कल्याण सिंह जी राजस्थान के राजयपाल बनाये गए हैं ! अच्छी जगह है , विशेषकर बच्चों के लिए ! और बड़ी बात ये कि फ्री है ! उदयपुर में फ्री होना बड़ी बात है !

इस पोस्ट के साथ हम उदयपुर की यात्रा ख़त्म करेंगे और अब आगे एकलिंगजी चलेंगे अगले दिन :


केबल कार प्रतीक्षा स्थल
केबल कार सेट अप

केबल कार वो आई
केबल कार अभी दूर है
आ रही है



आ गयी

आ गयी


आ गयी




केबल कार से खींचे चित्र

केबल कार से खींचे चित्र

केबल कार से खींचे चित्र



बीच में दिखाई देता जगमंदिर


करणी माता मंदिर













मंदिर को पूर्ण करने के लिए और भी सामान की जरुरत पड़ेगी


वापस चलते हैं

दीन दयाल उपाध्याय पार्क

दीन दयाल उपाध्याय पार्क
सूर्यास्त के दर्शन

कुछ मौज मस्ती हो जाए

कुछ मौज मस्ती हो जाए

कुछ मौज मस्ती हो जाए









अब रात हो चली है ! होटल वापस चलते हैं


                                                                                     यात्रा जारी है :