रविवार, 19 अप्रैल 2020

Jain Statues in Gwalior

Jain Statues in Gwalior 

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Date of Journey : 03 Dec.2019 



मैंने ग्वालियर में पूरा एक दिन गुजारा और फोर्ट के अलावा और भी बहुत कुछ देखा। लेकिन जो सबसे बेहतरीन जगह लगी , उसका कहीं भी दिमाग में कोई खाका तैयार नहीं था। बस नाम सुना था उस जगह का और सच मानिये वहां जाने का कोई विचार नहीं था। वो तो मैं और जैन साब मस्ती में घूमते चले जा रहे थे तो एक जगह चाय पीते हुए जैन साब बोले -योगी जी ! चलिए आपको बहुत बेहतरीन जगह दिखाता हूँ जो वैसे तो जैन मुनियों की प्रतिमाओं के लिए जानी जाती है लेकिन आप देखेंगे तो आपको भी पसंद आएगी। चाय बड़े छोटे कप में मिली थी , दोबारा फिर से पिएंगे एक -एक कप और ! फिर चलेंगे आगे


चाय का दूसरा कप भी सुपुड -सुपुड होते हुए अपने अंतिम समय में जा पहुंचा था और उधर रितेश जी से भी बात हो चुकी थी। जैन साब और मैं , सासबहू मंदिर देखने के बाद उनकी बताई हुई जगह जाने वाले थे। सासबहू मंदिर की बातें आप पहले पढ़ चुके हैं तो अब चलते हैं जैन मुनियों की शानदार , आदमकद और अदभुत कला का साहकार कही जाने वाली पवित्र भूमि -गोपांचल पर्वत। गोपांचल पर्वत ही वो पहाड़ी है जिस पर ग्वालियर का फोर्ट बना हुआ है। मैं कहूंगा कि अगर जैन साब मुझे ये जगह न दिखाते तो मैं बहुत कुछ ऐसा देखने से वंचित हो रहता जिसे जरूर -जरूर देखा जाना चाहिए। हालाँकि मैं शाम होने की वजह से पूरा अंचल नहीं देख पाया लेकिन इस जगह ने मुझे फिर से एक बार और ग्वालियर जाने की वजह दे दी। जब भी जाऊँगा सबसे पहले यहीं जाऊंगा। 

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अब से पहले मैंने केवल हिमाचल प्रदेश के मसरूर में रॉक कट टेम्पल देखा है लेकिन उसमें और यहाँ में बहुत अंतर है। वहां एक बड़ा सा मंदिर है लेकिन यहां 1500 से ज्यादा मूर्तियां एक ही साथ हैं। हालाँकि दोनों की सुंदरता देखते ही बनती है और मूर्तियां बनाने वालों के कौशल और उनकी योग्यता को नमन करने का मन करता है। मेरा देश ऐसे ही महान नहीं बना , इसको महान बनाने में सिर्फ कुछ गिने चुने नाम नहीं बल्कि हर उस प्राणी का योगदान है जिसने इस धरती को अपना माना। 

गोपाचल पर्बत की इन जैन मुनियों की प्रतिमाओं को पहाड़ियों को काट -काटकर बनाया गया है। ग्वालियर किले की प्राचीरों और चहारदीवारों में बनी ये प्रतिमाएं अलग-अलग कालखंड में बनी हैं। अगर पूरा समय समायोजित किया जाए तो 7वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी के बीच इन प्रतिमाओं को उकेरा गया और अलग -अलग जगह से मंगवाकर यहाँ स्थापित किया गया। इन प्रतिमाओं में जैन तीर्थंकरों को बैठने की स्थिति यानी पद्मासन के साथ -साथ खड़े होने की स्थिति (कायोत्सर्ग ) में दिखाया गया है। यहाँ एक ही स्थान पर जितनी मूर्तियां हैं उतनी शायद और कहीं नहीं हैं। 1500 मूर्तियां कम नहीं होतीं ! और यही एक कारण भी रहा जिसकी वजह से मुझे यहाँ दोबारा जाने की इच्छा है क्यूंकि मैं सभी मूर्तियों को एक -एक करके जीभर देखना चाहता हूँ , महसूस करना चाहता हूँ , फोटो लेना चाहता हूँ और वीडियो भी बनाना चाहता हूँ।



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इन 1500 मूर्तियों को इनके क्लस्टर के हिसाब से पांच प्रखंडों में विभाजित किया जा सकता है। अगर आप 1901 के ग्वालियर का मैप देखेंगे तो आपको ऐसा लगेगा जैसे पूरा फोर्ट चारों तरफ से इन प्रतिमाओं से सुसज्जित किया गया हो ! 

एक पत्थर की बावड़ी ग्रुप : दक्षिण -पूर्व के इस क्लस्टर को शुरुआत में -एक पत्थर की बावड़ी ग्रुप कहा जाता था जिसे आजकल "गोपाचल अतिशय क्षेत्र " कहा जाता है। इस क्लस्टर में लगभग 500 मीटर की रेंज में एक ही लाइन में 26 caves हैं जिनमें से 13 में 1468 से 1473 ईस्वी अंकित है। ये जगह दीनदयाल सिटी मॉल की तरफ से एकदम नजदीक पड़ती है।

त्रिशलागिरि : फोर्ट के दक्षिण -पश्चिम भाग में स्थित त्रिशलागिरि , उरवाई गेट के अंदर की ओर हैं। ग्वालियर तो वैसे भी जैन मतावलम्बियों का प्रमुख केंद्र माना जाता है जहां गुप्तकालीन जैन धर्म से सम्बंधित विवरण मिलते रहे हैं। 

उरवाई ग्रुप : ज्यादातर लोग इसी रास्ते से फोर्ट देखने जाते हैं जहां से रोड बनी हुई है और लोग सीधे अपने व्हीकल्स से फोर्ट देखने जाते हैं। इसके दोनों तरफ जैन मुनियों की प्रतिमाएं बनी हुई हैं। हम भी इन्हें ही देख पाए और इन्हीं प्रतिमाओं के चित्र ले पाए और एक छोटा सा वीडियो भी बनाया था। मैंने तो नहीं देखा लेकिन लोग ऐसा कहते हैं कि इन प्रतिमाओं को 1440 -1453 ईस्वी के बीच में बनाया गया है।

नामिनाथ गिरी ग्रुप : ग्वालियर फोर्ट के उत्तर-पश्चिम हिस्से में स्थित ये ग्रुप भगवान नामिनाथ जी को समर्पित है। मैं यहाँ तक नहीं पहुंचा हूँ अभी तक लेकिन कहते हैं कि यहाँ पहुँच पाना थोड़ा कठिन था इसीलिए बाबर की बुरी नज़रों से ये जगह बची रह गयी और यहां की मूर्तियां अपने मूलरूप में स्थित हैं जबकि अन्य जगहों पर स्थित मूर्तियों को खण्डित किया गया था।

नैमगिरी : किले के उत्तर-पूर्व में अवस्थित मूर्तियों के ग्रुप को नैमगिरी कहा जाता है जिसे ये नाम तीर्थंकर नेमीनाथ जी के नाम से मिला है।


गोपाचल पर्वत के साथ-साथ सिद्धांचल पर्वत में भी जैन मूर्तियां मिलती हैं। दोनों में से गोपाचल पर्वत की मूर्तियां ज्यादा पुरानी कही जाती हैं। दोनों ही जगह की बहुत सी मूर्तियों को बाबर ने 1527 में खण्डित करा दिया था। बाद में फिर इन मूर्तियों को संशोधित और बेहतर किया गया। 

इन मूर्तियों में श्री आदिनाथ जी की एक मूर्ति तो करीब 57 फुट ऊँची है जिसे मैं भी देख पाया। इनमे से ज्यादातर मूर्तियों का निर्माण तोमर वंश के राजा डूंगर सिंह और कीर्ति सिंह (1341-1479) के काल में हुआ था। यहां पर एक भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन मुद्रा में बहुत ही सुंदर और चमत्कारी मूर्ति है।


तोमर शासकों के पास ग्वालियर फोर्ट 1517 तक रहा और उसके बाद बाबर के कब्जे में चला गया। बाबर ने भी 1527 ईस्वी में वही किया जो लगभग सभी मुस्लिम शासकों ने किया था । उसने सैकड़ों मूर्तियों को तहस नहस कर डाला। उरवाई गेट और एक पत्थर की बावड़ी लगभग खत्म कर दिए। हालाँकि कुछ मूर्तियां बाबर से बची रह गयीं क्यूंकि उसके सैनिक उन तक पहुँच नहीं पाए। 



खैर ! एक बेहतरीन खजाना मिल गया मुझे और जैसा मैंने कहा कि मुझे एक और बहाना मिल गया है फिर से ग्वालियर की सैर करने का ! इस बार इस जगह को पूरा समय दूंगा और एक -एक मूर्ति की फोटो आप तक पहुंचा पाया तो मुझे प्रसन्नता होगी। चलिए जल्दी ही मिलेंगे तेली मंदिर में। .. तब तक आप सभी को हाथ जोड़कर राम राम !! 

















आप चाहें तो इन जैन प्रतिमाओं का एक बहुत छोटा सा वीडियो भी देख सकते हैं : https://www.youtube.com/watch?v=476JiSAGLV8

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

Sas-Bahu Mandir : Gwalior

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Date of Journey : 03 Dec.2019 


ग्वालियर को जी भर के देखने के लिए एक दिन पर्याप्त नहीं है लेकिन हाँ , कुछ जगहों पर विशेष फोकस और कम महत्व वाली जगहों पर पाला -छूने की ट्रिक अपनाने से संभवतः आप ग्वालियर के सभी स्थानों को घूम सकते हैं। मेरी ग्वालियर घूमने की भूख शांत नहीं हुई है , हाँ ! कुछ संतुष्टि जरूर मिली है। अभी मैं सिर्फ जैन मुनियों की मूर्तियों को फिर से , मन भर के देखने के लिए जाना चाहता हूँ। फिर से जाना चाहता हूँ श्योपुर वाली ट्रेन से यात्रा करने के लिए फिर से एक दिन जाना चाहता हूँ। फिर से जाना चाहता हूँ कचौड़ी और पोहा खाने के लिए। इसके अलावा ऐसा कुछ नहीं रहा जो मैं देखना चाहता था लेकिन देख नहीं पाया ! बहुत ही व्यस्त और बहुत ही मस्त दिन रहा 03 दिसंबर 2019 मेरे लिए। पहले शरद जैन जी , फिर विकास नारायण श्रीवास्तव और शाम होते -होते रितेश गुप्ता जी से मुलाकात ने इस दिन को विशिष्ट और यादगार बना दिया था।



बंदी छोड़ गुरूद्वारे से निकलकर एक-एक कप चाय के लिए मैं और शरद जी एक टपरी पर थे जब रितेश जी का पता चला कि वो भी फोर्ट काम्प्लेक्स में ही मौजूद हैं। हालाँकि इतना मालुम था कि वो आगरा से ग्वालियर आये हुए हैं किसी शादी समारोह में। इतने बड़े ब्लॉगर से मुलाक़ात का लालच कैसे छोड़ पाते हम ? आखिर उन्हें सासबहू मंदिर के प्रांगण में पकड़ ही लिया उनकी धर्मपत्नी जी के साथ। सास-बहु मंदिर का ग्वालियर ही क्या भारत में ही कहीं होना गले से नीचे नहीं उतरता ! जिस देश में सास ने बहु को दहेज़ के लिए जिन्दा जलाया हो ! कभी बेटी का दर्जा न दिया हो ! उस देश में सास -बहु का मंदिर होना , उनके प्रेम को तो नहीं व्यक्त कर सकता ? हाँ अब व्यवस्थाएं , मान्यताएं। सोच और मानसिकताएं बदली हैं लेकिन ये मंदिर आज के नहीं हैं। ये 11 वीं शताब्दी के हैं। 

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सास-बहु , सहस्त्रबाहु मंदिर या हरिसदनम मंदिर एक ही मंदिर के नाम हैं। नहीं -नहीं एक नहीं ये दो मंदिर हैं जो राजा महिपाल ने 11 वीं शताब्दी में बनवाये हैं। हाँ ये कहानी सच लगती है कि इनमें से एक मंदिर राजा की महारानी ने बनवाया जो विष्णु भक्त थीं और इस मंदिर में भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित की। इस मंदिर को सहस्त्रबाहु (Thousand Arms ) मंदिर कहा गया। ये मंदिर दूसरे वाले मंदिर से कुछ बड़ा भी है। आखिर सास ने बनवाया था तो बड़ा होना भीचहिये था क्यूंकि सास , हमेशा ही बहु से कद और पद में बड़ी होती है। दूसरा मंदिर कुछ छोटा है जिसे महाराजा महिपाल की पुत्रवधु ने बनवाया जो शिवभक्त कही जाती थीं। हालाँकि मंदिर देखने पर लगता है कि मंदिर की दीवारें विष्णु , शिव , ब्रह्मा , सरस्वती और अन्य देवी -देवताओं की सुन्दर प्रतिमाओं से सुसज्जित हैं । मंदिर की दीवारों पर वैष्णव , शैव और शक्ति से सम्बंधित विभिन्न प्रतिमाओं और उनसे सम्बंधित परम्पराओं को बहुत ही सुन्दर रूप में उकेरा गया है। इन मंदिरों में भगवान विष्णु को पदमनाभन के रूप में विराजमान किया गया है जो इस क्षेत्र के जैन और हिन्दू मंदिरों की विशेषता कही जाती है। भगवान श्री कृष्ण से सम्बंधित विभिन्न लीलाओं को भी दीवारों पर बने चित्रों-प्रतिमाओं के माध्यम से व्यक्त किया गया है। 

ग्वालियर फोर्ट के अंदर जाते समय आपको एक टिकट लेना पड़ता है। सास-बहू मंदिर के लिए अलग से टिकट नहीं लगता बल्कि उसका टिकट भी इस फोर्ट वाले टिकट में ही शामिल रहता है। बड़े मंदिर में (जिसे सास मंदिर भी कहते हैं ) जब आप अंदर पहुँचते हैं तो इस को कई बार विध्वंस किये जाने के लक्षण आपको साफतौर पर दिखाई देते हैं। दुःख होता है और गुस्सा भी आता है। बाहर से जरूर मंदिर को पुराना रूप देने की बेहतर कोशिश हुई है लेकिन अंदर उनके आतंक और उनकी बेशर्मी के सबूत आसानी से देखने को मिलेंगे। 

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अगर आप कभी ग्वालियर जाते हैं और अगर आपके पास समय की परेशानी नहीं है तो सास-बहु मंदिर देखने के लिए शाम यानी अँधेरा होने से पहले का समय चुनिए। उस वक्त आपको ये मंदिर और भी खूबसूरत लगेंगे।

तो अभी जैन मूर्तियां देखने चलेंगे और फिर उसके बाद तेली मंदिर जाएंगे। बने रहिये साथ-साथ.......


सासबहू मंदिर का बड़ा मंदिर , जिसे सास मंदिर भी कहा जाता है 
प्रवेश द्वार की सुंदरता देखिये 




11 वीं शताब्दी में इतना महीन और महान काम.... गज़ब है 


सासबहू मंदिर का छोटा मंदिर जिसे बहु मंदिर कह सकते हैं 





फिर मिलेंगे जल्दी ही ........

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

Gurudwara Bandi Chhod : Gwalior

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Date of Journey : 03 Dec.2019 


पिछली पोस्ट का आखिरी फोटो देखेंगे तो उसके सामने एक खाली जगह और उसके आगे एक प्लेटफार्म जैसा दिखेगा। दोबारा लगाऊंगा उस पिक्चर को। ये जो खाली जगह और प्लेटफार्म है ये Light & Sound Show के लिए है। यहां हिंदी और अंग्रेजी में लाइट एंड साउंड शो होता है रात को 7: 30 बजे से जिसमें महानायक अमिताभ बच्चन की आवाज श्रोताओं को मुग्ध कर देती है। निश्चित बात है कि उसका टिकट लगता है। 


थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो कई सारे खम्भे दीखते हैं। चौरासी खम्भे बताते हैं लेकिन इतिहास अनुसार 80 खम्भे हैं जिसका जिक्र गुरु हरगोबिंद सिंह जी की कहानी में भी मिलता है -अस्सी खम्भे के रूप में। इन खम्भों को पता नहीं क्यों बनाया गया ? लेकिन इनका पैटर्न बहुत शानदार है। इनके आखिर में एक बावली है जिसे किले के लिए बनवाया गया था जिससे पानी की सप्लाई लगातार मिलती रहे फोर्ट को ! लेकिन जहांगीर ने इसका दूसरा ही फायदा उठाया। कहते हैं उसने गुरु हरगोबिंद जी और अनेक राजाओ को यहां बंदी बनाकर रखा था। गुरु हरगोबिंद सिंह जी , जो छठवें गुरु हैं , उन्हें सन 1606 में गुरु की गद्दी पर बिठाया गया था और तब उनकी उम्र क्या थी ? जानते हैं ! मात्र 11 वर्ष ! और 14 वर्ष की उम्र में जहांगीर ने उनकी ताकत , उनकी हिम्मत से डरकर उन्हें ग्वालियर में बंदी बना लिया।

उनको छोड़ने के साल पर इतिहासकारों में मतभेद हैं लेकिन इतना जरूर है कि उन्हें जिस जगह छोड़ा गया उसे बंदी छोड़ गुरुद्वारा कहा गया और उनके साथ कई और राजाओं को भी मुक्त किया गया। गुरु हरगोबिंद सिंह जी ने अकेले रिहा होने से मना कर दिया था और शर्त लगाईं थी कि उनके साथ बंदी रहे राजाओं को साथ छोड़ा जाएगा तभी वो भी मुक्त होंगे। असली लीडर ये होता है ! राजाओं की संख्या 52 बताते हैं जानने वाले।

मजेदार किस्सा है। गुरु हरगोबिंद सिंह जी को मुक्त करने के लिए जहांगीर ने अपने मंत्री वज़ीर खान को तीन बार उनके पास भेजा लेकिन गुरु जी अकेले वहां से नहीं जाना चाहते थे। आखिर चौथी मुलाक़ात में ये तय हुआ कि जो राजा , गुरु जी के वस्त्र को पकड़कर बाहर आएंगे वो मुक्त होंगे। जहांगीर असल में राजपूत राजाओं को किसी भी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहता था लेकिन उस वक्त की परिस्थितियां कुछ इस तरह की बन गईं कि उसे ये शर्त लगानी पड़ी। सभी राजा , जो गुरु हरगोबिंद सिंह जी के साथ बंदी बने हुए थे , वो सब गुरु हरगोबिंद जी के चौंगे (गाउन ) का एक हिस्सा पकड़कर जेल से बाहर निकल आये और मुक्त हुए। 

हर वर्ष दीपावली के साथ ही बंदीछोड़ दिवस भी मनाया जाता है। सिख सम्प्रदाय में इस दिवस की बहुत मान्यता है क्यूंकि ये माना जाता है कि इसी दिन गुरु हरगोबिंद सिंह जी जेल से बाहर आये थे। गर्व है भारत को ऐसे आध्यात्मिक और समाज के नगीने पर !! मिलेंगे जल्दी ही......


ग्वालियर के जानकार लोग समझाएं ये क्या है ? 
अस्सी खम्भे का प्रवेश द्वार .......आकर्षित करता है 



ये अस्सी खम्भे के पीछे का हिस्सा है जहां सिक्योरिटी वाले ने जाने को रोक दिया 
अस्सी खम्भे ......गिने तो नहीं मैंने 
अस्सी खम्भे ........आपने गिने हैं कभी ?



ये है वो बावली जिससे फोर्ट को पानी की सप्लाई होती थी।  बहुत बड़ी है फोटो पूरा नहीं आ सका 
यही है क्या वो ग्वालपा ऋषि का सरोवर ? जिनके नाम पर इस शहर कानाम ग्वालियर पड़ा 



क्या खूबसूरत रास्ता है बंदीछोड़ गुरुद्वारा जाने का 




 बंदीछोड़ गुरुद्वारा