शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

Mehrauli Archaeological Park : Jamali-Kamali Tomb

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जब आप महरौली के खंडहरों में बलबन के घर और उसकी कब्रों को देख रहे होते हैं और अपने आपको इतिहास का प्रेमी दिखाने की कोशिश में हों तो भूल मत जाइयेगा कि सामने ही एक और इतिहास का नमूना , इतिहास का आइना आपका इंतज़ार कर रहा है ! सामने ही "जमाली -कमाली " की मस्जिद और उन दोनों के मक़बरे हैं ! जगह अच्छी है और भुतहा मानी जाती है , लेकिन इंसान खुद ही भूत हो गया है , ऐसे झूठ मूठ के भूतों से अब कौन डरता होगा ?


जमाली कमाली क्या बला है ? पहले नहीं मालूम था लेकिन जब एकदिन ज़हाज़ महल देखकर आया और उसकी पोस्ट यहां लिखी तो अंग्रेजी की विख्यात ब्लॉगर मृदुला द्विवेदी  जी ने मेरी पोस्ट पर अपने कमेंट में मुझे पूछा कि जमाली कमाली मस्जिद देखकर आये ? मैंने सोचा कि ज़हाज़ महल से थोड़ा आगे एक मस्जिद सी है तो सही , यही जमाली कमाली मस्जिद रही होगी ! और कह दिया , हाँ ! देखी तो लेकिन फोटो नहीं लिए क्योंकि वो जगह मुझे डरावनी सी लगी ! लेकिन वो पता नहीं क्या था ! असली जमाली कमाली तो यहां महरौली के अर्किलिजीओकल पार्क में आराम फरमा रहे हैं और मैं उन्हें जाने कहाँ कहाँ ढूंढता फिर रहा हूँ ! तुम भी न यार ? कहाँ कहाँ जा के लेट जाते हो ? चलो , अब आखिर पकड़ ही लिया है तो लोगों को तुम्हारे बारे में बताना भी अपना कर्तव्य है !



तो भाई लोगो , जमाली -कमाली के नाम से महरौली के अर्किलिजीओकल पार्क में एक खूबसूरत और पुरानी मस्जिद है और इसी मस्जिद के पास में उनके मकबरे हैं ! जमाली -उर्दू नाम है जो जमाल से बनता है ! जमाल का मतलब सुंदरता यानि beauty ! और एक शब्द और भी है -जमालघोटा ! उसका मतलब बताने की जरुरत नहीं है आपको ! आप बड़े स्मार्ट और इंटेलिजेंट लोग हैं , कुछ बातें खुद ही समझ जाते हैं ! जमाली साब का ये नाम उनका तकुल्लुस रहा होगा क्योंकि उनका असली नाम , शेख फजुलउल्लाह था और सही बात तो ये है कि ये नाम भी उनका असली नाम नहीं था ! वो एक सुन्नी मुस्लिम थे तब उनका नाम जलाल खान था और जब वो सूफी संत हो गए तब उनका नाम शेख फजुलउल्लाह या शेख जमाली कंबोह हुआ ! पूरे एशिया की यात्रा करते हुए जमाली सिकंदर लोधी के दरबारी कवि हो गए ! जमाली के विषय में तो खूब जानकारी मिलती है लेकिन उन के साथ कब्र में बराबर में सोये हुए कमाली के बारे में ज्यादा मालूमात नहीं मिलती ! यहां ये बात रोचक है कि ये मकबरे और मस्जिद सन 1528 -29 ईसवी में बनी है जबकि जमाली की मृत्यु सन 1535 ईसवी में हुई ! तो क्या जमाली -कमाली ने अपने जीवन में ही अपने लिए कब्र खुदवा ली थी ? अपने लिए हमेशा सोते रहने के लिए जगह का चुनाव पहले ही कर लिया था ? हालाँकि ऐसा हिन्दू रीति रिवाज़ में होता आया है कि जिन लोगों को अपने पुत्रों पर उनकी तेरहवीं करने का भरोसा नहीं होता , वो अपने जीवित रहते ही अपने मरने के बाद के सब कर्मकांड पूरे कर जाते हैं और ब्राह्मणों को भोजन और दान कर जाते हैं !

ये एक बड़ा सा अहाता है जिसमें एक तरफ मस्जिद है और मस्जिद के सामने खुली जगह है जबकि दूसरी तरफ जमाली -कमाली के मकबरे हैं ! मस्जिद तो सार्वजनिक रूप से खुली है लेकिन मकबरे तक जाने के लिए बीच में एक दरवाज़ा है , लेकिन वहां जो आदमी था उसने हमें मकबरों की तरफ नहीं जाने दिया जबकि मैं जब उस अहाते में घुस रहा था तब एक परिवार को मकबरों की तरफ से आते हुए देखा था ! नालायक !!  तो बस इतना ही कर पाया कि वहां से ही फोटो ले लिए !

चलो जी , जमाली -कमाली की बात तो मैंने आपको सुना दी , अब आगे चलते हैं ! आगे वो दिख रहा है कुछ - दिखा ? अरे यार ! वो पेड़ों के झुरमुट में से जो गोल गोल संरचना सी दिख रही है ? हाँ , बस उसके ही पास एक और पुरानी संरचना है , जिसे चाहो तो क़ुली खान का मकबरा कह लो और चाहो तो मेटकॉफ हाउस कह लो ! लेकिन यार आज नहीं , फिर चलेंगे ! नही नही , चलेंगे तो आज ही , लेकिन लिखेंगे फिर कभी ! लेकिन इतना पक्का है जैसलमेर जाने से पहले लिखेंगे !! तो बच्चो हाजिर हो जाना , अगली क्लास के लिए , इतिहास पढ़ाया जाएगा !

आओ तब तक कुछ फोटू -शोटू भी देखते जाओ  :

जमाली - कमाली मस्जिद , सन 1528 ईसवी में बनी
जमाली - कमाली मस्जिद , सन 1528 ईसवी में बनी

जमाली - कमाली मस्जिद , सन 1528 ईसवी में बनी
जमाली - कमाली मस्जिद , सन 1528 ईसवी में बनी  (अंदर का  द्रश्य)

ये बगल में ही जमाली -कमाली चिर निद्रा में सोये पड़े हैं !!
मस्जिद के दूसरी तरफ



मजेदार किस्सा है इस फोटो के पीछे ! ये लड़का आया -बोला भाई मेरा भी एक फोटो खींच दो , मैंने कहा चल ! और इस फोटो के एवज में हम दोनों ने मस्त चाय पी , और हाँ पैसे उसी ने दिए , जबरदस्ती !! वैसे मास्टर हूँ , मुफ्त की चाय पीना मेरी आदत है
इसके साथ एक और आ गया

मिलेंगे अभी जल्दी ही :

सोमवार, 16 जनवरी 2017

Mehrauli Archaeological Park : Balban's Ruins

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राजों की बावली और सामने वाले कब्रिस्तान की दुर्गन्ध सूंघने के बाद आगे महरौली अर्किलिजीओकल पार्क की तरफ कदम बढ़ा दिए , जंगल में से होकर रास्ता बना है ! आगे पीछे दो दो चार लड़के लड़कियों का ग्रुप चल रहा था और मैं अकेला ! इतिहास के टूटे फूटे पन्नों में इन नौजवानों की रूचि को चलते चलते ही तौल रहा था ! इन्हें सच में इतिहास में रूचि है ? या अवसर , एक मौके की तलाश कर रहे हैं ये लोग , अपनी भावनाओं को खुलकर बह जाने देने के लिए ! खैर , जो भी है !

अच्छा बनाया हुआ और अच्छी तरह मैंटेन किया हुआ है पार्क को ! बहुत सारे लोग मिल जाएंगे घूमते घामते , कुछ मॉडलिंग के शौक़ीन लोग भी बड़े बड़े कैमरों के सामने अपनी हर अदा से दूसरों की आँखों की चमक बढ़ा देते हैं ! आगे शुरुआत होती है एक गहरे कुँए से , जो शायद जहांगीर का कुआँ कहा जाता है ! इसके बाद मेटकॉफ का प्रयोग है जिसके निशान अभी बाकी हैं और लगभग हर जाने वाला उसके साथ खड़े होकर एक फोटो खिंचवाता ही है ! मेटकॉफ के विषय में और ज्यादा जानकारी अगली पोस्ट में आएगी ! यहां से निकलते हैं और अब सीधे बलबन के मक़बरों के खंडहरों की तरफ बढ़ते हैं ! बलबन मतलब गयासुद्दीन बलबन , 1266 ईसवी से 1287 ईसवी तक गुलाम वंश का दिल्ली का शासक रहा ! बलबन , गुलाम वंश का एक प्रितिष्ठित सुलतान रहा है ! और इसी प्रतिष्ठित शासक के ये जो खँडहर हैं ये 19 वीं शताब्दी के मध्य में ढूंढें गए जो आज हमारे लिए देखने लायक जगह हो चुकी हैं !


इन खंडहरों में आपको बलबन का मक़बरा , उसके पुत्र खान शहीद ( जिसका वास्तविक नाम मुहम्मद था ) का मकबरा और उस समय के घरों के कुछ खँडहर देखने को मिलते हैं ! खान शहीद 1285 ईसवी में मंगोलों के साथ युद्ध करते हुए मुल्तान में शहीद हो गया था जिसका मकबरा यहां बनवाया गया ! वैसे बलबन का इतिहास पढ़ें तो आप इसे बहुत रुचिकर समझेंगे , कैसे इसी बलबन को मंगोलों ने बंदी बना लिया था और इसे गज़नी ले जाकर बसरा के ख्वाज़ा जमालुद्दीन के हाथों बेच दिया था ! ख्वाज़ा जमालुद्दीन उसे लेकर दिल्ली आ गए और फिर इल्तुतमिश ने उसे ग्वालियर की विजय के बाद खरीद लिया ! और उसकी योग्यताओं से खुश होकर उसे "खासदार " बना दिया ! स्वामिभक्ति और सेवाभाव के फलस्वरूप वह निरंतर उन्नति करता गया, यहाँ तक कि सुलतान ने उसे चेहलगन के दल में सम्मिलित कर लिया। रज़िया के राज्यकाल में उसकी नियुक्ति अमीरे शिकार के पद पर हुई। बहराम ने उसको रेवाड़ी तथा हांसी के क्षेत्र प्रदान किए।

सन 1245 ईसवी में मंगोलों से लोहा लेकर अपने सामरिक गुण का प्रमाण दिया। आगामी वर्ष जब नासिरुद्दीन महमूद सिंहासनारूढ़ हुआ तो उसने बलबन को मुख्य मंत्री के पद पर आसीन किया। 20 वर्ष तक उसने इस उत्तरदायित्व को बेहतरीन तरीके से निबाहा । इस अवधि में उसके समक्ष जटिल समस्याएँ प्रस्तुत हुईं तथा एक अवसर पर उसे अपमानित भी होना पड़ा, परंतु उसने न तो साहस ही छोड़ा और न दृढ़ संकल्प। वह निरंतर उन्नति की दिशा में ही अग्रसर रहा । सन 1246 ईसवी में दुआबे के हिंदू जमींदारों की उद्दंडता का दमन किया। तत्पश्चात् कालिंजर व कड़ा के प्रदेशों पर अधिकार जमाया। प्रसन्न होकर सन 1249 ईसवी में सुल्तान ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ किया और उसको नायब सुल्तान की उपाधि प्रदान की। सन 1252 ई. में उसने ग्वालियर, चंदेरी और मालवा पर अभियान किए। प्रतिद्वंद्वियों की ईर्ष्या और द्वेष के कारण एक वर्ष तक वह पदच्युत रहा परंतु शासन व्यवस्था को बिगड़ती देखकर सुल्तान ने विवश होकर उसे बहाल कर दिया। दुबारा कार्यभार सँभालने के पश्चात् उसने उद्दंड अमीरों को नियंत्रित करने का प्रयास किया। सन 1255 ईसवी में सुल्तान के सौतेले पिता कत्लुग खाँ के विद्रोह को दबाया।  सन 1257 ईसवी में मंगोलों के आक्रमण को रोका।  सन 1259 ईसवी में क्षेत्र के बागियों का नाश किया।

नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के पश्चात् बिना किसी विरोध के बलबन ने मुकुट धारण कर लिया। उसने 20 वर्ष तक राज्य किया। सुल्तान के रूप में उसने जिस बुद्धिमत्ता, कार्यकुशलता तथा नैतिकता का परिचय दिया, इतिहासकारों ने उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। शासनपद्धति को उसने नवीन साँचे में ढाला और उसको मूलत: लौकिक बनाने का प्रयास किया। वह मुसलमान विद्वानों का आदर तो करता था लेकिन राजकीय कार्यों में उनको हस्तक्षेप नहीं करने देता था। उसका न्याय पक्षपात रहित और उसका दंड अत्यंत कठोर था, इसी कारण उसकी शासन व्यवस्था को लोह रक्त की व्यवस्था कहकर संबोधित किया जाता है। वास्तव में इस समय ऐसी ही व्यवस्था की आवश्यकता थी।

बलबन ने मंगोलों के आक्रमणों की रोकथाम करने के उद्देश्य से सीमांत क्षेत्र में सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण किया और इन दुर्गों में साहसी योद्धाओं को नियुक्त किया। उसने मेवात, दोआब और कटेहर के विद्रोहियों को आतंकित किया। जब तुगरिल ने बंगाल में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी तब सुल्तान ने स्वय वहाँ पहुँचकर निर्दयता से इस विद्रोह का दमन किया। साम्राज्य विस्तार करने की उसकी नीति न थी, इसके विपरीत उसका अडिग विश्वास साम्राज्य के संगठन में था। इस उद्देश्य की पूर्ति के हेतु के उसने उमराव वर्ग को अपने नियंत्रण में रखा एवं सुलतान के पद और प्रतिष्ठा को बनाया। उसका कहना था कि "सुल्तान का हृदय दैवी अनुकंपा की एक विशेष निधि है, इस कारण उसका अस्तित्व अद्वितीय है।" उसने सिजदा एवं पायबोस की पद्धति को चलाया। उसका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उसको देखते ही लाग संज्ञाहीन हो जाते थे। उसका भय व्यापक था। उसने सेना का भी सुधार किया, दुर्बल और वृद्ध सेनानायकों को हटाकर उनकी जगह वीर एवं साहसी जवानों को नियुक्त किया। वह तुर्क जाति के एकाधिकार का प्रतिपालक था, अत: उच्च पदों से अतुर्क लोगों को उसने हटा दिया। कीर्ति और यश प्राप्त कर वह सन 1287 ई. के मध्य परलोक सिधारा। बलबन के दरबारी फ़ारसी कवि आमिर खुसरो और आमिर हसन थे ! नाशिरुद्दीन महमूद ने बलबन को उलुग खान की उपाधि दी ! बलबन ने फ़ारसी त्यौहार नवरोज प्रारम्भ करबाया ! सिजदा और पेबोस एक प्रकार की सम्मान करने की पद्धति थी जिसमें सुल्तान को लेट कर सम्मान देते थे और सुल्तान का ताज और पैर पर चुमते थे ! बलबन ,दिल्ली को मंगोलों के आक्रमण से रक्षा करने में सफल रहा और अंत में तुरकन ए चहल्गामी का नाश किया जिसे इल्तुत्मिस ने बनाया था ! 
इतिहास में जिसकी रूचि नहीं होती उसके लिए ऐसी पोस्ट झेलना मुश्किल हो जाता है , मैं जानता हूँ ! लेकिन देखते हैं ? कितने लोग हिम्मत दिखाते हैं : 

मेटकॉफ का प्रयोग  (Metcalfe Foli )
मेटकॉफ का प्रयोग स्थल से दिखाई देता कुतुबमीनार( Qutub Minar seen from Metcalfe Folly )


बलबन के ज़माने के घरों के अवशेष( Ruins of Houses of Balban's era)

बलबन की कब्र ( Grave of Balban)


Balban's Tomb
Balban's Tomb
Some more Ruins of Houses
Some more Ruins of Houses

गुरुवार, 12 जनवरी 2017

ताक धिना धिन ताके से.......Part- 4 ( Final)

अगर आप इस कहानी को शुरू से पढ़ना चाहते हैं तो यहां क्लिक करिये और अगर तारतम्य बनाने के लिए पिछले अंक पर लौटना चाहते हैं तो कृपया यहां अपना कर्सर ( Cursor ) लाकर हिट करिये !! अब तक आपने पढ़ा कि बकरी को पहाड़ से नीचे लाने के लिए लड़का , खरगोश और गिलहरी अपनी अपनी कोशिश कर चुके हैं अब आइये आगे बढ़ते हैं :



गीदड़ बोला :
तुम मत रो ओ
मैं बकरी को पहाड़ से उतारूँगा 
गीदड़ पहाड़ पर चढ़ने लगा
और बकरी के पास पहुंचा
गीदड़ ने बकरी को बुलाया
बकरी नहीं आई
वो और ऊपर चढ़ गई
अब गीदड़ भी रोने लगा
उसने दिल में सोचा
पहाड़ ऊँचा है
उसके नीचे दरिया बहता है
कहीं बकरी पहाड़ से न गिर जाए ?
कहीं बकरी दरिया में डूब न जाए ?
सोचकर गीदड़ जोर जोर से रोने लगा
गीदड़ लड़के , खरगोश और गिलहरी के पास आया
उन के पास बैठ गया
उन के साथ मिल कर बोला -

ताक धिना धिन ताके से
मामा कुंवर मर गई फ़ाक़े से


वहां कहीं पास ही एक हिरन रहता था
वो लड़के के पास आया
उसे घूरकर देखा
वो खरगोश के पास आया
उसे घूरकर देखा
वो गिलहरी के पास आया
उसे घूरकर देखा
वो गीदड़ के पास आया
उसे घूरकर देखा
फिर हिरन ने चारों से पूछा :
जंगल में खैर तो है ?
तुम क्यों रो रहे हो ?
सब मिल कर बोले -
मामा कुंवर की बकरी पहाड़ पर चढ़ गई है
पहाड़ ऊंचा है
उसके नीचे दरिया बहता है
कहीं बकरी पहाड़ पर से गिर न जाए ?
कहीं बकरी दरिया में डूब न जाए ?
इसलिए हम रोते हैं
अब चारों मिल कर बोले :

ताक धिनाधिन ताके से
मामा कुंवर मर गई फ़ाक़े से


हिरन ने कहा :
तुम मत रोओ
मैं बकरी को पहाड़ से उतारूँगा
अब हिरन पहाड़ पर चढ़ने लगा
वो बकरी के पास पहुंचा
बकरी को बुलाया
बकरी नहीं आई
वो और ऊपर चढ़ने लगी !
हिरन ने सोचा
पहाड़ ऊंचा है
उसके नीचे दरिया बहता है
कहीं बकरी पहाड़ से गिर न जाए
कहीं बकरी दरिया में डूब न जाए
ये सोचकर हिरन जोर जोर से रोने लगा
हिरन , लड़के , खरगोश , गिलहरी , गीदड़ के पास आया
वो उनके पास आकर बैठ गया
और उनके साथ मिल कर बोला -

ताक धिनाधिन ताके से
मामा कुंवर मर गई फ़ाक़े से


वहां पास ही ततैया या भिड़ों ( Wasps ) के झुण्ड का छत्ता था
भिड़ों के छत्ते में भिड़ों की रानी रहती थी
वो लड़के के पास आई
उसे घूरकर देखा 
वो खरगोश के पास आई
उसे घूरकर देखा
वो गिलहरी के पास आई
उसे घूरकर देखा
वो गीदड़ के पास आई
उसे घूरकर देखा
वो हिरन के पास आई , उसे घूरकर देखा
उसने लड़के , खरगोश , गिलहरी , गीदड़ और हिरन से पूछा :
तुम क्यों रो रहे हो ?
जंगल में खैर तो है ?
सब मिल कर बोले :
मामा कुंवर की बकरी पहाड़ पर चढ़ गई है
पहाड़ ऊंचा है !
उसके नीचे दरिया है
बकरी कहीं पहाड़ पर से गिर न जाए
बकरी कहीं दरिया में डूब न जाए
इसलिए हम रोते हैं
अब सब मिल कर बोले :

ताक धिनाधिन ताके से
मामा कुंवर मर गई फ़ाक़े से


भिड़ों की रानी बोली :
तुम रोओ मत !
मैं बकरी को पहाड़ से उतारूंगी
अब भिड़ों की रानी उड़ी
उड़ते उड़ते बकरी के पास पहुंची
उसने बकरी के कान में " भिन भिन " कहा
तुम नीचे उतरो !
पहाड़ पर मत चढ़ो
पहाड़ ऊंचा है
नीचे दरिया है
तुम्हारा कहीं पाँव न फिसल जाए
फिर तुम कहीं पहाड़ पर से गिर न जाओ
फिर तुम कहीं दरिया में डूब न जाओ
भिड़ों की रानी की बात बकरी की समझ में आ गई
वो पहाड़ से नीचे उतरी
वो लड़के के पास आई 

लड़के से बोली -
चलो घर चलें !
मामा कुंवर के पास चलें 
लड़का उठा
खरगोश उठा
गिलहरी उठी
गीदड़ उठा
हिरन उठा
सब एक कतार में खड़े हो गए
भिड़ों की रानी उड़ती रही
सब मिल कर बोले -
ताक धिनाधिन ताके से
मामा कुंवर मर गई फ़ाक़े से
सब जानवर अपने घरों को चल दिए
लड़का बकरी लेकर मामा कुंवर के घर गया
मामा कुंवर ने लड़के को खूब दूध पिलाया
मामा कुंवर फिर जोर से ताली बजाकर बोली : 

ताक धिनाधिन ताके से
मामा कुंवर मर गई फ़ाक़े से !!





************************** जय हिन्द !! जय हिन्द की सेना !!**************************


मंगलवार, 3 जनवरी 2017

Rajon Ki Baoli : Mehrauli

दिल्ली की और पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करिये !

दिल्ली ! ये दिल्ली है ! कितनी बार लुटी , लूटी गई लेकिन फिर से उठ खड़ी हुई , बार बार और हर बार ! जितनी बार खंडहर हुई उतनी ही बार कोई न कोई आया इसका भविष्य सुधारने को और वो दिल्ली जो आज है,  ऐसे ही किसी कजरू - पजरु ने नहीं बना दी ! लोगों का पसीना और खून बहा है इस दिल्ली को सलामत और जिंदादिल रखने में ! और जब भी मुझे मौका मिलता है , निकल जाता हूँ इसी दिल्ली की ख़ाक छानने को ! ज्यादा कुछ सोचना नहीं पड़ता दिल्ली जाने को ! मैट्रो कार्ड जेब में पड़ा होता ही है और बस घर से कैमरा उठाना होता है ! जितनी बार दिल्ली जाता हूँ और जब लौटकर आता हूँ तो ये मुझसे पूछती है - अभी बहुत कुछ रहा गया है देखने को ! फिर कब आएगा ? और मैं भी इसे अपनी बूढी माँ की तरह दिलासा देकर वहां से चल देता हूँ , जल्दी ही आऊंगा ! फिर से ! छुट्टी मिलते ही !




दिल्ली ऐतिहासिक रूप से कुल सात शहरों से मिलकर बना एक शहर है ! ये सात शहर हैं :

1 . किला राय पिथौरा

2 . महरौली

3 . सीरी

4 . तुगलकाबाद

5 . फ़िरोज़ाबाद

6 . शेरगढ़ और

7 . शाहजहाँनाबाद

अब आप कह सकते हैं कि आठवाँ शहर "नई दिल्ली " भी इसी में शामिल हो गया है ! इनमें से कुछ देखे हैं , कुछ देखने बाकी हैं ! इनमें से किला राय पिथौरा के केवल कुछ अवशेष ही बाकी हैं ! हाँ , अगर आप मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूंगा कि इन सभी सात शहरों में से मुझे महरौली सबसे ज्यादा आकर्षित करता है ! महरौली का जैसे हर पत्थर , हर गली , हर दरवाज़ा अपने आप में एक इतिहास है और उसे खोलकर बैठें तो एक पूरा लंबा चौड़ा इतिहास खुलकर आ जाएगा ! यूँ महरौली पहुंचना कोई कठिन नहीं है लेकिन सुविधाजनक माध्यम देखें तो मैट्रो ज्यादा बेहतर है ! येल्लो लाइन के क़ुतुब मीनार स्टेशन से उतरकर , पैरों में जान है तो पैदल ही मार्च कर लो यहां तक पहुँचने के लिए या फिर 5 रुपल्ली देकर बस में बैठ जाओ ! ज्यादा पैसे खर्च करने हैं तो फिर ऑटो रिक्शा तो है ही ! आप कैसे भी पहुंचे , महरौली अपने राजाओं , सुल्तानों , जनरलों , योद्धाओं , संत महात्माओं की गाथाएं लेकर आपके स्वागत के लिए हमेशा तैयार दीखता है ! ये जगह पांडवों से भी सम्बंधित रही है ! तो थोड़ा सा इसका अपना इतिहास भी लिखना तो जरुरी हो ही जाता है ! है , न ?

सर्वप्रथम प्रतापी राजा पृथ्वीराज चौहान ने लाल कोट की दीवारें खड़ी कर के राजा अनंगपाल की दिल्ली को एक व्यवस्थित शहर का रूप देना शुरू किया लेकिन सन 1192 ईसवी में तराइन के युद्ध में मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को पराजित कर , कुतुबुद्दीन ऐबक को अपना "वाइसराय " बनाकर दिल्ली भेजा ! मुहम्मद गोरी की 1206 ईसवी में मौत के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वयं को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया और इस तरह मामलुक यानि गुलाम वंश की शुरुआत हुई ! इस युग में कुतुबुद्दीन ऐबक ने बहुत से हिन्दू प्रतिष्ठानों को नष्ट कर डाला और अपने गुरुओं , धार्मिक व्यक्तियों के मक़बरे आदि बना डाले !

महरौली आर्किलॉजिकल पार्क ( Mehrauli Archaeological Park ) में आपको एक से एक पुराने मोनुमेंट्स देखने को मिल जाएंगे ! मतलब पूरे दिन का मामला बन जाता है ! क़ुतुब मीनार तो आपने देखा ही होगा ! मैं आज उसकी बात नहीं करूँगा , आप चाहें तो कुतुबमीनार की मेरी पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक कर लें ! आज कुछ अलग सा देखने चलते हैं !

गंधक की बावली :
आप समझो कि आप महरौली के बस स्टैंड पहुँच गए ! थोड़ा सा यानि 100 कदम पीछे लौटिए , आपको योगमाया मंदिर का बोर्ड दिखेगा , दर्शन कर आइयेगा ! मंदिर बहुत सुन्दर भले न हो लेकिन प्राचीन है और भगवान श्री कृष्णा की बहन को समर्पित है ! वापस लौटिए फिर से महरौली के बस स्टैंड पर ही , सामने आदम खान का मक़बरा है ! इसे देखिये , घूमिये और आदम खान के मकबरे के सामने ही अग्रवाल स्वीट्स के यहां बैठकर दो कचौड़ी खाइये ! भूख भी तो लग गई होगी आपको ! पानी पीजिये और इसी रास्ते पर आगे बढ़ते जाओ , उल्टे हाथ पर पोस्ट ऑफिस मिलेगा और सीधे हाथ पर महरौली थाना ! उल्टे हाथ की तरफ मुड़ जाइये , गलियों से निकलते हुए एक दरगाह मिलेगी , किसकी है ? याद नहीं ! शायद बख्तियार काकी की दरगाह है ! जैसे ही आप दरगाह पार करेंगे एक रोड आ जाती है और उसी रोड के दूसरी तरफ है गंधक की बावली ! नाम वैसे सही है लेकिन यहां की गन्दगी देखकर कहेंगे कि इसका नाम " गंद की बावली" होना चाहिए था ! गंधक की बावली गुलाम वंश के दौरान 13 वीं शताब्दी में बनवाई गयी थी , इसका और ज्यादा इतिहास मुझे नहीं मालुम !

राजों की बावली :
इसी रोड पर आगे चलते जाइये , एक जंगल सा मिलेगा ! अकेले हैं तो इसमें अंदर जाते हुए डर सा लगेगा लेकिन डर वाली कोई बात नहीं है ! रोड के किनारे जहां सबसे ज्यादा बदबू आये , वहीँ से एक रास्ता इस जंगल में जाता है ! बदबू इसलिए क्योंकि वहां "कूड़ा घर " है ! ये मेरे नहीं बल्कि मित्रवर अमित तिवारी जी के शब्द हैं जब मैंने उनसे रास्ता पूछा था फोन पर ! करीब 50 मीटर अंदर जाते ही रास्ता मिल जाता है जहां मार्किंग पिलर लगे हुए हैं ! फोटो खींचते हुए , जंगल में मंगल करते हुए राजों की बावली पहुँच जाते हैं ! सामने ही कब्रिस्तान है जहां न जाने कितने तुर्रम खां जमीन के नीचे दबे पड़े होंगे ! वो तुर्रम खां जिनकी एक घुड़की से कई लोगों की सांस अटक जाती होगी ! समय बड़ा बलवान होता है !!

राजों की बावली वास्तव में राजाओं की बावली नहीं है ! इसका मूल नाम राजों की बावली है ! राज मतलब राज मिस्री , जो घर -दीवार बनाते हैं ! तो अगर अंग्रेजी में कहें तो Its not a step well of kings but step well of Masons !! सिकंदर लोधी के शासन में दौलत खान द्वारा 1516 ईसवी में बनवाई गयी ये बावली तीन मंजिल की है और गंधक की बावली की तुलना में ज्यादा साफ़ सुथरी और व्यवस्थित है ! इसके बराबर में ही एक मस्जिद भी है ! हालाँकि लोग मस्जिद देखने नहीं बल्कि बावली देखने जाते हैं ! बावली की जो दीवारें हैं उन पर उर्दू / फ़ारसी में कुछ गुदा ( inscripted ) हुआ है ! शायद क़ुरआन की आयतें होंगी लेकिन उर्दू पढ़ -लिख लेने के बावजूद में "अल्लाह " के अलावा और कुछ नहीं पढ़ पाया !  इसके दोनों तरफ के कोने में सीढियां बनी हैं जहां से आप ऊपर जाकर बावली का विहंगम नजारा देख सकते हैं और सामने की तरफ नजर जायेगी तो महरौली के दूसरे मोनुमेंट्स भी दिखाई दे जाएंगे ! हाँ , अगर गर्मी में जाएँ तो पानी की बोतल जरूर साथ रखियेगा , पानी यहां आसपास कहीं नहीं मिलेगा ! वैसे भी जंगल ही तो है चरों तरफ !

इसके सामने ही एक कब्रिस्तान है ! जहां कुछ कब्र ठीक हालात में हैं तो कुछ एकदम से ख़त्म हो चुकी हैं ! अब ये जगह जुएबाजों का घर बन गई है ! एक कोई बड़ा सा गुम्बद है लेकिन किसका है , मुझे नहीं मालूम ! अब तक जितना भी रास्ता आपने तय किया है उसमें छोटी छोटी कई मुग़ल जमाने की गुमटियां मिल जाएंगी ! हाँ , और दिल्ली मुम्बई की कल्चर के "नमूने " तो मिलेंगे ही ! अब उनको इग्नोर करने की आदत सी हो गई है ! ज्यादा नहीं सोचता इस बारे में और न ज्यादा ध्याद देता हूँ ! इन दो बावलियों के अलावा दिल्ली में दो बावली और हैं , एक है कनॉट प्लेस में महाराजा उग्रसेन की बावली और दूसरी राजा अनंगपाल की बावली ! इसमें से उग्रसेन कीबावली देखि हुई है और राजा अनंगपाल की बावली देखनी बाकी है !  यहां से निकालने के बाद आप महरौली पार्क की तरफ बढ़ जाते हैं , जहां बहुत पुराने मोनुमेंट्स हैं , लेकिन वो अगली पोस्ट में !


आगे मिलते हैं जल्दी ही एक और पोस्ट लेकर :


गंधक की बावली या गंध की बावली ? Step well of Sulphur or Step Well of Ordure ??
गंधक की बावली या गंध की बावली  ?
ऐसे marking pillar आपको पूरे रस्ते मिलेंगे 
मुग़लकालीन दीवारों के अवशेष( Ruins of Walls of Mughal e
मुग़लकालीन दीवारों के अवशेष ( Ruins of Walls of Mughal Period )
Gumti of Mugal Period
राजों की बावली( Baoli of Masons )
राजों की बावली( Baoli of Masons )
राजों की बावली( Baoli of Masons )


राजों की बावली तीन मंजिल की बाओली है( Mason's Baoli is three story Baoli)





रंग अब भी जिन्दा हैं (  Colors are still alive )
रंग अब भी जिन्दा हैं (  Colors are still alive )
Top of the tomb
मेरे यहां इसे "तिखाल " कहते हैं और आपके यहाँ ? Decorative Alcove




कब्रिस्तान ( Graveyaard opposite to Rajon Ki Bawali) 
 न जाने कितने " तुर्रम खां " यहां दफ़न होंगे ( Who Knows how many cleric or sergeant laid here )

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किसी की भी गर्दन ऊपर नहीं है ! इस फोटो का मतलब बस इतना ही बताना था कि मोबाइल फ़ोन हमारा कितना समय खा जाता है !

पता नहीं कब का है ,  क्या है ? लेकिन जंगल में अंदर मिला ! शायद ये भी कोई न कोई गुमटी होगी मुग़ल ज़माने की !

 मिलते हैं जल्दी ही ! तब तक राम राम !!