सोमवार, 30 मार्च 2015

चन्दरू की दुनियाँ - चौथी किश्त

गतांक से आगे

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पारो की देखा देखी उसकी दूसरी सहेलियां भी चन्दरु को सताने लगीं और कई छोटे छोटे लड़के भी। मगर लड़कों को चन्दरू डाँट देता था और वो जल्दी से भाग जाते। एक बार पारो की अपनी सहेलियों से आज़िज़ आकर उन्हें भी डाँट बताई। तो उस पर पारो इस क़द्र नाराज़ हुई कि उसने आगे तीन चार दिनों तक चन्दरू को सताना बंद कर दिया। उस पर चन्दरू को ऐसा लगा कि आसमान उस पर उलट गया है। या उसके पैरों तले जमीन फ़ट गयी हो। ये पारो मुझे सताती क्यों नही है ? तरह तरह के बहनों से उसने चाह कि पारो उसे डाँट पिलाये। लेकिन जब इस पर भी पारो के अंदाज़ नही बदले और वो चांट बेचने वाले छोकरों को फासले पर रखने वाली लड़की की तरह उससे चाँट खाती रही तो चन्दरूअपनी गूंगी हिमाकतों पर बहुत नादिम ( शर्मिंदा ) हुआ।

एक दफ़ा उसने बजाय पारो के खुद से हिसाब में घपला कर दिया। सवा रुपया बनता था , उसने पारो से पौने दो रूपये तलब किये। जानबूझ कर। खूब लड़ाई हुई। जम के लड़ाई हुई। बलआखिर चन्दरू ने सिर झुकाकर गलती स्वीकार कर ली और ये गोया एक तरह की पिछली तमाम गलतियों की भी माफ़ी थी। चन्दरूबहुत खुश हुआ क्योंकि पारो और उसकी सहेलियां अब फिर से उसे सताने लगी थीं।

बस उसे इतना ही चाहिए था। एक पाजेब की खनक और एक शदीद हँसी जो फुलझड़ी की तरह उसकी गूंगी , सुनसान दुनियां के वीराने को एक लम्हे के लिए रोशन कर दे। फिर जब पारो के कदम सहेलियों के कदमों में गड्डमड्ड हो के चलते जाते , वो उस पाजेब की खनक को की खनक से अलग करके सुनता था क्योंकि दूसरी लड़कियां भी चंडी की पाजेब पहनती थीं। मगर पारो की पाजेब का संगीत ही कुछ और था। वो संगीत जो उसके कानों में नही उसके दिल के किसी तन्हा तार को छेड़ देने के लिए काफी था। बस इतना ही काफी था , और वो भी बस इतने में ही खुश था।


अचानक मुसीबत नाज़िल हुई। एक दूसरे ठेले की सूरत में। क्या ठेला था ये ? बिल्कुल नया और ज़दीद डिज़ाइन था। चारों तरफ चमकता हुआ कांच लगा था , ऊपर- नीचे , दायें- बाएं। चारों तरफ लाल पीले हरे और नीले रंग के कांच थे। गैस के दो हंडे थे ( हंडे को पेट्रोमैक्स ) भी कहते हैं। जिनसे ये ठेला बहुत सुन्दर बन गया था। पत्तल की जगह चमकती हुई चीनी की प्लेटें थीं। ठेले वाले के साथ एक छोटा सा छोकरा भी था जो ग्राहक को बड़ी मुस्तैदी से एक प्लेट और एक साफ़ सुथरी नेपकिन भी पेश करता था और पानी भी पिलाता था। चाँट वाले के घड़े के गिर्द मोगरे के फूलों का हार भी लिप्त हुआ था और एक छोटा हार चाँट वाले ने अपनी कलाई पर भी बाँध रखा था। और जब वो मसालेदार पानी में गोलगप्पे डुबो कर प्लेट में रखकर ग्राहक के हाथों की तरफ सरकाता तो चाँट की करारी ख़ुशबू के साथ ग्राहक के नथुनों में मोगरे की महक भी शामिल हो जाती और ग्राहक मुस्कराकर नए चाँट वाले से गोया किसी तमगे की तरह उस प्लेट को हासिल कर लेता। और नया चाँट वाला गूंगे चाँट वाले की तरफ़ तिरछी नज़रों से देखकर जोरदार आवाज़ में कहता :

"चखिए ! "

एक एक , दो दो कर के चन्दरूके बहुत से गाहक टूट कर नए ठेले वाले के गिर्द जमा होने लगे तो भी , चन्दरू को ज्यादा परेशानी नही हुई। फिर आ जाएंगे , ये ऊंची दूकान फीका पकवान वाले कब तक चन्दरू की सच्ची , असली और सही मसालों में रची हुई चाँट का मुकाबला करेंगे ? हम भी देख लेंगे ? उसने दो एक गाहकों को नए चाँट वाले की तरफ जाते हुए कनखियों से देख भी लिया था और उसे ये भी मालुम हो गया था कि चिकनी , चमचमाती प्लेटों और होटलनुमा सरोश के बावजूद नए चाँट वाले की चाँट ज्यादा पसंद नही आ रही है।

अब वो पहले से भी ज्यादा मुस्तैद होकर अपने काम में जुट गया। यकायक उसके कानों में पाजेब की एक खनक सुनाई दी। उसका दिल जोर जोर से धड़क गया। उसने निगाह उठा के देखा। गली से पारो पाजेब खनकती अपनी सहेलियों के संग चली आ रही थी। जैसे चिड़ियाँ चहकें , ऐसे वो लड़कियां बोल रही थीं। कितनी ही बड़ी बड़ी और शोख निगाहें थीं। फ़िज़ा में अबा बैलून की तरह तैरती हुईं वो सड़क पार करके उसके ठेले की तरफ बढ़ने लगीं। अचानक पारो की निगाहें नए ठेले वाले की तरफ उठीं। वो रुक गयी। उसकी सहेलियां भी रुक गयीं। वो सांस लिए बगैर पारो की तरफ देखने लगा। पारो ने एक उचटती सी निगाह चन्दरूके ठेले पर डाली। फिर एकदम मुंह फेर लिया और एक अदा ए ख़ास से मुड़कर अपनी सहेलियों को लेकर नए ठेले वाले के पास पहुँच गई।

तुम भी ! तुम भी ! पारो तुम भी !!

                                                                                                     ​कहानी आगे ज़ारी रहेगी :

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