शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

Adi Kailsh Yatra - Ninth Day ( Kuti Village to Budhi)

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फिर से उसी जगह , उसी गाँव और दुकान में पहुँच गए थे जहाँ से दो दिन पहले आदि कैलाश के लिए निकले थे लेकिन इस बार फिर से उसी "रूम " में नहीं रुकना चाहते थे जिसमें रात गुजारी थी इसलिए दूसरी जगह ठिकाना बनाया। ये ठिकाना हालाँकि पहले से थोड़ा महंगा था और कुछ बेहतर भी था।  शायद 300 रूपये प्रति व्यक्ति रहना -खाना। कोई लड़की है जो ये सब व्यवस्था देखती है अपने छोटे भाई के साथ ! नाम याद नहीं है और नाम याद होने से भी क्या होगा ? आप कुछ भी नाम सोच लें उसका लेकिन उसके जैसी हिम्मत.... बहादुरी और मेहनत को नाम देना .... इनाम देना उसको नाम देने से ज्यादा प्रासंगिक होगा। उसका भाई मिला था लौटते हुए तो उसी ने बताया था कि उनके पापा की मृत्यु हो चुकी है पांच साल पहले और उसके दो बड़े भाई कहीं दिल्ली -नॉएडा में काम करते हैं बहन B.A कर रही है और वो भी अपना B.A का पेपर देने धारचूला आ रहा था ! 30 -40 किलोमीटर पैदल चलकर पढ़ाई करना और अपने आपको समाज की मुख्य धारा के समानांतर चलाना सूरज की धूप को पोटली में बंद करके घर में रख देने जैसा है लेकिन करने वाले ऐसा भी करते हैं तभी तो हमें कई -कई प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी गुंज्याल...  कुटियाल... गर्ब्याल... बुदियाल... दिखाई देते हैं और ये सब वही हैं जिन्होंने सूरज की धूप को थैले में बंद कर रखने का प्रयास किया ! 


हमारा नाभी गेम जारी था हर जगह और पिछली रात भी ज़ारी रहा। सुबह का समय था और हम कुटी गाँव में थे लेकिन अब वापस लौटने का समय था। वो मैदान भी देखा जिस पर जाते हुए लम्बा समय गुजारा था और सैकड़ों फोटो खींचे थे लेकिन लौटते हुए कैमरा भी बाहर नहीं निकाला । ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हम हर जगह से परिचित रहे हों ... सालों से ..और ये पेड़ ..पौधे ..ये नदी किनारे जैसे मेरे जाने से वापस लौटने से उदास पड़े हों ।  कुटी नदी जाते हुए उछालें मार रही थी अब जैसे वियोग में शांत थी या शायद मुझे ही शांत लग रही थी ।

फिर से नम्फा में थे जहाँ जाते हुए पराठे और भांग की चटनी खाई थी लेकिन आज इनके पास भांग वाली चटनी नहीं है । .. सामान्य मिक्स अचार है और चाय तो है ही .. यहाँ बंगाली लोगों की एक पूरी टोली मिल गयी जो करीब 16 लोग थे । बंगाली लोगों का ये तरीका बड़ा कारगर है जिसमें वो बड़ा ग्रुप लेकर चलते हैं.. . इससे यात्रा भी सस्ती होती है . सुरक्षा भी बनी रहती है ..और समय भी आराम से गुजर जाता होगा लेकिन मुझे लगता है बड़े ग्रुप में विवाद भी ज्यादा होते होंगे ! इस ग्रुप से एक बहुत ही बेहतर ज्ञान प्राप्त हुआ जो मुझे पहले नहीं पता था और शायद आप सभी ट्रैक पर जाने वालों के लिए भी बहुत उपयोगी होगा । पानी को शुद्ध करने वाली कोई दवाई लेकर चल रहे थे ..ZEOLINE 20 . नाम की ! ऐसे और भी आती हैं मार्किट में लेकिन ये सस्ती भी थी और बस एक बूँद एक बोतल के लिए काफी थी । आगे से इसका उपयोग करूँगा ! वो JCB मशीन अभी भी अपने काम में लगी हुई है जो जाते हुए मिली थी लेकिन अब सड़क , कुटी की तरफ कुछ और मीटर आगे तक पहुँच गई है । जब नम्फा में पराठे खा रहे तो आर्मी की एक गाडी कुटी की तरफ जाते हुए दिखी इसका मतलब ये लौटेगी लेकिन कब लौटेगी नहीं मालूम । 

दुनिया उसी रफ़्तार से दौड़ती रही और हम अपनी रफ्तार से । लोग कहते हैं कि दुनिया के साथ ही दौड़ लगाओ नहीं तो पिछड़ जाओगे लेकिन इस पिछड़ने का आनंद भी तो उठाया जाए ! मुझे दुनिया के साथ चलना पसंद है लेकिन हर मामले में नहीं .. ज्यादातर मामलों में मुझे कछुआ हो जाना अच्छा लगता है और शायद मेरे जैसे शौक पालने वालों को भी कछुआ होना .. या कभी कभी कछुआ हो जाना पसंद आ जाता है । ट्रैकिंग में तो आपको कछुआ हो ही जाना चाहिए या फिर ट्रैकिंग पर जाना ही नहीं चाहिए । .. क्यूंकि जब आप कछुआ बनकर चीजों को निहारते हैं तो आपकी आँखें वो देख पाती हैं जो खरगोश नहीं देख पाया था और वो खरगोश पाला छूकर लिस्ट में अपना नाम लिखवा चुका है पहले नंबर पर आने का  . ट्रैकिंग आँखों के लिए ही तो होती है .. पैरों को ....शरीर को कष्ट देकर आँखों को आराम देना . आँखों को उनका अधिकार देना जिसके लिए ये तरसती रहती हैं।


​पीछे से आवाज आने लगी थी मतलब गाडी वापस लौट रही है । कोठारी जी और जोशी जी पीछे चल रहे और मैं हरजिंदर भाई आगे । लेकिन जैसे ही आर्मी ट्रक को देखा हम दोनों पीछे उल्टा लौट पड़े जिससे उन्हें बार -बार गाडी न रोकनी पड़े । दोपहर के एक बजे के आसपास नबी और रेकोंग गांव को फिर से देखते हुए गुंजी पहुँच चुके थे । जब कुटी से चले थे तो हमारा इरादा ​आज गुंजी तक ही पहुँचने और वहीं डेरा जमाने का था लेकिन गाडी मिल गई और समय भी है तो आगे बढ़ा जाए लेकिन इससे पहले हमें वो सामान उठाना था जो हमने यहीं गुंजी के KMVN में छोड़ दिया था । फिर से विनीता की दुकान याद आई और जैसे आप शहरों में "ठग्गू के लड्डू " और महावीर की कुल्फी या "मूलचंद के पराठे " याद करते हैं या गाज़ियाबाद वाले पहलवान के पराठे याद करते हैं ऐसे ही गुंजी और आसपास विनीता की दुकान है । और गुंजी में हैं तो विनीता की दुकान में तो जाना ही था ।


जब आर्मी ट्रक में बैठे तब बताया गया था ये ट्रक आगे भी जाएगा लेकिन गुंजी आते -आते ड्राइवर साब का मूड बदल गया ( या शायद झूठ मूठ कह दिया ) कि अब आगे नहीं जा रहे और अगर जाएंगे भी तो शाम को जाएंगे । हमने इंतज़ार करना ठीक नहीं समझा और आगे की तरफ चल दिए ।  सबसे पीछे कोठारी जी थे । हम जिस रास्ते से गुंजी गए थे उसे रात में पार किया था तो अंदाज़ा नहीं था कैसा है ? किधर को है ? हम तीनों तो गुंजी गाँव से उतरकर कुटी नदी के किनारे पहुँच चुके थे लेकिन कोठारी जी नहीं आये । 10 मिनट बीत गए.... 20 बीत गए . आधा घंटा गुजर गया लेकिन कोठारी जी नहीं आये ।  अब दिल ने फितूर का सोचना शुरू कर दिया । कोई दूसरा रास्ता तो नहीं ले लिया । कहीं फिसल तो .. हरजिंदर वापस गए और खबर लेकर आये कि कोठारी जी एकदम ठीक हैं और आधे रास्ते से लौट गए हैं क्यूंकि उन्हें पता लग गया था कि आर्मी वाला ट्रक खाना -वाना खाने के बाद चल देगा।


हमें भी उसी ट्रक में आर्मी वालों के साथ जगह मिल गई और आज उस रास्ते को ट्रक से पार कर रहे थे जिस पर से कुछ दिन पहले ही गुजरे थे । लेकिन न जाने क्यों आज वो "Craziness " नहीं थी ।  तो क्या रास्तों ने चार ही दिन में अपनी खूबसूरती खो दी है ? नहीं ! हमारी आँखें Saturate हो चुकी हैं और अब कुछ नया देखना चाहती हैं । गर्ब्यांग गाँव गुजर गया जिसमें से होकर हम गए थे और वो ITBP की पोस्ट भी गुजर गई जिस पर पासवान जी बैठे थे । अब वहां कोई और थे जिन्होंने हमारे लौटने का Confirm किया अपने रजिस्टर में । सामने छियालेख दिख रहा था और वो मंदिर भी जिसके पास हमारी कैप गड्ढे में समा गई थी । चार बजे थे और हम छियालेख में थे ।  एक -एक कप चाय तो हो ही जाए और चाय के साथ मैग्गी भी । यहाँ मैग्गी 50 रूपये की मिली मतलब सबसे ज्यादा ।  अब तक हर जगह 30 या 40 की ही थी लेकिन यहाँ 50 की । इस मामले में उनसे बहस नहीं करेंगे और जितना कहा है उतना देकर बुद्धी गाँव की तरफ चलेंगे ।

छियालेख की जो चढ़ाई है वो जाते हुए जितनी कठिन लगी उतनी ही अब आसान लग रही थी । दोपहर की चांदनी शाम के कपड़े पहनने को तैयार हो रही थी और शाम अपने पूरे श्रृंगार के साथ छियालेख की सीढ़ियों पर उतर रही थी लेकिन सामने से एक खूबसूरत कमसिन सीढ़ियां चढ़ रही थी अकेली । तेज -तेज चलती साँसों को Control करते हुए उसने पूछा -छियालेख पर कोई गाडी खड़ी है क्या ? अभी हम एक घंटे ​पहले ही आये हैं शायद खड़ी होगी लेकिन आप कहाँ जाओगे ? गुंजी ! अकेले ?  इस रात में ? हाँ -कोई परेशानी नहीं ! फिर 10 -15 मिनट बैठे रहे । .. B.A फाइनल ईयर की छात्रा थी और किसी भी नकली मेकअप करने वाली से ज्यादा सुन्दर । ..  वो तो चली गई लेकिन मुझे सवालों के घेरे में छोड़ गई !! हम जो शहरी सभ्य हैं .... क्या हमारी बहन -बेटियां अकेले ऐसे वीराने में 30 किलोमीटर जा सकती हैं ? सोचियेगा जरूर !!

रात की रानी अपनी आभा फैलाये बुद्धी गाँव में हमारा इंतज़ार कर रही थी और शायद इंतज़ार नारायण सिंह जी को भी था हमारा । वही गेस्ट हाउस , वही बिस्तर और वही नारायण सिंह जी । आज की शाम रंगीन है और यहाँ बुद्धि गाँव में कुछ और भी ज्यादा रंगीन लग रही है .... कल मिलते हैं


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मेहनत की मिल जाए तो.......













ज़ारी रहेगी:

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