रविवार, 4 जून 2023

Bahu Fort Jammu

 जम्मू कश्मीर यात्रा 

फिर से एक और यात्रा पर निकला था लेकिन लिखने में बहुत देर हुई है , क्षमा चाहता हूँ आप सभी से ! लेकिन आपको इस यात्रा में कुछ जानी पहचानी और कुछ ऐसी जगहें दिखाने वाला हूँ जिन्हें आपने पहले कभी नहीं देखा होगा ! आपने शायद उनके बारे में कभी सुना भी नहीं होगा  ! 


मैं जून 2022 में एक लम्बी और शानदार जम्मू कश्मीर यात्रा पर निकला था , कुल 14 दिन की यात्रा के लिए ! इस यात्रा में से पांच दिन मैं जम्मू में ही रहा और आसपास की कुछ जानी -कुछ अनजानी जगहों तक भी पहुंचा।  



तारीख थी 25 जून 2022 , और मैं जिंदगी में दूसरी बार जम्मू रेलवे स्टेशन उतर चुका था।  सुबह के 8 या साढ़े आठ ही बजे होंगे। मेरा बैग कपड़ों से एकदम ठसाठस भरा था , गर्मी के भी कपडे थे और गर्म कपडे भी थे।  न न , जम्मू में जून में सर्दी नहीं पड़ती ! सर्दी पड़ती है अमरनाथ की यात्रा में ! मेरे बैग में अमरनाथ यात्रा का रजिस्ट्रेशन भी था पहले ही दिन का।  पहला दिन -पहला शो ! अमरनाथ यात्रा की बात बाद में करेंगे पहले जम्मू की बात कर लेते हैं।  


तो जम्मू पहुँच गया जी।  मैंने सोचा -अमरनाथ यात्रा का रजिस्ट्रेशन तो है ही मेरे पास तो भगवती नगर में ही जाकर रुकता हूँ।  पूरा तामझाम लेकर भगवती नगर पहुंचा तो बोले भैया अभी यहाँ कुछ नहीं है , 30 जून से यात्रा है तो 29 को ही आइये।  बैग फिर से पीठ पर लटकाया और पैदल पैदल वापस लौटने लगा कि कुछ मिल जाए E-रिक्शा वगैरह।  पास में ही एक मंदिर दिखा तो वहां पहुंचा।  रुकने की ख़ास व्यवस्था नहीं थी मगर चाय -पूड़ी और सब्जी मिल गई वहां।  वहां से निकला तो धीरे -धीरे चलने लगा ... कोई गर्ल्स कॉलेज था जिसकी दीवारों पर बहुत बेहतरीन पेंटिंग बनाई हुई थी।  कुछ फोटो लिए और अपना रास्ता पकड़ लिया।  लौट के स्टेशन पर आया तो पता चला -एकदम पास में ही वैष्णो देवी धाम के तीन रेस्ट हाउस हैं ! वैष्णवी , सरस्वती और कालिका धाम ! मुझे सरस्वती में 150 रूपये में AC डॉरमिटरी मिल गई।  आनंद आ गया ! इतना सस्ता और स्टेशन के एकदम पास ! 



मैं इस इरादे से गया था कि अमरनाथ यात्रा से लौट के , कश्मीर घूमते हुए हिमाचल में ट्रैकिंग भी करूँगा।  इसी उद्देश्य से स्लीपिंग बैग और टेंट भी लेकर गया था।  वजन ज्यादा लगने लगा था तो बाद में , जोधपुर के रहने वाले और जम्मू में पोस्टेड मित्र सुखाराम बिश्नोई जी के पास ये सामान छोड़ दिया।  पहला दिन था जम्मू में ! घूमने को बहुत था इधर लेकिन शुरू कहाँ से करूँ ? एकदम नहाधोकर फ्रेश हुए और निकल पड़े बहु फोर्ट देखने।  फोर्ट के आसपास की दीवारों पर भी सुन्दर कृतियां उकेरी हुई हैं जो जम्मू की पहचान को व्यक्त करती हुई दिखती हैं।  




आगे बढ़ें -इससे पहले कुछ इस किले का इतिहास भी जान लेंगे तो और अच्छा है ! 

बहू किला जम्मू के सबसे पुराने किलों में से एक है, जिसे राजा बाहुलोचन ने लगभग 3000 साल पहले बनवाया था और बाद में 19 वीं शताब्दी में किंग्स ऑफ डोगरा राजवंश द्वारा पुनर्निर्मित किया गया था। इस किले का धार्मिक महत्व भी है,क्योंकि यहां काली माता का भी एक सुन्दर मंदिर है जिन्हें स्थानीय  लोग  “बावली वाली माता” कहकर पुकारते हैं। 





इस किले का संबंध बहू लोचन और राजा जम्बू लोचन से है, दोनों राजा अग्निगर्भ द्वितीय के पुत्र थे जो सूर्यवंशी वंश के थे। अग्निगर्भ के 18 पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र, बहू को जम्मू शहर के विकास के साथ-साथ किले के लिए भी श्रेय दिया गया है। इस किले की प्रागैतिहासिक संरचना कई वर्षों पहले से एक सुसज्जित संरचना में बदल गई। ऑटार देव जो शासक कपूर देव के पोते थे, ने 1585 में इसी स्थान पर इस किले का पुनर्निर्माण कराया। कई वर्षों तक यह किला समय-समय पर ध्वस्त और पुनर्निर्माण करता रहता है, लेकिन अंतिम वर्तमान संरचना 19 वीं शताब्दी में महाराजा गुलाब सिंह द्वारा बनाई गई थी। इस किले को फिर से अपने शासन की अवधि के दौरान महाराजा रणबीर सिंह द्वारा पुनर्निर्मित किया गया था। 



ऐसा कहा जाता है कि एक दिन जब राजा शिकार पर थे, उन्होंने एक असामान्य दृश्य देखा- एक बाघ और एक बकरी बाघ पर हमला किए बिना तवी नदी का पानी पी रहे थे! इसे ईश्वरीय संकेत मानते हुए। राजा ने तब यहां इस किले के साथ अपनी राजधानी स्थापित की थी। किला एक ऊंची पठारी भूमि है, जो तवी नदी के बाईं ओर है।





किले की वास्तुकला स्पष्ट रूप से डोगरा शासकों के भव्यता को दर्शाती है। बहू किले के चारों ओर एक बगीचा है। इसे बाग-ए-बहू कहा जाता है और यह एक बहुत अच्छी तरह से Maintained garden है जिसमें सुंदर फूलों के बिस्तर, फव्वारे और उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा भूमिगत मछलीघर यानी Aquarium भी है।

बाग़ और एक्वेरियम जाने के लिए अलग -अलग टिकट लगता है।  शायद 25 या 30 रूपये का टिकट था।  मैंने गार्डन घूमना तय किया और जा पहुंचा एक बनेहड़ खूबसूरत बाग़ देखने।  करीब दो घण्टे लग गए , शायद और भी घूमता थोड़ा बहुत लेकिन फ़ोन की रिंग बजने लगी थी।  दूसरे गेट पर मित्र सुखाराम बिश्नोई इंतज़ार कर रहे थे।  उनसे पहली बार मिलना हो रहा था , हालाँकि हम सोशल मीडिया के माध्यम से कई सालों से परिचित थे।  

अगली जगह निकलेंगे अब और सच मानिये वो जगह अनूठी भी है , सुन्दर भी है और शायद आपने उसके बारे में सुना भी नहीं होगा ! मिलते हैं जल्दी ही 

शनिवार, 8 अप्रैल 2023

Chandrakanta Mahal Vijaygarh Fort Sonbhadra

 

 सोनभद्र शहर का नाम आपने शायद नहीं सुना होगा और सुना भी होगा तो देखा बिलकुल नहीं होगा... लेकिन चंद्रकांता का नाम जरूर सुना होगा ! चंद्रकांता नाम से देवकीनंदन खत्री का एक टीवी सीरियल खूब चला था जिसके कुछ किरदार बहुत ही ज्यादा प्रसिद्ध हुए जिनमें यक्कू को कौन भूल सकता है ?       

                    

चंद्रकान्ता हिन्दी के शुरुआती उपन्यासों में है जिसके लेखक देवकीनन्दन खत्री हैं। सबसे पहले इसका प्रकाशन सन 1888 में हुआ था। यह लेखक का पहला उपन्यास था। यह उपन्यास अत्यधिक लोकप्रिय हुआ था और तब इसे पढ़ने के लिये बहुत लोगों ने देवनागरी/हिन्दी भाषा सीखी थी। यह तिलिस्म और ऐयारी पर आधारित है और इसका नाम नायिका के नाम पर रखा गया है।

इसने नीरजा गुलेरी के इसी नाम के मेगा बजट टीवी धारावाहिक को प्रेरित किया जो  भारतीय टेलीविजन के इतिहास में सबसे बड़े ब्लॉकबस्टर में से एक बन गया 

                      

चन्द्रकान्ता को एक प्रेम कथा कहा जा सकता है। इस शुद्ध लौकिक प्रेम कहानी को, दो दुश्मन राजघरानों, नौगढ़ और विजयगढ के बीच, प्रेम और घृणा का विरोधाभास आगे बढ़ाता है। विजयगढ की राजकुमारी चंद्रकांता और नौगढ के राजकुमार वीरेन्द्र विक्रम को आपस में प्रेम है। लेकिन राज परिवारों में दुश्मनी है। दुश्मनी का कारण है कि विजयगढ़ के महाराज नौगढ़ के राजा को अपने भाई की हत्या का जिम्मेदार मानते है। हालांकि इसका जिम्मेदार विजयगढ़ का महामंत्री क्रूर सिंह है, जो चंद्रकांता से शादी करने और विजयगढ़ का महाराज बनने का सपना देख रहा है।

                       

राजकुमारी चंद्रकांता और राजकुमार विरेन्द्र विक्रम की प्रमुख कथा के साथ साथ ऐयार तेजसिंह तथा ऐयारा चपला की प्रेम कहानी भी चलती रहती है। कथा का अंत नौगढ़ के राजा सुरेन्द्र सिंह के पुत्र वीरेन्द्र सिंह तथा विजयगढ़ के राजा जयसिंह की पुत्री चन्द्रकांता के परिणय से होता है।
                      

अब अपने यात्रा वृतांत पर आते हैं। वाराणसी और मिर्ज़ापुर के वॉटरफॉल्स देख के मैं रॉबर्ट्सगंज पहुँच गया था।  उस वक्त शाम के छह बजे थे , रॉबर्ट्सगंज के बस स्टेशन के बाहर बहुत ज्यादा खाने पीने का कुछ  नहीं दिख रहा था। एक दूकान पर चाय पीने बैठ गया तो उन्ही से आसपास रुकने और खाने की बात करने लगा।  पास में ही एक होटल बताया  रुकने को -सिर्फ 150 रूपये में ! कमरा देखा तो बहुत गंदा और बिस्तर तो और भी गंदा। वापस आ गया उसी चाय की दूकान पर ---- एक और चाय खींची , इस बार समोसे के साथ ! वो बोले-एक होटल और है !  मगर थोड़ा महंगा है ! कितने का होगा ? होगा 400 -500 का ! आपको ये बहुत सस्ता लग रहा होगा लेकिन रॉबर्ट्सगंज के हिसाब से ये "थोड़ा महंगा " ही था लेकिन होटल साफ़ सुथरा और नया बना हुआ था ! 100 रूपये एक्सट्रा देकर AC वाला रूम मिल गया ! खाने के लिए उसी चाय की दूकान पर पहुँच गया रात 9 बजे !

                        

अगला दिन था ! नहाधोकर होटल से निकल गया !  जुलाई की उमस सुबह से ही अपना आभास दे रही थी और पसीना माथे से टपकने लगा था।  सुबह के आठ ही बजे होंगे ,मुझे बताया गया "वहां" से सीधे कुछ मिल जाएगा आपको चातेरी या शायद चतरा जाने के लिए।  ऑटो में बैठा ,बैठा रहा ! मेरे साथ एक स्कूल की मैडम और थीं ,सरकारी प्राइमरी स्कूल की मैडम ! उस ऑटो की सवारी पूरी ही नहीं हुई और अंततः लगभग 40 मिनट बैठे रहने के बाद दोनों पैदल ही आगे बढ़ गए ! अब वो आगे आगे और मैं उनके पीछे :) मेरी डोरी उनसे बंधी हुई थी लेकिन ये डोरी चतरा तक ही बंधी रह पाई ! मुझे वहीँ उतरना था ! 

                              

चतरा उतर तो गया लेकिन चंद्रकांता महल वाला विजयगढ़ फोर्ट तक जाने के लिए  व्यवस्था नहीं थी कोई ! सोचा कि चलो  चलना शुरू  करते हैं , कोई मिल  जाएगा  तो लिफ्ट लेने की कोशिश करूँगा।  100 -200 मीटर चलने के बाद ही एक ट्रैक्टर मिल गया , एक किलोमीटर भी नहीं पहुंचे होंगे कि उसने रास्ता बदल दिया ! उतरना ही पड़ा ! फिर चलने लगा। ... इस बार मास्टर जी मिल गए जो किसी स्कूल में पढ़ाने जा रहे थे।  प्रेमपाल नाम था उनका। . उन्होंने अपने स्कूल के रास्ते को छोड़कर एक दो किलोमीटर का रास्ता तय करा दिया ! मुझे चतरा से 18 किलोमीटर दूर बताया गया था चंद्रकांता महल।  अर्थात मैं लगभग चार-पांच  किलोमीटर का रास्ता तय कर चूका था ! अब फिर चलने लगा -उमस ने जान निकाल रखी थी ! जुलाई में तो वैसे भी गर्मी और उमस अपने शबाब पर होती हैं ! एक जगह जहाँ से रास्ता चुर्क के लिए कटता है वहां से ठण्डा पानी मिल गया।  रास्ते में धंधरौल बाँध मिला जिसकी अथाह जल राशि इसे खूबसूरत बना रही थी।  मास्टर जी ने यहां से आगे एक गांव मऊखुर्द तक छोड़ दिया था।  

                          

        दोपहर होने लगी थी तो यहाँ एक मंदिर के बाहर पेड़ों की छाँव में सुस्ताने लगा।  कुछ लोग पास आये -खाना खाएंगे ? नहीं। ..नहीं ! चाय ? ना ना। .. ठण्डा पानी हाथ में था ! अपनी तरह का अलग शिवलिंग देखा यहाँ तो फोटो खींच लिया।  चलने लगा। . उधर से आते हुए कई गाड़ियां दिखीं लेकिन इधर से या तो दिखी ही नहीं या जो दिखीं उन पर पहले से ही दो -दो तीन -तीन सवारियां जमी हुई थीं ! गाड़ियों से यहाँ मेरा मतलब मोटर साइकल्स से है ! कार यहाँ कभी कभार ही देखने को मिला करती हैं ! सड़क अच्छी है लेकिन अधिकतर वीरान रहती है... . बिजली है............ 4G नेटवर्क भी आ जाता है कभी कभी ! सब कुछ है बस पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं है इस फोर्ट के लिए।  



एक हल्का सा बैग मेरे कंधे पर था जिसमें बिस्कुट के तीन -चार पैकेट पड़े थे , उनमे से एक निपटाया ! बकरियों के झुण्ड को ले जाते एक बुजुर्ग मिल गए तो एक पैकेट उन्हें पकड़ाया ! दोपहर के एक बज चुके थे। ... रास्ता एकदम वीरान ! इधर से भी और उधर से भी। .. दोनों तरफ घना जंगल ! कोई गाडी इधर या उधर से जब भी गुजरती , भले वो मुझे लिफ्ट नहीं दे रहे थे लेकिन मुझे ये एहसास जरूर दिला जाते थे कि तू सुरक्षित है ! एक मोपेड लिए श्रृंगार का सामान गाँवों में बेचने जा रहा था , रुक गया ! बोला -थोड़ा ! संभलकर चलना भाई ! भेड़िया वगैरह निकल जाते हैं कभी कभी ! 

और जंगल ! फोर्ट से बस थोड़ा ही पहले खत्म हुआ होगा बल्कि खत्म ही नहीं हुआ फोर्ट तक भी ! फोर्ट पर आवाजाही की वजह से रास्ता थोड़ा चौड़ा कर दिया गया है इसलिए एक आभास सा होता है की जंगल खत्म हो गया है ! वास्तव में ऐसा नहीं है।  अंततः लगभग पौने तीन बजे मैं 14 किलोमीटर की पैदल यात्रा के बाद विजयगढ़ फोर्ट के सामने था।  बाहर एक दो दूकान हैं खाने -पीने की।  एक ठो कोल्ड ड्रिंक और वहां के स्थानीय घास फूस के पकोड़े खाकर फोर्ट के प्रवेशद्वार की तरफ चल पड़ा।  प्रवेशद्वार भी लगभग 200 -220 सीढ़ियों के बाद आता है , अच्छी खासी चढ़ाई है वहां तक भी।  



झाड़ -झंखाड़ से भरे इस फोर्ट की चाहरदीवारी टूट फूट गई है कई जगहों से। मैंने प्रवेशद्वार से अंदर जाते हुए लेफ्ट से चलना शुरू किया -ये खण्डहर जरूर हैं ! लेकिन इतिहास के आईने हैं ! आईने हैं राजकुमारी चंद्रकांता और राजकुमार वीरेंद्र के प्रेम के।  आईने हैं एक प्रेम कहानी के जिसे शब्दों में गूंथकर देवकीनंदन खत्री जी ने जन जन तक पहुंचाया और जिसे चलचित्र के माध्यम से गुलेरी जी ने घर घर में प्रसिद्ध कर दिया।  यहाँ के खंडहरों से भुतहा आवाजें नहीं आतीं , सुगंध आती है ! सुगंध इस पावन धरती की , सुगंध सच्ची मुहब्बत की , सुगंध प्रकृति की और सुगंध ! प्रकृति से जुड़े यहाँ के लोगों के सात्विक विचारों की।  पवित्र सीता कुण्ड से आगे बढ़ा तो किसी महल के किसी हिस्से के कुछ स्तम्भ दिखे जो दूर से देखने पर बहुत आकर्षित कर रहे थे।  आगे एक और पवित्र कुण्ड है जिसे रामकुण्ड कहते हैं।  यहीं एक मंदिर बना है ! कहते हैं कि आसपास के गाँवों के लोग इसी कुण्ड से अपनी कांवड़ यात्रा शुरू करते हैं और इस कुण्ड में कभी भी जल सूखता नहीं है।  


मंदिर में एक बाबा मिल गए।  थोड़े नाटे कद के हैं , झारखण्ड के किसी गाँव के रहने वाले हैं।  नाम -षणमुखानंद बताया मुझे ! अब मैं उनके घड़े से एक गिलास पानी पीकर उनके साथ आगे बढ़ता हूँ , वो चंद्रकांता महल देखने जिसकी ख्वाहिश तबसे थी जबसे इस जगह का नाम सुना है।  बाबा मुझे सब जगह घुमाते हैं।  और अब लगभग शाम के पांच बजने को हैं , मैं बाबा के साथ उनकी कुटिया में प्रवेश करता हूँ।  बाबा एक कप चाय और कुछ मीठा मुझे खाने को देते हैं और वहां पहुंचे कुछ लोगों और अपने यजमानों की एक डायरी दिखाते हुए मुझे आज यहीं रुक जाने का अनुरोध करते हैं। मैं बाबा को कुछ दक्षिणा देता हूँ। ...  मुझे लेकिन लौटना होगा ! 

                      

अभी आधा घण्टा और लग जाता है मुझे फोर्ट में और फिर मैं पूरा एक चक्कर करते हुए वापस उस जगह पर हूँ जहाँ से इस फोर्ट के अंदर गया था।  सीढ़ियां उतर के जल्दी जल्दी उस रास्ते पर लौटने लगता हूँ जिस रास्ते से भरी दोपहर में मैं फोर्ट गया था।    



पीछे से एक बाइक की आवाज आने लगती है , मैं इस उम्मीद में कि शायद लिफ्ट मिल जाए , रुक जाता हूँ।  इस बार भगवान् ने सुन ली :) कोई महोदय हैं जो खुद रॉबर्ट्सगंज से यहाँ आये थे। मतलब पूरे रास्ते के लिए जुगाड़ बन गया।  रास्ते में कहीं बारिश आई तो मढ़ैया में चाय पीने रुक गए , पैसे भी उन्होंने ही दिए। वो चुर्क होते हुए मुझे मेरे होटल से लगभग दो किलोमीटर दूर एक रास्ते पर छोड़ देते हैं।  अंधेरा घिरने को है लेकिन आज मैं बहुत खुश हूँ , एक ऐसी जगह होकर आया हूँ जो वर्षों से मेरी wishlist में थी ! 

रविवार, 9 अक्तूबर 2022

Kakbhushundi Trek Uttarakhand Blog : Day 7 From Farswan Top to Painka village

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रात जरुर बहुत मुश्किल थी लेकिन सुबह उतनी ही ठण्डी और सुहावनी थी मगर चाय के लिए न दूध बचा था न नीबू था  इसलिए चाय बस ... चाय पत्ती और चीनी मिला हुआ गरम पानी ही था।  हाँ ! मैग्गी जरूर मिल गई और गर्मागर्म मैग्गी खाकर शरीर में जान भी आ गई और .....गर्मी भी।  


इस भयंकर ट्रैक का ये आखिरी दिन था हमारा।  भयंकर दोनों तरह से -खूबसूरत भी भयंकर और रिस्क भी भयंकर ! फर्स्वाण टॉप पर थे हम 4166 मीटर की ऊंचाई पर टंगे थे और यहाँ से जोशीमठ के साथ -साथ औली और उर्गम घाटी का जबरदस्त नजारा दिखाई दे रहा था।  जोशीमठ और औली एकदम किसी हरेभरे कटोरे जैसे दिखाई दे रहे थे फर्स्वाण टॉप से। खूब फोटोग्राफी की क्योंकि जो दृश्य इस वक्त दिखाई दे रहा था उसे जीवन भर देखने और उसे महसूस करने के लिए ये फोटो और वीडियो  ही एकमात्र माध्यम रहेंगे हमारे लिए। 



फर्स्वाण टॉप से उतरते हुए एकदम लगातार उतराई ही उतराई है और ऐसी उतराई है कि आपको हमेशा ऐसा महसूस होगा कि अब गिरे कि तब गिरे ! लगभग 500 मीटर चलने के बाद slope थोड़ा कम होता है लेकिन उतराई बनी रहती है और जब आप करीब एक किलोमीटर उतरने के बाद एक ऐसे पत्थर के नीचे पहुँचते हैं जहाँ वो पहाड़ से आगे निकला हुआ है , वहां तक आप 500-600 मीटर की ऊंचाई कम कर चुके होते हैं।  यानी इस एक किलोमीटर की दूरी में आप 4166 मीटर की ऊंचाई से 3500 -3600 मीटर की ऊंचाई तक पहुँच जाते हैं और थोड़ा सा और आगे चलते ही आपको Treeline देखने को मिलने लगती है।  यहाँ आपको पगडण्डी देखने को मिल जाती है क्यूंकि पैंका गाँव के लोग फर्स्वाण टॉप तक अपनी भेड़ बकरियों और गायों को चराने के लिए लाते रहते हैं। 



ये जो पगडण्डी है उस पर चलते हुए पहाड़ के दूसरी तरफ देखने पर आपको लगातार हिमालय के सुन्दर दृश्य दिखाई देते रहते हैं।  मौसम साफ़ हो तो आपको हिमालय की अद्भुत खूबसूरत और बर्फ से लकदक चोटियां एकदम साफ़ दिखाई देती हैं।  हलकी उतराई -चढ़ाई करते हुए आप एक ऐसी जगह पहुँचते हैं जहाँ बैठने के लिए भी खूब जगह है और जहाँ से पैंका गाँव पहली बार दिखाई देता है।  यहाँ से आप वीडियो कॉल भी कर सकते हैं।  हालाँकि मोबाइल सिग्नल आपको फर्स्वाण टॉप पर भी मिल जाएंगे लेकिन वहां नेटवर्क ढूंढना पड़ता है जबकि यहाँ एकदम बढ़िया नेटवर्क मिल जाता है और लगभग हर कंपनी के नेटवर्क मिल जाते हैं।  



इस जगह के बारे में गाइड ने एक डरावनी बात बताई थी ! सच है या नहीं , मैं नहीं जानता !  गाइड के शब्दों को ही ज्यों का त्यों लिख रहा हूँ यहाँ : एक गाँव (पैंका नहीं )  की लड़की को दूसरे गाँव के लड़के से प्यार हो गया था , ये करीब 20 वर्ष पुरानी बात है ! उस लड़की के परिवार वालों को ये बात नागवार गुजर रही थी और अंततः उस लड़की के घरवालों ने उस लड़के को पकड़ लिया और उसे यहाँ ले आए।  यहाँ उन लोगों ने उस लड़के की हत्या कर दी और कई महीनों के बाद पुलिस उस लड़के के खून से सने कपडे ढूंढ पाई  और आख़िरकार  उन लोगों को सजा मिली।  


आज हमें फर्स्वाण टॉप से पैंका गाँव तक की करीब 15 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी और सिर्फ तय ही नहीं करनी थी बल्कि समय से तय करनी थी जिससे हम आगे जोशीमठ तक जा सकें और अगली सुबह अपने अपने घर के लिए प्रस्थान कर सकें।  हम उसी खुली सी ऊँची जगह पर बहुत देर तक बैठे रहे जबकि कुछ मित्र आगे जा चुके थे।  यहाँ से पैंका गाँव दिखाई तो दे रहा था लेकिन अभी बहुत दूर था। लगातार नीचे उतरते रहे और अब रास्ता खो गया।  बहुत बड़ी बड़ी घास में से निकल रहे थे और इसका नुकसान ये हुआ कि घास में छुपे पत्थरों से टकरा -टकराकर मेरे सहित कई मित्र गिरे और पटियाला से आये सुशील भाई तो बहुत बुरी तरह गिरे।  वो एक छोटे पत्थर से टकराकर बड़े पत्थर पर जाकर गिरे जिससे उनके सीने में बहुत चोट लग गई।  डॉक्टर अजय त्यागी जी साथ थे मगर हमें डर सताता रहा की कहीं कोई पसली में चोट न लग गई हो ! फिर बहुत मुश्किल हो जाता ! तो .... ऐसे होते हैं ट्रैक और ऐसी होती है ट्रैकिंग ! 



बहुत देर तक सुशील भाई के सीने पर Iodex की मालिश करते रहे लेकिन दर्द तो था ही और वो दर्द उन्हें ही झेलना था , हम केवल उनकी मदद कर सकते थे उनका दर्द नहीं ले सकते थे।  काश! हम सब उनका दर्द भी थोड़ा -थोड़ा बाँट सकते तो उनका दर्द कुछ कम होता।  



हम पांच लोग साथ थे उस वक्त तक।  मैं , डॉक्टर अजय त्यागी जी , सुशील भाई , कुलवंत जी और त्रिपाठी जी।  डॉक्टर साब आगे चल रहे थे मगर घास के खत्म होते होते एकदम घना  जंगल  शुरू हो गया।  डॉक्टर साब एक जगह मुझे अकेले बैठे मिले तो मैंने हँसते हुए पूछ लिया -डॉक्टर साब डर लग रहा है क्या ?  अरे नहीं योगी जी ! थक सा गया हूँ ! उन्हें पता नहीं डर रहा था या नहीं लेकिन मुझे तो लग रहा था लेकिन अच्छी बात ये थी कि हम सभी के फ़ोन चल रहे थे और गाइड / पॉर्टर हमें लगातार रास्ता बताये जा रहे थे। कहीं -कहीं पगडण्डी भी दिख जाती थी।  




मैं  अकेला ही चला जा रहा था , डॉक्टर त्यागी आगे निकलकर आँखों से ओझल हो चुके थे पीछे वाले तीनों लोग ज्यादा ही दूर रह गए थे।  एक जगह कई सारे लंगूर दिखाई दे गए और वो सब के सब ऐसे रास्ता रोके बैठे थे कि -बेटा पहले यहाँ की चुंगी चुका के जा तब आगे जाने देंगे तुझे !  मैं 10 -15 मिनट तक हुर्र हुर्र कर के उन्हें भगाता रहा।  



एक जगह दूर कहीं जली हुई सी लकड़ी पड़ी थी लेकिन एकदम से जब उस पर मेरी नजर पड़ी तो मैं पसीना -पसीना हो गया ! मुझे लगा ये कोई भालू है जो इस वक्त सोया पड़ा है। मैं एक पेड़ के पीछे जाकर उसका movement देखने लगा लेकिन जब कुछ देर तक उसमें कोई मूवमेंट नहीं हुआ तो हिम्मत कर के पेड़ के पीछे से निकलकर आया और उसे गौर से देखा फिर अपनी ही मूर्खता पर हंसने लगा।  ये शायद मूर्खता से ज्यादा तेज नजर थी क्यूंकि बहुत ही घना जंगल था / है वो।  



सैकड़ों तरह के वृक्ष और खाली जगहों में खिलखिलाते फूल जैसे मेरे साथ इस ट्रैक के पूरा होने का जश्न मना रहे थे। मैं फूल नहीं पहचानता , शायद कोई वनस्पति विज्ञानं का जानकार ही इतने फूलों को पहचान सकेगा लेकिन एक कुकुरमुत्ता (Mushroom ) बड़ा सुन्दर लगा।  उसकी फोटो लगाऊंगा।  




एक जगह थोड़ा फंस गया मैं।  आगे एक जगह वॉटरफॉल जैसा दिख रहा था लेकिन ये Natural waterfall नहीं था बल्कि पत्थरों को जोड़ जोड़कर पानी को रोका गया था जिससे ये जगह वॉटरफॉल जैसी बन गई थी लेकिन इसे पार करना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था।  आसपास दूसरा रास्ता देखने को नजर दौड़ाई तो रास्ता तो नहीं दिखा , दूर झाड़ियों में से झांकता एक छोटा मगर खूबसूरत वॉटरफॉल जरूर नजर आया।  आख़िरकार जूते उतारे और लोअर ऊपर चढ़ाया , लेके राम जी का नाम ... उस वॉटरफॉल को भी पार कर आया  ! 




गाइड और पॉर्टर फ़ोन पर बार -बार ये पूछते रहे -सर ग्रीन हट तक पहुँच गए क्या ? ग्रीन हट तक पहुँच गए क्या ? ये ग्रीन हट असल में वन विभाग की बनाई हुई है जहाँ शायद आपकी परमिशन चेक होती होगी !  ये बिलकुल जंगल के बीच में है और यहाँ मुझे कुछ जली हुई लकड़ियां , पानी का एक घड़ा और थोड़े मिटटी के बर्तन दिखाई दिए।  शायद रात में रुकने का कुछ इंतेज़ाम भी रहता हो लेकिन इसमें जो दरवाजा लगा था उसमे टाला बंद था तो अंदर नहीं देख पाया।  अगर कैसे भी हमें यहाँ कोई परमिशन चेक करने वाला मिल जाता तो हम तो पकड़े जाते :) हमारे पास परमिशन थी ही नहीं और परमिशन न ले पाने का जिक्र मैं इस ट्रेक की पहली ही पोस्ट में कर चूका हूँ जब हम गोविंदघाट से निकले थे ! खैर अगर कोई मिलता भी तो देखा जाता ! 



शाम के लगभग चार बजने को थे जब पहली बार पैंका गाँव के बाहर स्थित गाँव के मंदिर के ऊपर लगा झंडा दिखा देने  लगा था।  मंदिर के पीछे की एक पहाड़ी पर बहुत ऊंचाई से गिरता झरना शानदार समापन कर रहा था हमारी इस जबरदस्त यात्रा का।  मंदिर के आगे शीश झुका कर भगवान को सुरक्षित इस ट्रैक से वापस लाने के लिए उनका धन्यवाद किया।  मंदिर बंद था लेकिन उसके आगे बैठकर अपने आप को खोजता रहा कुछ देर तक ! क्या मैं इस लायक था ? क्या एक भयंकर रूप से अस्थमा से पीड़ित रहा यहाँ इस ट्रैक पर आने लायक था ? लेकिन जिस के सर पर भगवान शिव का हाथ होता है वो सब कर लेता है !  


जैसे ही पैंका गाँव में प्रवेश किया , हरजिंदर भाई और हनुमान गौतम जी चटाई पर थकान उतारते हुए दिखे एक घर के बाहर। वो दोनों बहुत पहले ही यहाँ आ चुके थे और स्नान करने के बाद लस्सी भी खेंच चुके थे , शायद खाना भी खा चुके थे :) मुझे और डॉक्टर साब को भी चाय मिल गई :) वैसे भी आज सुबह चाय नहीं मिल पाई थी ! बहुत देर तक उनके यहाँ बैठे रहे ! सुन्दर और संपन्न गाँव है पैंका।  पॉर्टर ने सरकारी स्कूल में खाना बना रखा था और ये आज का , इस ट्रैक का हमारा अंतिम भोजन था।  


गाँव से उतर के नीचे विष्णुप्रयाग तक पहुंचे जहाँ से कुछ लोगों को वापस गोविंदघाट जाना था और मुझे गाइड / पोर्टरों के साथ जोशीमठ पहुंचना था।  रात करीब 8 -8 :30 बजे मैं , हनुमान जी , त्रिपाठी जी और सभी पोर्टरों के साथ भरी बारिश में जोशीमठ एक होटल में पहुंचा और सुबह 5 बजे की पहली बस लेकर हरिद्वार और फिर गाजियाबाद !! 



जय हो कागभसुण्डी महाराज की !!