शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

Adi Kailsh Yatra - Second Day ( Nzong Top to Buddhi)

इस यात्रा वृतांत को शुरू से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करिये  !!

यात्रा​ तिथि :  13 June -2018
नजोंग टॉप स्थाई गाँव या बस्ती नहीं है , यहां यात्रा के समय में एक नेपाली परिवार और पास के ही गाँव मालपा के रहने वाले दो लोग अपने - अपने तिरपाल लगाकर हम जैसे यात्रियों की सुविधा के लिए खाने और रुकने का इंतेज़ाम कर देते हैं। हम करीब शाम छह बजे नजोंग टॉप पहुँच चुके थे और उसी नेपाली के तिरपाल में पहुँच गए। दो मित्र पहले ही वहां लंबलेट हुए पड़े थे। साफ़ सुथरा और बड़ा बना रखा था जिसमें एक तरफ उनकी किचन और अपना "घर " था जबकि दूसरी तरफ यात्रियों के रुकने के लिए जगह बनाई हुई थी जो जमीन से करीब तीन फुट ऊँचा होगा। अकेली महिला ही पूरा काम संभाल रही थी , उसका पति शायद कहीं गया था। हमने चाय बोल दी और खाने के लिए भी कह दिया , जितनी देर में हमने चाय निपटाई कोठारी जी का मन बदल गया और बोले -थोड़ा कहीं और आगे रुकेंगे। शाम घिरने को थी और आगे जाने का मन नहीं था न मेरा न हरजिंदर का लेकिन कोठारी जी ने कुछ सोचकर -समझकर ही फैसला लिया होगा तो निकल पड़े , लेकिन भरत जोशी जी वहीँ रह गए। अब हम तीन थे , मैं , कोठारी जी और हरजिंदर। सबसे ऊँचे स्थान पर पहुँच गए जहां एक झोंपड़ी थी , उन्हीं की थी जो मालपा से थे। खाने का तो मिल गया लेकिन जब सोने के लिए पूछा तो उसने " यात्री शेड " दिखा दी। हालाँकि शेड में बहुत सारे रजाई -गद्दा और कम्बल थे लेकिन मुझे खुले में सोने में कुछ अजीब सा लगा। सिर पर तौलिया लपेटकर सो गया। सुबह जब जगे तो कोठारी जी के शब्द थे - भाई रात मैं तुम दोनों को यहां ले आया उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। ये कोठारी जी की सज्जनता थी जो उन्हें ऐसा एहसास हुआ था जबकि वास्तव में हमें कोई परेशानी नहीं हुई थी। कोठारी जी हैं ही ऐसे बिल्कुल साधारण , कोई बनावट नहीं। जहां बात पसंद नहीं आई वहां खुल के कहा और जहाँ गलती महसूस हुई वहां गलती को स्वीकार कर लिया। ट्रैकिंग वास्तव में है ही ऐसी चीज जो आपको कठिन चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत देती है , टीम में काम करने की शिक्षा देती है और ये भी कि अगर सामने वाले ने गलत फैसला ले लिया है तो उसके साथ मजबूती से खड़े होने की प्रेरणा देती है। हालाँकि कोठारी जी ने जो फैसला लिया था उससे किसी को कोई परेशानी नहीं हुई लेकिन उन्हें ऐसा लगा कि हमें रात वहीँ रुकना चाहिए था। मैं इतना बड़ा ट्रेक्कर नहीं हूँ लेकिन एक बात जो सीखी है वो ये कि आपको सामने वाले का सम्मान करना चाहिए और फैसले में साथ खड़े होना चाहिए।


हम इस वक्त करीब 2200 मीटर की ऊंचाई पर थे और लखनपुर से छह किलोमीटर दूर आ गए थे। आज हमारा इरादा लगभग 20 किलोमीटर दूर बुद्धि पहुँचने का है। ज्यादातर लोग धारचूला से सुबह जल्दी निकलकर पहले ही दिन बुद्धि पहुँच जाते हैं लेकिन हम तो कल निकले ही दोपहर में थे इसलिए नजंग टॉप तक ही आ पाए और करीब 100 फुट ऊँचे नजंग फॉल का जी भर के दीदार करते रहे। कल पहले ही दिन कुछ घंटे के ट्रेक में अच्छी खासी चढ़ाई चढ़ गए थे लेकिन आज शुरुआत में मालपा तक तो आसान रहेगा। काली नदी हमारे साथ साथ ही है , बस अंतर इतना है कि वो नीचे की तरफ आ रही है और हम ऊपर की ओर जा रहे हैं। पूरा रास्ता ही काली नदी के किनारे -किनारे चलता है। आप जैसे ही नजोंग टॉप से चलना शुरू करते हैं तो लगातार उतरते चले जाते हैं और बिल्कुल नदी के बराबर में चलने लगते हैं । हालाँकि आपके ही साथ -साथ खच्चर और खच्चर वाले भी चलते हैं तो थोड़ा संभलकर और पहाड़ी की दिशा में ही चलने में भलाई है लेकिन खच्चर तो जानवर ही है , उनसे बहुत बचकर चलने में भी उन्होंने दो बार मुझे लगभग दबोच डाला और एक बार "बिच्छू जड़ी " की झाड़ियों में घुसा दिया। बिच्छू जड़ी आपने देखी होगी , नहीं देखी तो फोटो मैं दिखा दूंगा। ये अगर शरीर पर छू जाए तो बहुत खुजली होती है और फिर तीन -चार घण्टे बाद ही आराम मिलता है। दो बार "बिच्छू जड़ी " ने काटा इस पूरी यात्रा में। अच्छा हाँ , इस रास्ते पर सिर्फ इंसान ही नहीं चलते खच्चर भी चलते हैं जो यात्रियों और सामान को लादकर ले जाते हैं। जब ये चलते हैं तो गोबर करते जाते हैं , कुछ वजन की वजह से भी इनका पेट ज्यादा ही खराब रहता है और हर 10 -20 -50 मीटर पर इनका गोबर निकलता रहता है जिससे पूरे रास्ते में मक्खियों की भरमार हो जाती है जो आपके मुंह और नाक में घुसने के लिए तैयार रहती हैं। मुझे पूछिए कितना कष्ट हुआ था जब एक मख्खी मेरे मुंह में चली गई थी , बुरी हालत हो थी उल्टी करते करते , फिर भी पता नहीं मक्खी निकली या कि पेट में ही "Digest " हो गई। मुंह पर कपड़ा बांधकर चलने में ही सुरक्षा है।

नजंग टॉप से मालपा की दूरी 6 किलोमीटर होगी और मालपा की ऊंचाई 2100 मीटर के आसपास रही होगी यानि हमें उतरना ही है और रास्ता भी ठीक बना हुआ है। मालपा में आज की तारीख में गाँव के नाम पर दो दुकान हैं बस जबकि ये जगह कभी बहुत गुलजार हुआ करती थी। अगर आप कुछ सालों पहले का कैलाश मानसरोवर यात्रा का रूट मैप देखेंगे तो उसमें आपको मालपा , पहले दिन का ठहराव दिखेगा लेकिन अब यहाँ ज्यादा कुछ नहीं है ! जो दो दुकानें हैं वो भी इन लोगों ने अपने रिस्क पर लगाईं हुई हैं जिससे हम जैसे लोगों को खाने -रहने का कुछ ठिकाना मिल जाय और उनको चार पैसे की आमदनी हो जाए। तो ऐसा क्या हुआ जो ये जगह एकदम से उजाड़ गई ? असल में मालपा भूकंप वाले क्षेत्र में आता है जहाँ 1980 में भी भूकंप आया था लेकिन सबसे बड़ी घटना 18 अगस्त 1998 को सुबह तीन बजे हुई जब कैलाश मानसरोवर यात्री गहरी नींद में सोये हुए थे और भयानक लैंडस्लैड लगभग पूरे मालपा गाँव को काली नदी में बहा ले गया था। उस वक्त पहाड़ों का खिसकना तो 16 अगस्त को ही शुरू हो गया था जिसमें तीन खच्चरों की मौत हो गई थी लेकिन 18 अगस्त को जो भारी तबाही मचाई उसमें 60 कैलाश मानसरोवर यात्रियों सहित कुल 221 लोगों की जान चली गई थी। इन मृतकों में बॉलीवुड हीरोइन पूजा बेदी की माँ और एक्टर कबीर बेदी की पत्नी प्रोतिमा बेदी का भी नाम था। प्रोतिमा बेदी भी शायद हीरोइन थीं , मुझे मालूम नहीं है क्योंकि फिल्मों में बहुत ज्यादा रूचि नहीं है मेरी। 


मालपा , आज भी है लेकिन सिर्फ कहने भर को ही है। यहां खाने -पीने की दुकान चलाने वाले हयात सिंह बता रहे थे कि 2014 में भी यहां आपदा आई थी जिसमें छह ITBP के जवान अपने जीवन से हाथ धो बैठे थे , उस आपदा के निशान अब भी दिखाई देते हैं। और शायद एक कारण ये भी रहा होगा कि आगे जो रास्ता पहले काली नदी के किनारे-किनारे जा रहा था वो अब ऊपर पहाड़ों में से होकर बना दिया गया है। हालाँकि काली नदी नीचे बहती हुई हमेशा दिखाई देती रहेगी। यहां मालपा नाम के अद्रश्य गाँव में 40 रूपये की मैग्गी और 10 रूपये की चाय लेकर आगे चल दिए। यहां से निकलते ही शानदार झरना बहता हुआ मिलता है , हालाँकि ज्यादा ऊँचा नहीं है लेकिन यहाँ बना लोहे का पुल इसकी सुंदरता में चार चाँद लगा देता है।

मालपा से हमारा अगला पड़ाव लमारी गाँव होगा लेकिन वहां रुकने का कोई इरादा नहीं है। रुकेंगे तो हम बुद्धि जाकर ही। लमारी गाँव , मालपा से करीब सात किलोमीटर की दूरी पर है और ऊंचाई भी 2410 मीटर है लेकिन मालपा और लमारी के बीच की दूरी में ये बार -बार की ऊंचाई और उतराई पसीना निकाल देती है। पहले पूरे ऊपर चढ़ना पड़ता है फिर उतरना पड़ता है। यहां से चलते ही धीरे -धीरे हम काली नदी से दूर ऊपर की ओर पहाड़ पर चढ़ने लगते हैं और फिर नदी से और दूर , और दूर जाने लगते हैं। रास्ते में जंगल आने लगता है , हालाँकि जंगल बहुत घना नहीं है और रास्ता भी ठीक बना हुआ है। कहीं -कहीं बीच में रास्ते के किनारे रेलिंग भी लगी हैं। पहले रास्ता नीचे से ही , काली नदी के किनारे -किनारे ही हुआ करता था लेकिन अब जो रास्ता है वो ऊंचाई पर से है और फिर लमारी से करीब एक किलोमीटर पहले वापस उसी काली नदी के किनारे आ जाता है। रास्ते में एक जगह आपको झरने से आता हुआ पीने का पानी मिलेगा , बोतल भर लेना अपनी।

फिर से याद दिला दूँ कि यही रास्ता कैलाश मानसरोवर के लिए भी जाता है इसलिए रास्ते को ठीक बनाये रखना भी जरुरी हो जाता है और रेलिंग के साथ -साथ यात्री शेड भी बनाये हुए हैं। लमारी से पहले हम चारों एक शेड में रुके हुए थे , मुश्किल से पांच मिनट ही हुए होंगे , एक भाईसाब दूसरी दिशा से यात्रा संपन्न करके आते हुए हमारे सामने वाली बेंच पर बैठ गए। दो लोग थे वो एक जवान सा और एक कुछ पचास प्लस के रहे होंगे। बैठते ही बोले - बहुत कठिन यात्रा है ये !! पता नहीं लोग क्यों आते हैं ! भाईसाब कांगड़ा , हिमाचल के रहने वाले हरजीत सिंह थे। उन्होंने बताया - दो दिन आर्मी कैंप में रहा ! क्यों ? दारु बहुत पी थी इसलिए सांस लेने में दिक्कत आ रही थी !! दारु क्यों पी इतनी ? अरे यहां कच्ची मिलती है "चकती " , 20 रूपये का एक गिलास और 100 रूपये की बोतल !! आप भी जरूर लेना -वो भाईसाब कोठारी जी से कहने लगे !! वार्तालाप ही लिखता हूँ पूरा :

हरजीत सिंह : आप भी ले लेना रोज़ एक गिलास !
कोठारी जी : नहीं भाई , मैं नहीं पीता !
हरजीत सिंह : अरे कुछ नहीं होता , भोले बाबा का प्रसाद है (खुद दो दिन आर्मी कैंप में रहा दारु की वजह से )

कोठारी जी : नहीं भाई , मुझे पसंद नहीं है

हरजीत सिंह : अरे क्या हुआ सर , सब लेते हैं ! आप भी दो घूँट ले लेना , जी खुश हो जाएगा। .

आखिर कोठारी जी को कहना ही पड़ा , हाँ ! भाई देखेंगे !!

चढ़ते -उतरते करीब एक बजे लमारी गाँव में प्रवेश कर गए। लमारी गाँव में ITBP की पोस्ट तो है ही SSB (सशस्त्र सीमा बल ) की पोस्ट भी है। यहां रुकने का कोई विचार नहीं था लेकिन एक जगह थोड़ा बैठ गए। कुछ ही देर में बारिश शुरू हो गई और अच्छी बारिश होने लगी तो मजबूरन रुकना पड़ा। लमारी में भी रुकने और खाने की बढ़िया व्यवस्था है और एक "जय गुरुदेव होटल " चार सौ / पांच सौ रूपये में खाने और रहने का बढ़िया इंतेज़ाम कर देता है। संभव हुआ तो उसकी फोटो शेयर करूँगा आपके साथ ! लमारी में इधर से जाते हुए आखिर में गर्म पानी का स्रोत दिखाई देता है , आप चाहें तो इसमें स्नान कर सकते हैं लेकिन थोड़ा नीचे की तरफ है। हम तो नहीं नहाये थे आप चाहें तो ये शौक पूरा कर सकते हैं। तीन बजे हैं , बारिश बंद हो गई है तो निकल लिया जाए !अभी बुद्धी दूर है !!

लमारी से बुद्धी सात किलोमीटर दूर है। यहां से निकलते ही चढ़ाई शुरू हो जाती है और आप देखते ही देखते पांच लूप चढ़ते जाते हैं। थोड़ी दूर तक जहाँ तक रास्ता चौड़ा है वहां रास्ते में दोनों तरफ ITBP / आर्मी का सामान रखा रहता है और शायद इनमें कुछ वो सामान भी है जो लिपुलेख दर्रे के रास्ते से तिब्बत तक जाएगा। रास्ता आसान है , रेलिंग लगी हुई है लेकिन चढ़ाई बहुत है। ये चढ़ाई चढ़ने के बाद फिर करीब चार किलोमीटर तक लगभग एक सा रास्ता रहता है जो ऊपर ही ऊपर चलता जाता है , नीचे काली नदी बहती हुई अच्छी लगती है। बुद्धि से लगभग तीन किलोमीटर पहले एक दुकान आती है जिसे "देवराज सिंह रायपा " नाम का लड़का चलाता है। देवराज , बेचारा दुखी लगा हमें ! उसकी गर्ल फ्रेंड उसे छोड़कर किसी और के साथ शादी करके चली गई और वो शायर बन गया। हरजिंदर भाई मुझसे पहले वहां पहुँच गए थे और पूरा एक घण्टे तक उसकी शायरी सुनते रहे। बुद्धी गाँव के लोग अपने नाम के साथ "बुदियाल " लगाते हैं लेकिन कुछ -कुछ लोग "रायपा " भी लिखते हैं ! क्यों ? ये नहीं मालूम !!
नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
          नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नम: शिवाय ॥

जो शिव नागराज वासुकि का हार पहिने हुए हैं, तीन नेत्रों वाले हैं, तथा भस्म की राख को सारे शरीर में लगाये हुए हैं, इस प्रकार महान् ऐश्वर्य सम्पन्न वे शिव नित्य–अविनाशी तथा शुभ हैं। दिशायें जिनके लिए वस्त्रों का कार्य करती हैं, अर्थात् वस्त्र आदि उपाधि से भी जो रहित हैं; ऐसे निरवच्छिन्न उस नकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ। ।
अब फिर से एक घना जंगल शुरू हो गया है जो लगभग बुद्धी से पहले तक जारी रहेगा लेकिन कोई जंगली जानवर नहीं है इसलिए डर जैसी कोई बात नहीं है। हाँ रास्ते में छोटे -छोटे पेड़ों और झाड़ियों पर आपको रंगीन कपडे बंधे हुए मिलते हैं जो शायद भगवान को प्रसन्न करने या अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर बांधे जाते हैं। ज्यादातर चोट लगने पर बाँधी जाने वाली सफ़ेद पट्टियां( Bandage ) हैं लेकिन कहीं -कहीं रंगीन पट्टियाँ भी हैं और इस तरह की रंगीन पट्टियां मैंने जिंदगी में पहली बार देखी हैं , मतलब साफ़ है कि ये पट्टियां भी तिब्बत के रास्ते चीन से यहाँ पहुंची हैं।

सामने बुद्धी गाँव दिखने लगा है जो दूर , ऊंचाई से देखने पर सुन्दर लग रहा है। पहाड़ के गाँव सुन्दर ही लगते हैं। शाम के सात बजने को हैं और हम धीरे -धीरे एक झरने पर बने पुल को पार करके बुद्धी गाँव में प्रवेश कर गए हैं लेकिन अभी तक जोशी जी नहीं आये हैं , वो करीब एक घंटे बाद पहुंचे। इतनी देर में हम बुद्धी गाँव की सबसे बेहतरीन जगह पर अपना रात का ठिकाना बना चुके थे !!





 मालपा की तबाही के निशान आज भी मौजूद हैं


खुकरी वैसे गोरखा लोगों का हथियार होता है लेकिन नेपाल में सिगरेट भी चलती है इस नाम से

ये है वो "बिच्छू जड़ी " जो छू जाए तो 4 -5 घण्टे तक खुजली से परेशान रहते हैं





हरजिंदर : लमारी गाँव














इसे "गुल्लम " ( Gullam) बोलते हैं शायद



​​
बस ये पुल पार करते ही बुद्धी गाँव पहुँच जाएंगे


सोमवार, 9 जुलाई 2018

Adi Kailsh Yatra - First Day (Dharchula to Nzong Top)

​​इस यात्रा विवरण को शुरू से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करिये !!

यात्रा​ तिथि :  12 June -2018 

पहले से तय था कि 10 जून को काठगोदाम में मिलना है सभी को लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि काठगोदाम न मिलकर सभी लोग धारचूला में मिल पाए। मुझे नासिक से आये भरत जोशी जी और जामनगर , गुजरात से आये उमेश जोशी जी और उनके दोनों बच्चों के साथ ग़ाज़ियाबाद से "रानीखेत एक्सप्रेस " से काठगोदाम जाना था 9 जून को और इस ट्रेन का ग़ाज़ियाबाद से निकलने का समय रात में 10 बजकर 40 मिनट पर है लेकिन ग़ाज़ियाबाद से निकलते ही कोई संपर्क क्रान्ति के दो डिब्बे शाम छह बजे "डिरेल " हो गए और हमारी ट्रेन सुबह पांच बजे आ पाई और पूरी रात जागकर ही निकालनी पड़ी। लेकिन जैसे ही ट्रेन स्टेशन पर आई,  हमने भरत जोशी जी की सीट कब्जा ली और फिर तो हल्द्वानी जाकर ही आँख खुली। जाना था काठगोदाम लेकिन हल्द्वानी ही उतर पड़े कि अब वहां और कोई तो मिलने वाला था नहीं , क्या करेंगे वहां जाकर। उमेश जोशी जी के साथ उनका भतीजा हरदेव लहरु और बेटा रुषि जोशी भी आये थे यात्रा के लिए और यात्रा में इन बच्चों का स्टेमिना देखकर हर कोई दंग रह गया। ये दोनों बच्चे श्री खण्ड और मणिमहेश की यात्रा कर चुके हैं और ये वो जगहें हैं जहां से लौटकर लोग अपने आपको ट्रैकिंग का तुर्रम खां मान बैठते हैं :) उमेश जी हमारे साथ इस यात्रा में पहले दिन से साथ जाने को तैयार हो गए थे और आखिर तक साथ निभाया।


रानीखेत एक्सप्रेस करीब 11 बजे हल्द्वानी पहुंची होगी। हल्द्वानी , छोटा लेकिन साफ़ - सुथरा और सुन्दर रेलवे स्टेशन। न कोई चाय- चाय की आवाज़ न भीड़भाड़। शांत ! बिलकुल शांत ! बस स्टैंड पहुँचते -पहुँचते बारह से ज्यादा बज चुके थे तो इतना तो पक्का था कि आज हम किसी भी कीमत पर धारचूला नहीं पहुँच पाएंगे लेकिन जितना ज्यादा पहुँच पाएंगे , जाएंगे और जीप से उस रात हम अल्मोड़ा होते हुए पिथौरागढ़ तक ही पहुँच पाए। वो भी रात को साढ़े नौ बजे। होटल में सामान रखकर कुछ खाने को निकले तो सब दुकान , सब खाने के अड्डे बंद हो चुके थे और इधर पेट और जोर से भूख से चिल्लाने लगा था। ये होता है - वैसे भूख भले न लगे लेकिन जब कुछ नहीं मिलता तो और भी ज्यादा भूख लगने लगती है। आखिर देशी शराब के ठेके के बाहर एक ब्रेड पकोड़े वाला दिखा तो कुछ उम्मीद नजर आई लेकिन उसके पास सिर्फ दो ही ब्रेड पकोड़े मिले जिनमें से एक -एक पेट में गया। पेट पर हाथ फिराया और जैसे -तैसे उसे समझाया - मत रो .......मेरे दिल (पेट )...... हुआ सो हुआ !

You may like to read : Nandikund-Ghiyavinayak Trek : Delhi To Ransi

आज 11 जून थी और हम जल्दी से जल्दी धारचूला पहुंचना चाहते थे जिससे मेडिकल और बाकी औपचारिकताएं समय से पूरी हो जाएँ और हमें आज ही " इनर लाइन पास " मिल जाएँ। दोपहर करीब बारह बजे हम धारचूला में थे और जबरदस्त गर्मी झेल रहे थे क्योंकि हम पिथौरागढ़ की 1514 मीटर की ऊंचाई से धारचूला की 920 मीटर ऊंचाई तक उतर आये थे। रास्ते में अस्कोट , जौलजीबी , बलुवाकोट जैसी जगहें आती गई। धारचूला से करीब 30 किलोमीटर पहले एक जगह आती है घाट , जहां गोरी और काली नदी का संगम मिलता है। काली नदी तो हमें पूरे रास्ते साथ चलती हुई मिलेगी तो उसकी बात फिर कभी कर लेंगे लेकिन गोरी की बात यहीं कर लेते हैं क्योंकि गोरी यहीं खत्म हो जायेगी ! वैसे गोरी इतनी भी गोरी नहीं है कि क्रीम -पाउडर की जरुरत ही न पड़े :) ये जो गोरी नदी है ये मिलम ग्लेशियर से निकलती है और फिर करीब 104 किलोमीटर का रास्ता तय कर अपनी हमसफ़र काली नदी की बाहों में सिमट कर अपना अस्तित्व समाप्त कर लेती है। आप कभी धारचूला जाएँ तो शहर में आपको ऐसा लगेगा ही नहीं कि आप पहाड़ों में हैं ! खैर जीप से उतरते ही हम अपने काम में लग गए और वहीँ आसपास सब साथ जाने वाले यात्री मित्रों से भी परिचय होने लगा। यहां सभी मित्रों से पहली मुलाकात थी जिनमें दिल्ली से गौरव शर्मा , लखनऊ से सुरेंद्र मणि त्रिपाठी जी , जयपुर से देवेंद्र कोठरी जी ( पहले जयपुर में मिल चुका हूँ ), झाँसी से सुनील परिहार जी ( जो दो दिन पहले ही धारचूला पहुँच गए थे ) , मानसा - पंजाब के हरजिंदर सिंह , नासिक से भरत जोशी जी , जामनगर से उमेश जोशी , हरदेव लहरु , रूशी जोशी , जालंधर -पंजाब से वरुण हांडा और राहुल चौधरी। कुल 12 लोग थे हम। SDM ऑफिस के पास ही आंबेडकर रोड है , रोड क्या है ? गली सी है और उसी में थोड़ा अंदर जाकर नोटरी का दफ्तर है। सारा काम वहीँ हो जाएगा 100 -150 रूपये में। आप यहाँ अपना आधार कार्ड , Police Clearance Certificate (PCC) , आदि कैलाश यात्रा का फॉर्म दे दो और आप चले जाओ सरकारी अस्पताल , मेडिकल सर्टिफिकेट बनवाने के लिए फिर वहां से वापस इधर ही आ जाओ और अपना फॉर्म , एफिडेविट वगैरह लेकर पास ही स्थित SDM ऑफिस पहुँच जाइये। शाम तक आपको "इनर लाइन पास " मिल जाएगा।

आप को सतोपंथ ट्रेक भी पढ़ना चाहिएBefore Trek to Satopanth : Badrinath

मैं और कोठारी जी , लगभग पूरे साल से इस विचार में थे कि कैसे भी हमें सिन ला दर्रा होकर आदि कैलाश जाने की परमिशन मिल जाए। इसके लिए हमारे जितने भी संपर्क थे सब से बात की मगर कोई बात नहीं बनी और आखिर आज जब हमारा इनर लाइन पास बनने को तैयार है हमारे पास एक ही रास्ता बचता था , SDM साब से बात करने का और इस चक्कर में , मैं और कोठारी जी बहुत देर तक इंतज़ार करते रहे । आखिर में कोठारी जी ने उनसे बात की लेकिन परिणाम निराशाजनक रहा और SDM सर ने भी - सिन ला दर्रे को पार करने की परमिशन देना मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता , कहकर हाथ खड़े कर दिए और हम वहीँ के वहीँ रह गए। लेकिन सिन -ला पार करने की हसरत और हिम्मत अभी भी नहीं छोड़ी है और मुझे भगवान् पर पूरा भरोसा है कि मैं एक न एक दिन सिन -ला जरूर पार करूँगा। धारचूला बड़ी मस्त जगह है , इधर हैं तो भारत में हैं और धारचूला में हैं , लेकिन काली नदी पर बने पुल को पार कर लिया तो आप नेपाल के दार्चुला में पहुँच जाते हैं लेकिन ध्यान रखिये कि शाम सात बजे तक ही ये आवाजाही रहती है , सात बजे से पहले ही आपको " अपने देश " के धारचूला में लौट कर आना होगा। हम भी पुल पार कर के विदेश की चाय पी आये और विदेशी जमीन पर पाँव रखने का रुतबा हासिल कर आये :)

नेपाल से लौटे तो रास्ते के बारे में बात करने के लिए धारचूला के SHO प्रताप सिंह नेगी जी से मिलने चले गए। नेगी जी ने बहुत सारी इनफार्मेशन तो उपलब्ध कराई ही , मस्त चाय भी पिलाई सभी लोगों को। अगर मेरा ब्लॉग आप तक पहुंचे तो धन्यवाद स्वीकार करियेगा !!

अगला दिन था 12 जून और आज आदि कैलाश यात्रा के लिए प्रस्थान करना था मगर धारचूला के दोनों ATM बंद पड़े थे जबकि कुछ लोगों को और मुझे भी कैश चाहिए था। आप अगर जाएँ तो ध्यान रखियेगा कि कैश का इंतज़ाम पहले से ही करके चलें , धारचूला जैसी सीमावर्ती जगह में वैसे भी PNB और SBI के कुल मिलाकर दो ही ATM हैं और ज्यादातर खराब रहते हैं। अगर कभी ऐसी स्थिति में फंस जाएँ कि कैश न हो और ATM भी बंद हों तो भी बहुत घबराने की जरुरत नहीं है वहां आपका कार्ड Swap करके कुछ कमीशन लेकर आपको कैश देने वाले एजेंट भी मिल जाते हैं। इस कैश के चक्कर में निकलते -निकलते हमें दोपहर के 12 बज गए लेकिन हम सब लोगों की कैश की समस्या तो दूर हुई। यहां हमने 10 बजे तक बैंक खुलने का इंतज़ार किया , बैंक तो खुल गया लेकिन ATM नहीं खुला। मैं बैंक मैनेजर के रूम में पहुँच गया और उन्हें अपनी बात बताई कि मुझे आप कैसे भी रास्ता बताओ , बोले आपका अकाउंट PNB का होता तो मैं कुछ कर देता। फिर तो मैं ही कर लेता सर , आप ATM चलवाओ !! नेटवर्क नहीं है !! तो आप मुझे 10,000 कैश दो कैसे भी !! उन्होंने मेरी बात समझी और जैसे तैसे ATM चलाया ! बाहर भीड़ सी थी तो उन्होंने मुझे अंदर वाले रास्ते से ATM में भेज दिया और मेरे काम के बाद ही शटर खोला ! थैंक यू सर !!
सदुपायकथास्वपण्डितो हृदये दु:खशरेण खण्डित:
शशिखण्डमण्डनं शरणं यामि शरण्यमीरम् ॥

हे शम्भो! मेरा हृदय दु:ख रूपीबाण से पीडित है, और मैं इस दु:ख को दूर करने वाले किसी उत्तम उपाय को भी नहीं जानता हूँ अतएव चन्द्रकला व शिखण्ड मयूरपिच्छ का आभूषण बनाने वाले, शरणागत के रक्षक परमेश्वर आपकी शरण में हूँ। अर्थात् आप ही मुझे इस भयंकर संसार के दु:ख से दूर करें।
बारह लोग , बारह जून को करीब बारह बजे धारचूला से लखनपुर तक जाने के लिए जीप में अपना सामान लोड कर चुके थे। कुछ सामान हमने यहीं धारचूला के होटल में छोड़ दिया था जो हमें फ़ालतू लग रहा था। हम में से बहुत सारे लोग टैण्ट और स्लीपिंग बैग भी लेकर आये थे लेकिन जब ये पक्का हो गया कि रास्ते में हमें रुकने और खाने की कोई दिक्कत नहीं होने की तो टैण्ट आगे लेकर जाने की कोई जरूरत ही नहीं थी। वो हमने यहीं छोड़ दिया। असल में किसी भी आदमी ने अपने ब्लॉग में ये लिखा ही नहीं कि टैण्ट ले जाना है या नहीं। तो नोट करिये इस बात को कि इस यात्रा में न आपको टैण्ट चाहिए और न स्लीपिंग बैग। हालाँकि हमने स्लीपिंग बैग गुंजी तक लादा था लेकिन हमने जो गलती की वो आप मत करना। अपने बैग में गर्म कपडे , रेन सूट , पानी की बोतल और कुछ खाने -पीने के सामान के अलावा और कुछ मत रखना। कोई जरुरत नहीं !!

मैं पहली पोस्ट में लिख चुका हूँ कि ये यात्रा कैलाश मानसरोवर के रास्ते से ही होती है। बस गुंजी जाकर एक रास्ता कुटी गाँव होते हुए आदि कैलाश चला जाता है और दूसरा कालापानी होते हुए ॐ पर्वत जाता है और फिर ॐ पर्वत से आगे लिपुलेख दर्रा पार कर तिब्बत में कैलाश मानसरोवर चले जाते हैं लेकिन आदि कैलाश के लिए जो "इनर लाइन पास " मिलता है उस पर ॐ पर्वत और आदि कैलाश तक ही जाने की परमिशन होती है। अप्रैल -मई 2018 तक समाचार पत्रों के माध्यम से ये खबर आ रही थी कि इस बार 2018 की कैलाश मानसरोवर यात्रा "सिन -ला " दर्रा के पास बेदांग वैली से होकर जाने की संभावना है क्यूंकि जो रास्ता था उसमें नेपाल की तरफ दो पुल टूट गए थे। लेकिन मई के शुरू में नेपाल के प्रधानमंत्री जब भारत आये तो इन पुल को फिर से बनाने पर सहमति हो गई। इस तरह कैलाश मानसरोवर यात्रा फिर से पुराने रास्ते से ही होना तय हुआ लेकिन ये पुराना रास्ता भी इतना पुराना नहीं है। कुछ साल पहले कैलाश मानसरोवर यात्रा और आदि कैलाश यात्रा तवाघाट से आगे नारायण आश्रम होते हुए जाया करती थी लेकिन अब लखनपुर से शुरू होती है। लखनपुर कोई गाँव नहीं है , बस कुछ दुकानें और खच्चर वालों के टैण्ट या तिरपाल डाले हुए झौंपडियां। अभी यहीं तक रोड बनी है और धारचूला से यहीं तक जीप आती है। हालाँकि काम जारी है और हो सकता है आप जब एक दो साल बाद वहां जाएँ तो परिदृश्य बदला हुआ मिले।

जहां जीप ने उतारा वहां ITBP के कुछ जवान और अधिकारी भी थे , उनकी शुभकामनाएं स्वीकार कर आगे बढ़ते गए लेकिन घण्टे भर भी नहीं चले होंगे कि बारिश होने लगी। थोड़ा आगे ही एक टिन शेड था उस में घुस गए और चाय -मैग्गी निपटा ली। आज हम न्जोंग टॉप पहुंचना चाहते थे जो यहां से दिख तो रहा था लेकिन बहुत ऊपर था , जाना तो है ही। इस रास्ते में एक लोहे का पुल आता है जिसे पार करते ही चार स्तर ( Four Levelled ) का फॉल आता है। ये फॉल आपकी यात्रा की शुभ और सुन्दर शुरुआत का संकेत है। इसे नजंग फॉल बोलते हैं और जहां से पानी बहकर काली नदी में मिल रहा है , उसे न्जोंग नाला कहते हैं।


अभी फॉल की खूबसूरती को मन भर के निहारते हैं , फिर आगे चलेंगे !!
 

भीमताल के पास से गुजर रहे हैं

अल्मोड़ा​ : कभी हिमालय देखने के लिए स्वामी विवेकानंद यहां आये थे ! अब मैदानी इलाका बन गया है


ऐसी​ घंटियां जीप और बसों में लटकी हुई दिखती हैं ड्राइवर के पास। जब भी कोई मंदिर आता है ड्राइवर रोड से ही घंटी बजा देता है

पिथौरागढ़​ में जून में भी स्कूल खुले थे
​ये​ विकास है ? या विनाश

धारचूला पहुँच गए ! ये रंग (रं ) म्यूजियम के बाहर की तस्वीर है
विदेश भी घूम आये

टीम आदि कैलाश
टीम आदि कैलाश
धारचूला चाइनीज आइटम्स से भरा पड़ा है
यात्रा शुरू ....................जय भोलेनाथ!!







यही लखनपुर है

Nzong Fall - It is Four layered Fall and really amazing
आइये कोठारी सर , अभी तो शुरुआत है :)



कोई इसकी भी परेशानी समझो यार :)
Good Night From Nzong Top !! ( Picture taken by Harjinder Singh )