सोमवार, 27 दिसंबर 2021

Kakbhushundi Trek Uttarakhand Blog : Day 2 From Kaagi to Raj Kharak

अगर इस ट्रैक ब्लॉग को आप शुरू से पढ़ना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करिये 


पहले दिन कागी पहुँच चुके थे।  अब आगे निकलते हैं : 


कागी बड़ी प्यारी जगह है।  खूब बड़ा मैदान है जहाँ बड़ी-बड़ी घास उगी हुई थी और नदी है, नदी के किनारे खूब सारे पेड़ दिख रहे हैं।  कल हम कुल 16 किलोमीटर चले होंगे जिसमे से 3 किलोमीटर गोविंदघाट से पुलना तक जीप से आये थे और बाकी दूरी ट्रैकिंग की थी।  


शुरुआत में रास्ता एकदम स्पष्ट दिखाई देता है, हाँ कहीं-कहीं बड़ी घास की वजह से छुप जाता है लेकिन अंततः मिल ही जाता है।  निकलते ही एक वाटर स्ट्रीम मिलती है करीब 15-20 मिनट के बाद। छोटी सी वाटर स्ट्रीम है लेकिन पानी एकदम स्वच्छ रहता है और वन विभाग ने भी आसपास पत्थर लगाए हुए हैं जिससे मिटटी न घुले पानी में..  अपनी-अपनी पानी की बोतल भर ली हैं हमने और अब आगे का रास्ता तय करना है।  इस वक्त क्यूंकि दूसरे दिन की शुरुआत है इसलिए मैं आगे-आगे चल रहा हूँ लेकिन मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि थोड़ी देर के बाद ही मैं सबसे पीछे चलने लगूंगा !! 



प्रकृति का लगभग अनछुआ, अनदेखा रूप देखकर मन प्रसन्नता की ऊंचाइयों को छूने की कोशिश कर रहा है।  बहुत कम लोग ही इस ट्रेक पर आते हैं और इस वर्ष भगवान भोलेनाथ ने हमें चुना है इन रास्तों पर चलने के लिए। एक चौड़ी सी वाटर स्ट्रीम दिखाई दे रही है जिसमें पानी तो कम ही है लेकिन चौड़ाई ठीक-ठाक है।  त्रिपाठी जी को शिव को स्नान कराना है इसलिए मैं उनके साथ रुक गया हूँ .... बाकी लोग आगे चल रहे हैं और कुछ (तेज चलने वाले ) अभी शायद कागी से भी नहीं निकले , लेकिन वो आएंगे तो तूफानी घोड़े की तरह हमें पीछे छोड़ते हुए कुछ ही देर में सामने वाली पहाड़ी पर दिखाई देंगे।  भारत में ज्यादातर लोग भगवान श्री कृष्ण के बालरूप को साथ लेकर यात्रा करते हैं और उनका एक बच्चे की तरह ही ध्यान रखते हैं , त्रिपाठी जी शिव को साथ लेकर चलते हैं और पहले उन्हें स्नान आदि करा के, शिव को भोग लगाते हैं तब खुद कुछ खाते हैं।  यही आस्था है, यही संस्कृति है हमारे देश की और सनातन परम्परा की .....और यही चीजें शायद त्रिपाठी जी को ऊर्जा और प्रेरणा भी देती है।  नहीं तो 65 प्लस की उम्र में लोगों की हड्डियां कीर्तन करने लगती हैं जबकि त्रिपाठी जी इस कठिन ट्रैक पर हमारे साथ चल रहे हैं और इससे पहले वो हमारे साथ 2018 में आदि कैलाश -ॐ पर्वत की यात्रा भी कर के आये हैं।  




फिर से एक बड़ी सी वाटर स्ट्रीम दिख रही है , इसे क्रॉस कर के दूसरी तरफ जाना पड़ेगा।  आसान नहीं रहा ,  वाटर स्ट्रीम को तो आसानी से क्रॉस कर दिया लेकिन दूसरी तरफ जाने के लिए मिटटी को पकड़ के चढ़ना पड़ रहा था।  जैसे ही दूसरी तरफ पहुंचे,  वन विभाग का बनाया हुआ रास्ता दिखने लगा, हालाँकि घना जंगल है अब।  डॉक्टर साब हमसे आगे चल रहे हैं और मैं , त्रिपाठी जी के साथ मस्ती में चलता जा रहा हूँ।  जंगल को देखकर मस्त गाना याद आने लगा : जंगल है आधी रात है /लगने लगा है डर.... मैं खुद को भूल जाऊं /कुछ ऐसी बात कर.. .. मौके पर गाना एकदम सटीक लग रहा है और मैं अपनी भोंपू जैसी आवाज में दुनियां से बेखबर बस एन्जॉय कर रहा हूँ ! वीडियो देख सकते हैं आप 





जैसे ही जंगल खत्म होता है, सैकड़ों पेड़ गिरे हुए दिखते हैं और शायद आज कल में नहीं ,  बहुत सालों पहले कभी गिरे होंगे ये।  अजीब सा Structure बन गया है नैचुरली।  इन्हें देखना रोमांचक भी है और विचारणीय भी।  जंगल पार करके सब बैठे हैं और एक-एक बिस्कुट का पैकेट पानी के साथ उदरस्थ कर रहे हैं।  धुप खिली हुई है और अभी मुश्किल से बारह-साढ़े बारह बजे हैं। यहाँ से इस वैली को देखना बहुत ही स्वर्गिक आनंद दे रहा है। अनछुई प्रकृति अलग ही एहसास देती है। 






थोड़ी दूर ही आगे बढ़े हैं और एक बहुत जबरदस्त वॉटरफॉल सामने दिखाई दे रहा है जिसकी आवाज गब्बर की आवाज से  भी ज्यादा भयानक और डरावनी है।  अगर आपने पहले कभी ट्रैकिंग नहीं की है या वाटरफॉल्स नहीं देखे हैं तो आप बस यही कहेंगे-ऐसे भी वॉटरफॉल्स होते हैं क्या !! इस रूट पर पहली बार भोजपत्र के पेड़ गिरा हुआ  दिखा है मुझे और मैं उसको छीलकर उसकी खाल निकाल देता हूँ जिससे अंदर कैसा दिखता है , ये पता चल सके।  






मुश्किल से 15 मिनट ही चले होंगे कि एक और वॉटरफॉल हमारा इंतज़ार कर रहा है जो बहुत दूर से आ रहा है।  जल एकदम स्वच्छ है और सफ़ेद है।  दूधिया लोगों को अगर ऐसा पानी मिल जाए तो सच कहता हूँ आप और मैं बिलकुल नहीं बता पाएंगे कि दूध कौन सा है और पानी कौन सा है !! सामने एक पवित्र सी पहाड़ी दिख रही है जिसकी चोटी बहुत आकर्षित कर रही है लेकिन इस पर बर्फ नहीं है।  ऐसी चोटी लद्दाख में दिखती है जब आप मनाली वाले रास्ते से दारचा होते हुए पदम् की तरफ जाते हैं।  उस पहाड़ी को बहुत पवित्र माना जाता है और इसका नाम Gonbo Rangjon peak (5580 meters) है धीरे-धीरे कर के हम एक खुले मैदान में पहुँच चुके हैं जहाँ ज्यादार लोग अपना कैंप लगाते हैं। ये समरटोली है।  




समरटोलि या सिमरतोली बहुत ही खूबसूरत जगह है।  एक लम्बा चौड़ा मैदान है जहाँ आप चाहो तो क्रिकेट खेल लो ! थोड़ी दूरी पर ही जलधारा बह रही है और आसपास बहुत ही सुन्दर Tree लाइन दिखाई दे रही है। अद्भुत सौंदर्य है हिमालय का।  अभी डेढ़ या शायद दो बजे का टाइम हुआ है दोपहर में,  हम सब अपने-अपने बैग अपने कंधे से उतार के Relax हो रहे हैं और कुछ खा पी रहे हैं।  पंकज मेहता जी , हरजिंदर भाई और हनुमान जी कुछ और साथियों के साथ आगे दूसरी दिशा में चले गए थे , उन्हें वापस बुलाया और थोड़ी देर में गाइड और पॉर्टर भी आ गए। गुनगुनी धूप और नीचे मखमली घास, आनंद आ रहा था आराम करने में।  कुछ मित्रों की सलाह आई कि आज यही रुक जाते हैं .... गाइड और पॉर्टर भी यही चाहते थे।  एक बहस हो गई !! पंकज मेहता जी सहित और लोग चाहते थे कि अभी दो ही बजे हैं तो आगे जाने में बुराई नहीं है लेकिन गाइड / पॉर्टर को पता नहीं कुछ दिक्कत थी पंकज भाई और उनके मित्रों से !  यहाँ मुझे ग्रुप लीडर का रोल निभाना पड़ा और फाइनली ये तय हुआ कि आगे बढ़ा जाए !  यहीं और शायद इस बात से हमारे गाइड / पॉर्टर के मन में कुछ बैठ गया !! आगे बताऊंगा .....


समरतोली से नीचे उतरे तो काकभुशुण्डि नदी के किनारे-किनारे ही रास्ता है।  मुश्किल से दस मिनट चले होंगे कि एक मंदिर दिखाई दिया।  ऐसी जगह पर मंदिर होने का मतलब होता है भगवान का आशीर्वाद मिलना और उसके साथ-साथ ऊर्जा का नवसंचरण होना।  यहाँ एक लाल रंग का बहुत छोटा सा अनार जैसा फल देखने को मिला जिसे शायद जंगली अनार कहते हैं।  जब पैंका गाँव उतरे थे तब वहां के लोगों ने बताया कि इसे खा भी सकते हैं लेकिन हमने डर से न खाया न छुआ।  आसपास का नजर बहुत हराभरा है ,  चलते हुए बहुत आनंद आ रहा है।  




हल्का सा जंगल शुरू हो गया है।  रास्ता अभी भी एकदम स्पष्ट है और वन विभाग ने अच्छा काम किया हुआ है यहाँ तक भी।  कुछ देर बार नदी के पाट पर पहुँच गए हैं जो एकदम खुला खुला है। शायद इन्हें मोरेन बोलते हैं जहाँ बहुत सारी कंक्रीट और बालू होते हैं।  बराबर में काकभुशुण्डि नदी कल-कल करती हुई अपने पूरे वेग से बहती हुई बड़ी अच्छी लग रही है।  





अभी चार बजे हैं और हम जहाँ हैं वहां सफ़ेद रंग के फूलों का एक बहुत शानदार मैदान है।  अनुपम छटा है इन फूलों की और सच कह रहा हूँ - मन प्रफुल्लित हो गया है इन्हें देखकर।  बहुत प्यारा गार्डन है।  नदी के पाट पर चलते हुए अब हमें एक जगह से ऊपर चढ़ना है।  हमारे कुछ मित्र हमें दूर आगे की पहाड़ी पर बैठे हुए कुछ इशारा कर रहे हैं और जोर-जोर से चिल्ला के कुछ कहना चाहते हैं।  बराबर में जो नदी बह रही है उसका किनारा अब खत्म हो गया है .... यानी किनारे-किनारे नहीं जा सकते ! और दूसरी तरफ इस नदी को पार कर के जाना मतलब नदी के वेग के साथ बह जाना होगा।  मैं , डॉ अजय त्यागी , सुशील कुमार जी , कुलवंत सिंह जी और त्रिपाठी जी इधर हैं बाकी लोग आगे की पहाड़ी से उतर गए हैं।  











हम रास्ता ढूंढ ही रहे हैं कि पीछे से हमारे गाइड और कुछ पॉर्टर आते हैं और हमें ऊपर की एक पहाड़ी की ओर चलने का इशारा कर के खुद नदी किनारे-किनारे आगे निकल जाते हैं।  हाँ , हमारे साथ दो पोर्टर हैं। पहाड़ी पर बिलकुल खड़ी चढ़ाई है और करीब आधा घण्टा चलने के बाद बुरांश का जंगल आ गया है जिसमें से रास्ता बनाना बहुत ही मुश्किल हो रहा है लेकिन फिर भी हम बुरांश की टहनियों को पकड़ पकड़कर , बंदर की तरह लटककर आगे बढ़ना जारी रखे हुए हैं।  पॉर्टर आगे चल रहे हैं  ...एक जगह ऐसी आती है जहाँ से एक कदम और आगे बढ़ने का मतलब है सैकड़ों फ़ीट नीचे गिरना !! अब कोई रास्ता नहीं और हम बिलकुल रेतीली धार पर खड़े हैं जो बिलकुल 90 डिग्री पर कट चुकी है और मिटटी एकदम रेतीली है।  हम वापस लौटते हैं और फिर नदी के पाट तक जाने का रास्ता ढूंढते हैं।  जिस रास्ते से घास पकड़ कर चढ़ गए थे अब वहां से उतरना भयानक प्रतीत हो रहा है।  हमें लगभग साढ़े पांच बज चुके हैं और थकान के मारे हमारी जान निकल रही है।  


हमें लग रहा है हम फंस गए हैं और रात खुले आसमान में ही काटनी पड़ेगी।  मन से और  शरीर से एकदम टूट चुके हैं।  हम चिल्ला रहे हैं ....  जोर जोर से चिल्ला रहे हैं।  जो दो पॉर्टर साथ थे वो पता नहीं कब और कहाँ से निकल गए ! फिर कुछ देर बाद हमारे गाइड दो और पोर्टरों को साथ लेकर हमारे पास तक पहुँचते हैं।  उन्होंने कुछ लोगों को नदी का किनारा ( जो वास्तव में था नहीं ) पार करा दिया है।  मैं उनको फॉलो कर रहा हूँ और धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा हूँ।  त्रिपाठी जी एकदम निढाल हो गए हैं।  अभी असली आफत सामने है।  नदी पार करनी ही पड़ेगी !! डॉक्टर साब जैसे तैसे पार कर गए,  मैं भी करने लगा तो लड़खड़ा गया और गिर गया।  बर्फ है पानी नहीं ... बर्फ जैसा पानी ! गिरते ही चाँद तारे नजर आने लगे !! इतना ठण्डा पानी.... हे भगवान ! मेरे जूतों और मोजों में पानी भर गया है बहुत , और मैं ठण्ड से कांप रहा हूँ।  

त्रिपाठी जी की हिम्मत नहीं हो पा रही इस जलधारा को पार कर पाने की तो गाइड उन्हें अपनी हाथों में उठाकर नदी पार करा देते हैं।  एक पॉर्टर मेरे पास आता है - देख लिया सर उन लोगों का साथ देने का नतीजा !! मेरा मन खटक जाता है !! तो क्या हमें जानबूझकर उस पहाड़ी की तरफ भेजा गया था ? यही सवाल गाइड से किया मैंने तो वो बोले कि नहीं -जिधर से आपको भेजा उधर 2019 तक लकड़ी का एक पुल हुआ करता था जो अब टूट गया है इसलिए आप लोग फंस गए।  सच क्या था भगवान जाने लेकिन मन में खटास तो आई ही थी उन लोगों के ये शब्द सुनकर ! 

इस जलधारा को पार करने के बाद भी आराम नहीं था।  असल  में ट्रेक का मतलब ही यही होता है कि हर कदम पर आपको नई चुनौती मिलती है , नया रास्ता देखना होता है , नई मंजिलें तय करनी होती हैं।  सामने एकदम खड़ी चढ़ाई वाली पहाड़ी है और ये सूखी पहाड़ी है एकदम।  घास या वनस्पति का कोई नाम-निशान नहीं , बस पत्थर पकड़ -पकड़ के चढ़ना है।  जैसे तैसे ऊपर पहुंचे तो कुछ देर साँसों  को संतुलित करने के लिए बैठ गए।  यहाँ से ऊपर जाना होगा लेकिन रास्ता नहीं है कोई , बस एक बड़ा सा पत्थर है जिसको पकड़कर गोल-गोल घूमते हुए आगे बढ़ना है और पत्थर के आसपास सिर्फ एक पैर रखने की जगह है।  अगर पत्थर से हाथ छूटा या पैर फिसला तो सैकड़ों फुट नीचे फिसलते जाना पड़ेगा और आगे ... !! ऐसी नौबत नहीं आई क्यूंकि गाइड और पोर्टरों ने हाथ थाम लिए थे।  

अब रास्ता एकदम मस्त है।  न चढ़ाई ....न उतराई लेकिन अंधेरा घिरता आ रहा है और धुंधली होती शाम के साये में दूर .....एक भेड़ वाले की झोंपड़ी दिखाई दे रही है और उस झोंपड़ी से थोड़ा आगे ....हमारे कुछ और मित्र दिखाई दे रहे हैं जो हमसे पहले यहाँ आ गए थे।  एक जगह मिल गई है जो ज्यादा समतल तो नहीं है लेकिन टेन्ट लगाए जा सकते हैं।  यहाँ पहुँचते -पहुँचते बारिश भी होने लगी है तो जल्दी-जल्दी टेंट गाढ़ दिए।  उधर किचन टेंट भी तैयार हो चुकी है , गर्मागर्म सूप मिल गया पीने को।  अब आज के अपने टारगेट "राजखरक " नहीं पहुँच पाए हैं , उससे लगभग दो किलोमीटर पहले ही हमें टैंट लगाने पड़ गए।  कोई नहीं बड़ी बात ये है कि हम सब आज भी सुरक्षित हैं  और स्वस्थ हैं।  आज मुश्किल से छह किलोमीटर ही चल पाए होंगे ....खैर , दिनों की कोई बात नहीं ! प्राथमिकता इस बात की है कि सभी लोग सुरक्षित और स्वस्थ रहे , एक टीम लीडर की यही प्राथमिकता भी होनी चाहिए... हालाँकि कुछ लोगों को सर्दी और सीने के दर्द के साथ बुखार सा महसूस होने लगा है ! कठिन ट्रेक है , इतनी समस्याएं तो आएँगी .. मिलते हैं फिर से अगले दिन की कहानी लेकर 


मिलते हैं फिर से अगले दिन की कहानी लेकर ........

2 टिप्‍पणियां:

PRATIBHA TRIPATHI ने कहा…

This is a fantastic post with a lot of useful information for readers. We also offer cab services in India for both local and long-distance travel.


Cab Service
Taxi Service

Story of a tree, (a satire ) ने कहा…

बहुत ही कठिन और खतरनाक है ।आप लोगों की हिम्मत की तारीफ करनी होगी