बुधवार, 15 अप्रैल 2015

चन्दरू की दुनियाँ - छठी और आखिरी किश्त



गतांक से आगे

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चार बज गए , पांच बज गए , छह बज गए। कोई ग्राहक उसके पास नहीं भटका। दो एक ग्राहक आये मगर वो नए थे और उसे जानते नही थे। चार छह आने की चाँट खाकर चल दिए। चन्दरु सर झुकाये अपने आप को मसरूफ रखने की कोशिश करने लगा। कभी तौलिया लेकर कांच चमकाता , डिब्बी डालकर घड़े में मसालेदार पानी को हिलाता , अंगीठी में आँच ठीक करता। हौले हौले आलू भरते में मटर के दाने और मसाले डालकर टिकियाँ बनाता रहा।

फिर यकायक उसके कानों में पाजेब की खनक सुनाई दी। दिल जोर जोर से धड़कने लगा। खून रुखसाबों की तरफ दौड़ने लगा। वो अपने झुके हुए सिर को ऊपर उठाना चाहता था। मगर उसका सिर ऊपर नही उठता था। पाजेब की खनक अब सड़क पर आ चुकी थी फिर जिस्म और जान का जोर लगाकर उसने अपनी गिरी हुई गर्दन को ऊपर उठाया। और जब देखा तो उस की आँखें पारो पर जमी की जमी रह गईं। उसके हाथ से डिब्बी गिर गई और तौलिया उसके कंधे से उतरकर नीचे बाल्टी में भीग गया और एक ग्राहक ने करीब आकर कहा : मुझे दो समोसे दो !!

मगर उसने सुना। उसके बदन में जितने होश थे जितने एहसास थे जितने ज़ज़्बात थे सब खींचकर उसकी आँखों में आ गए थे। अब उस के पास कोई जिस्म नही था , सिर्फ आँखें ही आँखें थीं।

ये उसका ठेला था। वो चन्द कदम पर दूसरा ठेला था। और वो तके जा रहा था। पारो किधर जायेगी ? हौले हौले सरगोशियों में बात करते हुए गाहे बगाहे उसकी तरफ देखते हुए लड़कियां सड़क पर चलते हुए उन दोनों ठेलों के करीब आ रही थीं। ज़ेर ए लब बहस धीरे धीरे साथ साथ चल रही थी। यकायक जैसे उस बहस का खात्मा हो गया। लड़कियों ने सड़क पार करके नए ठेले वाले के ठेले को घेर लिया। मगर चन्दरु की निगाहें नए ठेले वाले की तरफ नही फिरीं। वो उस खिज़ा में देख रहा था , गली और सड़क के संगम पर , जहां आज छह माह बाद उसने पारो को देखा था। वो सिर उठाये दुनिया से बेखबर उधर ही देखता रहा। वो पत्थर की तरह खड़ा सिर्फ खिज़ा में देख रहा था।

अचानक बड़ी तेजी से अकेली पारो अपनी सहेलियों से कटकर उसके ठेले पर आ गई औरचुपचाप उसके सामने एक मुजरिम  की तरह खड़ी हो गई। उसी लम्हा गूंगा चन्दरु फूट फूट कर रोने लगा।

ये आँसू नही थे। अलफ़ाज़ थे ………… शुक्राने के.........। पुलिन्दे थे............ शिकायतों के। ............. उबलते हुए आँसू। ................ फसीह और बलीग़ जुमलों की तरह उसके गालों पर बहते आ रहे थे । और पारो सिर झुकाये सुन रही थी ।

आज पारो गूंगी थी और चन्दरु बोल रहा था। अरे वो कैसे कहे इस पगले से कि पारो ने भी तो छह माह इन्हीं आँसुओं का इंतज़ार किया था !!




जय राम जी की !!

3 टिप्‍पणियां:

अनिल दीक्षित ने कहा…

बहुत बढ़िया योगी जी आपकी मेहनत की वजह से मैं इस बेहतरीन कहानी को पढ़ पाया

Abhishek pandey ने कहा…

वाह बहुत बढ़िया कहानी। आपने बहुत अच्छा अनुवाद किया है। गूंगे को आँशुओ से बोलना.... और बोलती हुई पारो आज गूंगी हो गई है। बहुत अच्छा लगा।

Monalisa ने कहा…

मज़ा आ गया पढ़ कर, शुरू की तो आखिर तक पढ़ डाली। बहुत अच्छा लगा