कल हम अपने ड्रीम डेस्टिनेशन "आदि कैलाश " पहुँच गए थे और फिर जल्दी ही गौरी कुण्ड भी हो आये थे । गौरी कुण्ड को जौलिंगकोंग लेक भी कहते हैं। कल की बात हो चुकी है अब आगे की बात करते हैं और आज की इस पोस्ट में थोड़ा विस्तृत बात करेंगे। वास्तव में इसके बारे में पहले ही लिखना चाहता था लेकिन पोस्ट बड़ी होती जा रही थीं और मुझे "अपनी बात " कहने का स्पेस नहीं मिल पा रहा था। आज की पोस्ट पूरी तरह आदि कैलाश पर ही आधारित होगी।
आदि कैलाश ! जैसा कि आप सब जानते हैं उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में 6191 मीटर ऊंचाई पर स्थित एक पर्वत है जिसका शिखर , कैलाश मानसरोवर से मिलता जुलता है। जो लोग किन्हीं कारणों से कैलाश मानसरोवर नहीं जा पाते वो आदि कैलाश जाकर अपने मन की उत्कंठा को शांत कर लेते हैं , इसीलिए इसे छोटा कैलाश भी कहते हैं। यहाँ पर्वत शिखर तो है ही जो थोड़ा -बहुत शिवलिंग का रूप धारण कर लेता है , इसके अलावा इसके आधार में लेक है जिसे गौरी कुण्ड या जौलिंगकोंग लेक कहते हैं। ये पर्वत और लेक जौलिंगकोंग नाम के अस्थायी शिविर से करीब 2 -3 किलोमीटर की दूरी पर हैं। इसके अलावा एक और कुण्ड है जिसे पार्वती कुण्ड या पार्वती सरोवर कहते हैं। ये भी उतना ही दूर है जितना गौरी कुण्ड है यानि 2 -3 किलोमीटर की दूरी पर लेकिन विपरीत दिशा में। दोनों में बड़ा फर्क है - गौरीकुण्ड में जहां किसी भी तरह का मंदिर या बाउंड्री नहीं है वहीँ पार्वती कुण्ड में चारों तरफ बाउंड्री है और एक मंदिर भी बना है। पार्वती कुण्ड क्यों प्रसिद्ध है , ये मुझे नहीं मालुम लेकिन इसमें पड़ने वाली आदि कैलाश पर्वत की छाया (Shadow ) मंत्रमुग्ध कर देती है और शायद इसीलिए लोग वहां जाते होंगे। अब मैं वहां गया हूँ तो ऐसा संभव नहीं कि स्नान न किये जाएँ। आप इसे सौभाग्य कह सकते हैं कि मैं ट्रैकिंग के लिए जहाँ -जहाँ गया हूँ और अगर वहां कोई पवित्र कुण्ड है तो स्नान नहीं छोड़ा मैंने उसमें। चाहे हेमकुण्ड साहिब का पवित्र सरोवर हो , जिसमें बर्फ तैर रही रही थी फिर भी पांच डुबकी लगा ही ली। सतोपंथ में दो बार स्नान किया और नंदीकुंड में भी दो डुबकी लगाईं जहाँ बर्फ और पानी को अलग करना मुश्किल था लेकिन पांच ही मिनट का तो खेल होता है ये बस , मगर इससे जो आत्मिक शांति मिलती है वो अवर्णित है। हिन्दू होना परम सौभाग्य है लेकिन घुमक्कड़ होना उससे भी बड़ा सौभाग्य !!
आदि कैलाश में आटीबीपी की पोस्ट है लेकिन यहाँ कोई स्थाई आबादी नहीं है , फोटो में आपको जो कुछ भी दिख रहा है वो सब बस यात्रा सीजन तक की मोहमाया है और इसी मोहमाया में हम भी एक तिरपाल के नीचे घुसे पड़े थे और इस तिरपाल के मालिक थे "पदम सिंह " ! पदम् सिंह , कुटी गाँव के ही हैं तो उनका पूरा नाम हुआ -पदम् सिंह कुटियाल और ये भाईसाब भी पान सिंह ( जो कुटी में मिले थे ) के भाई हैं। पदम सिंह जी ने प्रति व्यक्ति 250 रूपये में खाना और रहना हमारे लिए निर्धारित कर दिया है। इतनी दूर , इतनी ऊंचाई पर ज्यादा नहीं है ये !
आपको याद होगा मैंने कुटी से आदि कैलाश जाते हुए एक निखुर्च नाला और निखुर्च मण्डी की बात की थी पिछली पोस्ट में । निखुर्च मण्डी वो जगह हुआ करती थी जहाँ 1962 की लड़ाई से पहले तिब्बत और कुमायूं के लोग अपना -अपना व्यापार किया करते थे। ये व्यापार बड़ा रोचक किस्म का हुआ करता था जिसमें पत्थरों के दो टुकड़े का उपयोग किया जाता था। एक पत्थर का टुकड़ा भारतीय व्यापारी के हाथ में होता था और उसका दूसरा हिस्सा तिब्बत के व्यापारी के पास होता था। इन पत्थरों के टुकड़े को " गमग्या ( Gamgya ) " बोला जाता था । नया व्यापर शुरू करने का सिस्टम भी कुछ इसी तरह का होता था। जब कोई तिब्बत का व्यापारी यहाँ आता था तो एक छोटी सी चाय पार्टी " सुल्जी मुल्जी " रखी जाती थी जिसमें तिब्बत के मेहमान को "मुशे (Mushey ) कहा जाता था और भारतीय पक्ष को "मित्र ( Mitra ) " कहा जाता था। मुशे यानि तिब्बत का व्यापारी चाय का पहला घूँट भरता था और मित्र उसी चाय में से दूसरा घूँट भरता था। इसके बाद एक कीमती पत्थर के दो टुकड़े करके एक दूसरे को दे दिए जाते थे जैसे आज की तारीख में MOU साइन करते हैं। ये पत्थर पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते थे और बाप इन्हें अपने बच्चों को वसीयत के रूप में दिया करते थे।
तिब्बत से ज्यादातर जो व्यापर हुआ करता था वो यहीं से हुआ करता था , हालाँकि गुंजी से होकर ओम पर्वत जाते हुए जो लिपुलेख दर्रा पड़ता है वहां से भी व्यापार होता था लेकिन मुख्य रूप से केंद्र यही हुआ करता था , इसीलिए कुटी गाँव कभी बहुत समृद्ध हुआ करता था। थोड़ा और बढ़ाते हैं इस बात को -
उत्तराखंड का पिथौरागढ़ शहर भले ही छोटा हो लेकिन फैला हुआ बहुत है। इसी क्षेत्र में कई सारी वैली हैं जैसे -दरमा गंगा या दारमा वैली जो दारमा नदी से बनती है और ये वैली -कुटी यांग्ती वैली तथा लास्सर यांग्ती वैली के बीच में आती है। दारमा वैली और कुटी यांग्टी वैली को सिन ला दर्रा आपस में जोड़ता है। वही सिन ला दर्रा जिसको पार करने की हमें परमिशन नहीं मिल पाई थी। गंगाचल धुरा , दारमा वैली को लास्सर वैली से जोड़ता है। दारमा वैली में कुल 12 गाँव आते हैं , हालाँकि मैं नहीं गया था लेकिन मित्र हरजिंदर दारमा वैली होकर आये थे और पंचचूली बेस तक गए थे। एक और वैली है "चौंदास वैली " जो काली और धौली नदी के बीच फैली हुई है लेकिन हम ब्यांस वैली और कुटी वैली में विचरण कर रहे हैं। ओम पर्वत , ब्याँस वैली में था और अब हम आदि कैलाश में हैं जो कुटी -यांग्टी वैली में स्थित है।
आज 19 जून है और आदि कैलाश स्थित पार्वती सरोवर के दर्शन और उसमें स्नान करने के बाद अब हम कुटी गाँव की तरफ वापस लौट रहे हैं। चलते -चलते आपको इस क्षेत्र से परिचित भी कराता जाऊँगा लेकिन उससे पहले कल शाम के खाने की कुछ बात करते हैं। कल जब हम निखुर्च नाला पार कर रहे थे तब उसमें बड़ा Confusion हो गया था। जहाँ से रास्ता आ रहा है वहां पुल तो है इस नाले पर लेकिन वो अधूरा बना हुआ है और आने वाला व्यक्ति दूसरा रास्ता ढूंढने लगता है।
या तो वो इस ठण्डे और तेज बहाव वाले नाले के पानी में होकर जायेगा या फिर कोई उसे बता दे कि वो देख , बायीं तरफ लकड़ी का एक पुल बना है। आसानी से दीखता नहीं वो लकड़ी वाला पुल। हरजिंदर को आईटीबीपी के मीणा जी ने बताया उसके बारे में , हरजिंदर ने मुझे बताया , मैंने और हरजिंदर ने कोठारी जी को और मैं रुक गया जोशी जी को रास्ता बताने के लिए। लेकिन जोशी जी आये पूरे डेढ़ घंटे में , इस बीच एक महिला और एक जवान सा लड़का आते दिखे। .. वो भी उसी रास्ते पर आ रहे थे जिस पर हम सब आये .. उन्हें हाथ से इशारा करता रहा और .. आखिर उन्हें मेरा इशारा समझ आया ..लकड़ी का पुल पार करके ऊपर ही ऊपर आदि कैलाश निकल गए। अब जब शाम को हम पदम् सिंह जी के यहाँ खाने की टेबल पर बैठे तो दिल खुश हो गया। . बढ़िया खाना .. अचार . अहा और पापड़ भी ... आज तो जैसे त्यौहार मन गया .. लेकिन ये मेहरबानी .. ओह तो वो महिला जिनको हमने रास्ता बताया था वो भी यहीं आई हैं खाना खाने .... तो .....तो ये कि वो नीलम गुंज्याल हैं.... .. गुंजी गाँव की गाँव प्रधान और उनके साथ दो PWD इंजीनियर भी आये हैं .... ये रुके तो KMVN के गेस्ट हाउस में हैं लेकिन खाना यहाँ चलेगा .. वाह . इस चक्कर में अपनी भी ताल लग गयी .. हमारी भाषा में इसे कहते हैं गेहूं के साथ ..खरतुआ .......को भी पानी मिल गया :)
अपना इनर लाइन पास वापस लेकर फिर से उसी रास्ते पर चलने लगे हैं जिससे कल गए थे और चलते -चलते फिर वही नाला "निखुर्च " और नाला पार करते ही फिर वही मण्डी "निखुर्च मण्डी " और फिर वही व्यापर की बातें। फिर वही तिब्बत और भारत के बीच के व्यापर की बातें ..जैसे विक्रम -बेताल की बातें....
बातें तो होंगी ही.... क्यूंकि बातों से ही ज्ञान मिलता है और बातों से ही बातें निकलती हैं ....तो रातें गुजरती हैं .. बस .... राई को पहाड़ बनाना ......आना चाहिए आपको.... . बुन्देलखंडी बोली में एक लोकगीत है जिसकी पहली -दूसरी लाइन याद है मुझे -- बातन -बातन बतगड़ हुई गौ .... बातन -बातन .....बाड़ी रात.. . बातन -बातन... आल्हा नें खेंच लई.... तलवार। .. तो राई को पहाड़ बनाते जाइये और रातें गुजरती जाएंगी ...
ये जो कुटी गाँव है न , जिधर से हम कल गए थे और आज लौटकर फिर जाएंगे..... बड़ा ही फेमस गाँव हुआ करता था क्यूंकि 1962 के युद्ध से पहले तिब्बत और भारत का ज्यादातर व्यापार इसी रास्ते हुआ करता था और बॉर्डर से पहला गाँव ये कुटी ही पड़ता था। पहले ही बता चूका हूँ की आदि कैलाश अस्थाई बस्ती है ,
आदि कैलाश से करीब आठ किलोमीटर और आगे "बेल्सिया " बॉर्डर है जहाँ अब भारतीय सेना रहती है। लेकिन यहीं 5630 मीटर ऊँचा मंगश्या (Mangshya Pass ) धुरा और 5530 मीटर ऊँचा लम्पिया धुरा (Lampiya Pass ) भी हैं जो पहले व्यापर के लिए प्रयोग किये जाते थे। हालाँकि जहाँ तक सामान्य व्यक्ति को जाने की आज़ादी है वहां से इन पास को नहीं देखा जा सकता लेकिन हाँ , सिन ला दर्रा को आप बखूबी देख सकते हैं।
मंगश्या धुरा पास , बहुत उपयोगी दर्रा रहा है कभी। लिपुलेख दर्रा खुलने से पहले , भारत से जाने वाले कैलाश यात्री मंगश्या धुरा से ही तिब्बत जाया करते थे और जैसे ही वो इस पास को पार करते थे , सामने ही उन्हें कैलाश मानसरोवर दिखाई देता था जबकि आज की जो यात्रा लिपुलेख से होती है उसमें लिपुलेख पार कर फिर शायद 70 -80 किलोमीटर बस से जाना पड़ता है। लेकिन मंगश्या धुरा , landslide की वजह से हर यात्रा में कोई न कोई tragedy कर देता था इसलिए इसे नए और पहली बार जाने वालों के लिए बहुत खतरनाक माना गया। एक फोटो लिया है नेट से जिसमें मैप है , आप इसे गौर से देखेंगे तो आपको सब पता चल जाएगा कि कैलाश मानसरोवर बिलकुल पास हुआ करता था।
आपसे बात करते -करते फिर से कुटी गाँव वापस पहुँच गए हैं। पहुँचने का क्रम वो ही था -हरजिंदर , मैं , कोठारी जी और फिर जोशी जी। फिर से पान सिंह जी की दुकान में पहुंचे और चाय पीने लगे ..अब वहां पांच -छह आदमी कोई गेम खेल रहे थे। मुझे तो जुआ लगा ।
बाकी कुछ और नाम था उसका .. हाँ याद आया "थुक -थुक " कह रहे थे वो इसे और मैंने अपने फ़ोन के नोट पैड में इसके बारे में कुछ लिखा था वहां - Thuk Thuk is a game like gambling in which a pad of rubber is used to throw dice .some words which are being used and can understand are - Paracha , Lapra , Ri.... , Thuk ... Chi ...etc.. Its a Chinese game in which Chinese Coins are used with piercing . आज पान सिंह जी के यहाँ रुकने का इरादा नहीं है , कोई दूसरा इंतेज़ाम किया है और अब रात होने को है।
ठंडक है मौसम में तो "थुलमा " ओढ़ते हैं और सो जाते हैं। .. कल फिर चलेंगे आगे...... . थुलमा...समझ आया ? नहीं !! .. भेड़ की ऊन से बनी स्थानीय रजाई को थुलमा कहते हैं !!
कल फिर मिलते हैं :
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Gauri Kund or Jyolingkong Lake |
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Adi Kailash Mountain in Evening |
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Gauri Kund or Jyolingkong Lake |
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Mangsha Dhura pass and you can See Mount Kailash is very near to this |
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Adi Kailash as seen from Parvati Kund |
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All Five Pandavas standing there :) |
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All Five Pandavas standing there :) |
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Ganesh Parvat |
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Instruments used for Thuk -Thuk Game |
will remain continue :
Excellent 👍👍 outstanding article
जवाब देंहटाएंआप कहाँ से लाते हैं इतना ज्ञान
जवाब देंहटाएंगए तो हम भी हैं मगर इतना नही पता था
हर हर महादेव