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बुधवार, 27 नवंबर 2019

Srikhand Yatra : Jaun Village to Thachadu

आपको ये यात्रा पसंद आ रही हो और शुरू से पढ़ने के इच्छुक हों तो यहां क्लिक करिये शुरू से पढ़ पाएंगे !




श्रीखण्ड महादेव यात्रा : जाऊं गाँव से थाचडू तक
यात्रा दिनांक : 15 जुलाई 2019

कल शाम नरकुण्डा पहुँच चुके थे और जबरदस्त मैच देखते रहे ....क्रिकेट वर्ल्ड कप का फाइनल मैच। चाय -वाय पीकर बाहर निकले तो ठण्ड का झौंका वापस अंदर धकेल रहा था। अभी रजाई में ही पड़े रहने में ही फायदा लग रहा था। होटल में रूम के बराबर में ही किचन भी बना था जिसमें स्केटिंग का सामान रखा था। स्केटिंग अभी तक जीवन में कभी नहीं की लेकिन स्केट्स बाँध के यहां प्रैक्टिस कर लेने में क्या बुराई है। पानी इतना ठण्डा है कि नहाने की सम्भावना ही खत्म हो रही है। वेस्टर्न स्टाइल के टॉयलेट्स से ठन्डे पानी की जो स्ट्रीम निकल रही थी उसी ने नहाने की सम्भावना खत्म करने का आदेश दे दिया था। उसी पानी से आगे के रुझान मिलने लगे थे और रुझान ही पक्ष में नहीं थे तो सरकार क्यों बनाना , मतलब नहाने का बारे में क्यों सोचना ? कौन सा हमें आज कहीं पूजा -पाठ में बैठना है ! और अगर अनिल जैसा आदमी यात्रा में साथ हो तो आप थोड़ा बहुत अगर नहाने के बारे में सोचोगे तो... वो भी नहीं सोच पाएंगे। ऐसे -ऐसे न नहाने के कारण बताएँगे भाईसाब कि आप इस कुकर्म से जीवनभर दूर रहने की भीष्म प्रतिज्ञा लेने को मजबूर हो जाएंगे 😃


नारकुण्डा से रामपुर बुशहर की तरफ निकलते ही खूबसूरत हिमाचल के दर्शन होने लगते हैं , पेड़ों पर लदे सेब इतना नजीदक देखकर मन बौरा जाता है। खूबसूरत , छोटे और अलग -अलग रंगों में पुते घर ऐसा वातावरण बनाते हैं जैसे किसी घर को अलग अलग रंगों के कनात से सजा दिया गया हो। कुछ अति प्राचीन लोग घरों से बाहर बैठे मिल जाएंगे । सुबह -सुबह निकले हैं तो घर के बाहर मूढ़ा डाल के चाय सुड़कते हुए अखबार पढ़ते हुए मिल जाएंगे। इन प्राचीन लोगों से बात करिये , दो मिनट बैठिये तो सही.... थोड़ी ही देर में आपसे ऐसे खुल जाएंगे जैसे खुली किताब। आसपास की जगहों के साथ -साथ अपनी जवानियों की कहानिया भी सुनाएंगे। मैं श्रीखंड एकदिन में करके लौट आया। फलां ट्रेक मैंने एक दिन में कर डाला।




सेब के पेड़ या कहें सेब के बाग़ जब सड़क किनारे दिखने लगते हैं तो मन करता है हाथ बढ़ा के तोड़ लें एकाध.... लेकिन डर भी है , कोई ठोक न दे और यहीं हमारी श्रीखण्ड की यात्रा संपन्न न कर दे ....लेकिन सेब हाथ में लेकर फोटो खिचवाने में तो कोई बुराई नहीं है ...और इजाजत लेकर पेड़ के नीचे गिरे एकाध सेब उठाकर चखने में भी शायद कोई बुराई नहीं है। मैं सेब के बाग़ जीवन में पहली बार देख रहा हूँ तो उत्साहित होना स्वाभाविक है। इससे पहले हम रानीखेत के चौबटिया गार्डन गए थे 2015 अक्टूबर-नवंबर में लेकिन वहां सेब के पेड़ तो दिखे , उन पर सेब नहीं देखने को मिल पाए। सेब के पेड़ों पर जालियां लगा रखी हैं यहाँ के सेब उत्पादकों ने। ज्यादातर सफ़ेद रंग की जालियां हैं लेकिन कुछ नीले रंग की भी हैं। प्लम , खुबानी और नाशपाती के भी पेड़ दिख रहे हैं लेकिन कम हैं और पहुँच से दूर भी हैं अभी हमारे लिए। सेब के पेड़ों पर जाली के साथ -साथ सफ़ेद रंग की चमकीली पट्टी भी लगाईं हुई है जो हवा से हिलती रहती है और चमक पैदा करती है। उनके अनुसार ये पट्टी सेब के फलों पर पक्षियों के आक्रमण से बचाने के लिए लगाईं गयी हैं। इस पट्टी की चमक से पक्षी दूर भाग जाते हैं और फल में मुंह मारकर उसे खराब नहीं कर पाते। रास्ते पर बाइक से चलते हुए गर्दन उठाकर अपने दोनों तरफ मुंह ऊपर करके चलने में आनंद आ रहा है , वातावरण सुन्दर और खुशबूदार है। हरियाली , पहाड़ , ऊँचे ऊँचे वृक्ष , सुन्दर और छोटे घर , वातावरण को और भी ज्यादा दर्शनीय बना देने में पूरा सहयोग कर रहे हैं।




                                           Nature is a recharge of life.


रामपुर पहुँच गए हैं। सतलुज नदी यहीं कहीं बहती है किताबों के हिसाब से , मुझे कोई जानकारी नहीं कहाँ से निकलती है , कहाँ को जाती है। लौटने में किसी ने बताया था कि इधर ही बहती है , देखी भी थी। उसमें भी पानी ही बहता है , इधर दिल्ली में यमुना बहती है उसमें भी पानी ही बहता है। वैसे यमुना दिल्ली में , हरियाणा में , यूपी में बहती नहीं बहता होना चाहिए। दिल्ली में यमुना बहता है ...यमुना यहाँ स्त्रीलिंग नहीं पुल्लिंग है ...क्यूंकि दिल्ली में यमुना नाम की नदी नहीं ...नाला है और पानी नहीं उसमें गंध बहती है।

रामपुर का पूरा नाम रामपुर बुशहर है जहां कभी हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और उनके पूर्वज राजा हुआ करते थे। राजा वो आज भी हैं। वो ही क्या , जो व्यक्ति एक बार विधायक बन गया वो फिर राजा ही बन जाता है , ये तो फिर भी राज परिवार से हैं और कई बार मुख्यमंत्री भी रहे हैं , तो राजा कहने में कुछ गलत भी नहीं है। 

रामपुर में रोड किनारे चलते हुए मेडिकल स्टोर पर नजर पड़ गई तो अपने लिए asthaline का एक पैकेट ले लिया जिससे अगर जरुरत आ पड़ी तो काम आएगी। चार पांच किलोमीटर आगे चलकर सतलुज नदी पर बने पुल को पार करके निरमण्ड का रास्ता अलग हो जाता है। अब रास्ता सिंगल वे हो गया है। बागी पुल होते हुए जाऊं गाँव पहुँच गए हैं। जाऊं गाँव से ही श्रीखण्ड की यात्रा शुरू होती है। गाँव ज्यादा बड़ा नहीं है इसलिए गाड़ियां इधर -उधर लगी हुई हैं। कुछ लोगों ने अपनी जगहों में पार्किंग की सुविधा भी की हुई है , पेड। बाइक , हेलमेट और एक्स्ट्रा बैग रखकर अब आगे बढ़कर रजिस्ट्रेशन काउंटर पहुंचना है। रजिस्ट्रेशन काउंटर से पहले ही कई भंडारे लगे हैं। चाय , हलवा , जलेबी , पूड़ी , सब्जी और भी बहुत कुछ लेकिन हमें अभी कुछ नहीं करना है। पहले रजिस्ट्रेशन करा लें फिर कुछ खाएंगे।




इस बार श्रीखण्ड की आधिकारिक यात्रा 15 जुलाई से शुरू हो थी और आज 15 जुलाई ही है। आगे -पीछे भी आप जा सकते हैं लेकिन हमारी ये पहले श्रीखण्ड यात्रा है तो हम इसी समय जा रहे हैं। आज 15 जुलाई है , 15 जुलाई 2019 ! आज मुझे विवाहित हुए 14 साल हो गए। चौदह साल का वनवास कट गया अब तो स्वतंत्रता मिल ही जानी चाहिए लेकिन भारतीय परम्परा रिश्तों से ही पहचानी जाती है इसलिए मुझे कोई शौक नहीं , कोई चाहत नहीं , कोई तमन्ना नहीं अपनी पत्नी से स्वतंत्राता लेने की। मैं आज भी उसे वही प्यार देना चाहता हूँ जो आज से ठीक चौदह वर्ष पहले दिया था।



रजिस्ट्रेशन हो गया , 150 रूपये लगे। अपना पहचान पत्र जरूर ले जाइये। हमसे पहले आज सुबह -सुबह ही हमारे एक और मित्र नरेश सहगल जी भी इसी यात्रा पर निकल चुके हैं। वो शायद पहले ही बैच में निकल गए होंगे क्यूंकि वो कल ही जाऊं गाँव पहुँच गए थे। फ़ोन नहीं लग पाया उनका तो फिर भंडारे की चाय , पकोड़ी और जलेबी उदरस्थ कर आगे बढ़ चले। आज कम से कम इस यात्रा के पहले पड़ाव थाचडू तक तो पहुँच सकें , ऐसा सोच के आगे बढ़ चले।





करीब 11 बजे निकले हैं रजिस्ट्रेशन काउंटर से और शुरुआत के घण्टे भर में ही चढ़ाई देख के यात्रा की कठिनाई का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। रास्ते में कुछ दूर तक दोनों तरफ त्रिशूल , दुपट्टा , प्रसाद , पूजा का सामन बेचने वालों की दुकानें सजी हैं। आसपास ही पोर्टर भी घूम रहे हैं जो इस यात्रा को संपन्न कराने में आपकी मदद करने और इस यात्रा से अपने लिए कुछ कमा ले जाने की आशा में हैं। 1000 रूपये प्रतिदिन का रेट है उनका , खाना रहना उनका अपना होता है। जाऊं से 3 -4 किलोमीटर आगे सिंघगाड़ नाम की जगह है जहां छोटी सी पानी की धार के कुछ इस पार और कुछ उस पार अलग अलग रंगों से पुते सुन्दर सुन्दर घर बने हैं। दोनों तरफ के पहाड़ों पर सेब के पेड़ दिखाई दे रहे हैं। अभी सिंघगाड़ पहुँचने के लिए एकदम स्वच्छ और श्वेत जलधारा के किनारे किनारे चलते जा रहे हैं। इतना निर्मल जल , हाथ लगाने को भी जी न करे कि कहीं मेरे छू लेने मात्र से ये गंदा न हो जाए !




सिंघगाड़ से लगभग निकलते ही जंगल के बीच से रास्ता ऊपर और ऊपर चलता जाता है और रास्ते के ऊपर चलते जाने के साथ ही सांसें भी ऊँची होने लगती हैं। अभी मुश्किल से चार किलोमीटर चले होंगे लेकिन सांसें कांपने लगती हैं , चढ़ाई जरूर है और लगातार चढ़ाई है लेकिन खतरनाक नहीं है। आप अगर लगातार नहीं चल सकते तो रुक -रुक कर चलिए। खड़े होकर थोड़ा आराम करिये और फिर चल दीजिये। एक बात याद रखिये , ये कोई कम्पटीशन नहीं है कि मैंने श्रीखंड यात्रा तीन दिन में कर ली , मैंने दो दिन में कर ली। आप अपने हिसाब से चलिए , किसी के साथ चलते रहने की कोशिश करेंगे तो परेशान हो जाएंगे। आपका मन कह रहा है चलो तो चलो ! आपका मन है रुकने का तो रुक जाइये। चार दिन की बजाय पांच दिन में हो जायेगी , पांच की बजाय छह दिन में हो जायेगी आपकी यात्रा , कोई आफत थोड़े ही आ जायेगी एक दिन ज्यादा लग जाएगा तो ? लेकिन हाँ , अगर आपने जल्दी की तो संभव है आफत भी आ जाए ! पैर फिसल जाए , टखना टूट जाए , शरीर थक जाए उससे बेहतर है एक दिन एक्स्ट्रा ले लिया जाए यात्रा में। चढ़ाई चढ़ते -उतरते , जंगल के बीच की पगडंडी पर चलते हुए आप ऐसी जगह पहुँचते हैं जहां लोहे की अनगिनत सीढ़ियां लगी हुई हैं। इन सीढ़यों के दूसरी तरफ जब आप उतरेंगे तो वहां कई टैण्ट लगे हैं नदी किनारे। ये जगह बराटी नाला कही जाती है। भण्डारा यहाँ भी है , चाय , पकोड़ी , हलवा ! हमें आगे जाना ​है अभी और।





बराटी नाला से मुश्किल से बीस कदम चलते ही फिर ऊपर की तरफ चढ़ना है और करीब आधा किलोमीटर चलने के बाद एक छोटे से पुल को पारकर नदी पार कर जाते हैं। अब तक नदी हमारे दाएं हाथ पर थी अब बाएं हाथ पर दिखती है और फिर थोड़ी देर बाद आँखों से ओझल होने लगती है क्यूंकि हम आगे बढ़ चुके हैं। शाम गहराने लगी है और अभी पहला पड़ाव थाचडू करीब चार किलोमीटर दूर है। आज संभव नहीं लगता वहां तक पहुँच पाना इसलिए जो टैण्ट मिलेगा अब उसी में घुस जाएंगे और आज की अपनी यात्रा को विराम देंगे। 250 रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से रहना और खाना मिल गया है टैण्ट में ! और क्या चाहिए ? अनिल बाबू के पास जिओ की सिम है और जिओ के नेटवर्क आ रहे हैं। वो भाईसाब चैटिंग में व्यस्त हैं और मेरा वोडाफोन का नंबर है जिसके नेटव्रक देखने तक को तरस रहा हूँ। मुझे जलन हो रही है जिओ से भी और अनिल से भी। टुकुर टुकुर रज़ाई में से मुंह निकालकर देख रहा हूँ। कब तक देखता रहता ? भाई ज़रा अपना हॉटस्पॉट ऑन करो मुझे भी मैसेज चेक करने हैं यार। मेरी Marriage Anniversary है आज ! कई लोगों के मैसेज आये हुए पड़े होंगे। एक -एक फाइव स्टार चॉकलेट से मैंने टैण्ट में अपनी 14 वीं विवाह वर्षगाँठ मनाई , क्या बेहतरीन और शानदार Celebration था मेरी एनिवर्सरी का। आनंददायक और पूर्ण संतुष्टि वाला !

शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

Srikhand Yatra : Delhi to Narkanda

एक कहावत है कि दुनियां की सुन्दर चीजें आसानी से नहीं मिलतीं और न सबको मिलती हैं। वो लोग भाग्यशाली होते हैं जिन्हें सुन्दर जगहों के दर्शन हो पाते हैं और जिन्हें सुन्दर के साथ -साथ पवित्र और दुर्गम जगहों पर अवस्थित भगवान से जुड़े स्थानों पर जाने का अवसर मिलता है , वो परम सौभाग्यशाली माने जा सकते हैं। मुझे भगवान ने क्या नहीं दिया , इस बात पर कभी सोचा नहीं लेकिन जो दिया उसमें हिम्मत और सहनशीलता अलग रूप से परिभाषित की जा सकती है। करीब 15 साल पहले आप मुझे मिले होते तो आपको मेरे अंदर ट्रैकिंग के कीटाणु माइक्रोस्कोप से भी ढूंढें नहीं मिलते , मिलता भी तो क्या ? मिलता आपको,   हमेशा मेरे साथ रहने वाला inhaler जिसे पुश करके फूं फूं करते हुए मुंह में डाले सांस लेना पड़ता था। मिलता आपको Asthaline -4 mg की टेबलेट का पत्ता जिसमें से 24 घंटे में एक गोली खानी ही पड़ती थी। गोली खत्म तो .. मैं ख़त्म !


वो साल दूसरा था ये साल दूसरा है .... वो 2004 था और ये 2019 है। आज , कभी मरियल से दिखने वाले एक सवा हड्डी के इंसान के खाते में तीन -चार बेहतरीन ट्रैक हैं वसुधारा फॉल , स्वर्गारोहिणी , नंदीकुंड , आदि कैलाश और श्रीखण्ड के । जिसका वजन कभी 50 किलो से ऊपर का काँटा ही नहीं छू पाता था आज उस मरियल के वजन का काँटा 80 किलो छू के वापस लौट आया 72 -73 पर । वो इंसान जिसको जाड़े का मौसम आते ही दही -मठ्ठा बंद कर दिया जाता था , जिसके माँ बाप पूरी -पूरी रात उसको अदरख की चासनी चटाते रहते थे जिससे सांस कण्ट्रोल में रहे , उसकी Wishlist में अब कागभुशुण्डि , खारदुंगला और अन्नपूर्णा सर्किट जैसे ट्रेक उसकी ख्वाहिशों को ऊर्जा प्रदान करते हैं। वसुधारा , स्वर्गारोहिणी , नंदीकुंड और आदि कैलाश की ट्रैकिंग कहानियां आप पहले पढ़ चुके हैं , नहीं पढ़ी तो अब पढ़ सकते हैं लेकिन श्रीखण्ड जैसे कठिनतम ट्रैक की कहानी अब शुरू होगी। इस पोस्ट से....

आगे बढ़ने से पहले , अपनी बात कहने से पहले थोड़ा श्रीखण्ड के विषय में बात कर लें तो ज्यादा अच्छा है। दुनिया के सबसे ऊंचाई पर स्थित धार्मिक स्‍थलों में से एक श्रीखंड महादेव का मंदिर हिमाचल प्रदेश के कुल्‍लू जिले में स्थित है। यहाँ करीब 18300 फुट (5200 मीटर से ज्यादा ) की ऊंचाई पर एक ऊँची लम्बी शिला के रूप में शिवलिंग है जिसके दर्शन कर मोक्ष की प्राप्ति होती है। ये जो शिवलिंग है उसकी ऊंचाई 70 फ़ीट से ज्यादा है। ये वो जगह मानी जाती है जहाँ भस्मासुर नाम के दानव ने कठोर तपस्या कर भगवान् शिव से वरदान प्राप्त किया था कि वह जिस पर भी हाथ रखेगा वो भस्म हो जायेगा । ये वरदान प्राप्त होने के बाद भस्मासुर के मन में पाप जाग गया और वो माता पार्वती से ही विवाह करने के बारे में सोचने लगा । भगवान शिव भी न , कभी कभी ज्यादा उत्साह में आकर अपने पद का गलत उपयोग करके लोगों को रेवड़ियां बाँट देते हैं और फिर उसका खामियाजा भी उन्हें ही ​भुगतना पड़ता है । अगर आज के समय में भगवान शिव सरकार में होते तो उनका इस्तीफा मांग लिया जाता और सोशल मीडिया में खूब 'ट्रोल ' भी होते :) तो जी भस्मासुर को वरदान मिल गया और माता पारवती जी से विवाह की जिद के कारण ये मामला शिव के हाथ से निकल गया । तब विष्णु जी ने एक नृत्यांगना का रूप धरकर भस्मासुर को अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित किया । नृत्य करते-करते भगवन विष्णु ने एक स्टेप में भस्मासुर का हाथ उसके ही सिर के ऊपर रखवा दिया और इस तरह भस्मासुर की राम नाम सत्य हो गई।

श्रीखण्ड यात्रा Officially इस बार यानि 2019 में , 15 जुलाई से शुरू होनी थी । मैं पहली बार जा रहा था इसलिए यात्रा समय में ही जाने का निश्चय किया और फेसबुक पर साथी भी ढूंढ लिए लेकिन ज्यादातर लोगों का प्रोग्राम आगे -पीछे था इसलिए मैं और अनिल दीक्षित( Delhi ) ही साथ में जाने को तैयार हुए । ऐसे इस ट्रैक को आप आधिकारिक यात्रा समय ( जो अधिकांशतः जुलाई के दूसरे सप्ताह से शुरू होकर 15 दिन चलता है ) के आगे -पीछे भी कर सकते हैं । वहां जून शुरू होते-होते लोग अपना टैण्ट और राशन रखना शुरू कर देते हैं और सितम्बर तक आपको ये सुविधा मिल जाती है । यात्रा समय में हालाँकि आपको भीड़ मिलेगी , टैण्ट में रुकने और खाने पीने की चीजों में थोड़ी वृद्धि भी मिल सकती है लेकिन सुरक्षा और सहूलियत यात्रा समय में ज्यादा मिल जाती है। आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप यात्रा समय में जाना चाहते हैं या यात्रा से हटकर । दोनों बातों के कुछ फायदे हैं कुछ नुकसान।

सावन के महीने में बहुत लोग कांवड़ लाते हैं , कुछ भगवान शिव से जुड़े स्थानों की यात्रा करते हैं । श्रीखण्ड ऐसी ही जगह है और आधिकारिक यात्रा भी उसी हिसाब से लगाईं जाती है । उधर कश्मीर में अमरनाथ यात्रा चल रही होती है , हिमाचल में श्रीखण्ड की यात्रा और तिब्बत में कैलाश मानसरोवर तो उत्तराखंड में आदि कैलाश की यात्रा। जो लोग ये यात्राएं नहीं कर पाते या कर चुके होते हैं वो ज्योतिर्लिंग की यात्राओं की तरफ निकल जाते हैं । अमरनाथ की यात्रा कठिन मानी जाती है और श्रीखण्ड की यात्रा अमरनाथ यात्रा से भी कठिन ....तो आप खुद अंदाज़ा लगाइये कि श्रीखंड यात्रा कितनी कठिन होगी ? विश्व की सबसे कठिनतम यात्राओं में शामिल है श्रीखण्ड कैलाश की यात्रा लेकिन सच कहूं ....मुझे ज्यादा कठिन नहीं लगी । क्यों नहीं लगी ? इसका जवाब बाद में ...

तो जी 13 जुलाई 2019 को हम बैग लेकर मेट्रो से समयपुर बादली पहुँच गए चार बजे से पहले । पहले भाईसाब अनिल दीक्षित ने तय किया कि मैं उनसे कश्मीरी गेट मिलूं , वो वहीँ बाइक लेकर मेरा इंतज़ार करेंगे । कश्मीरी गेट पहुँचने वाले थे तो मैसेज आया कि विश्वविद्यालय मिलो । विश्वविद्यालय पहुंचे तो फ़ोन आया , समयपुर पहुंचो । समयपुर पहुँच गए जी .. भाईसाब नहीं मिले। चाय पी ली .. भाईसाब नहीं आये . एक और चाय पी ली... . भाईसाब नहीं आये । आखिर भाईसाब साढ़े चार बजे पहुँच गए और ऐसे हमारी श्रीखण्ड महादेव की यात्रा शुरू हो गयी । दिल्ली कब खत्म हुई और कब सोनीपत वाला बॉर्डर आ गया , पता ही नहीं चला और हम जा बैठे श्रीमान संजय कौशिक जी के ऑफिस में । नीबू पानी पिया और जल्दी ही उनसे विदा ली । आज चंडीगढ़ पहुंचना ही था क्योंकि वहां हमारे मित्र विमल बंसल जी हमारा इंतज़ार कर रहे हैं । रात 11 बजते बजते हमारी बाइक चंडीगढ़ की सड़कों पर धुंआ उड़ाती हुई उड़े जा रही थी।


अगला दिन शुरू होते ही बारिश ने स्वागत किया हमारा । हालाँकि विमल जी ने बताया था कि बारिश चार बजे ही शुरू हो गयी थी लेकिन हम दिल्ली से चंडीगढ़ तक बाइक पर चलते चलते इतना थक गए थे कि बारिश का ख्याल करते ....कि अपना दर्द भुलाते । मैं पहली बार इतना दूर बाइक से आया हूँ और वो भी पीछे बैठकर । कहीं ढंग की जगह बैठना भी मुश्किल हो रहा था । बन्दर और मैं लगभग एक जैसे दीखते उस वक्त और अभी तो आज का दिन भी बाइक पर ही जाएगा .....आह ! मर गया !

विमल जी से विदा ले ही रहे थे तभी उनके मित्र और हमारे फेसबुक मित्र लोकेश कौशिक जी भी पहुँच गए। विमल जी बहुत ही मेहनती व्यक्ति हैं और जब काम में लगते हैं तो पूरा दिन और रात काम करते हैं जबकि लोकेश जी चंडीगढ़ पुलिस में हैं और वो पुलिस का एक नया रूप दिखाते हैं । बहुत ही गुणी , ज्ञानवान और बहुत प्रसिद्ध फेसबुक लेखक। जल्दी ही किताब वाले लेखक भी हो जाएंगे । शुभकामनायें लोकेश जी । दस तो यहीं चंडीगढ़ में ही बज गए । नाश्ता करके फटाफट निकल लिए । आज साधुपुल , चैल और कुफरी होते हुए नारकंडा पहुंचना ही है।

Satopanth Badrinath Journey


साधुपुल से जो हरियाली शुरू होती है वो आपकी यात्रा को यादगार बना देती है । सुन्दर रोड और उसके दोनों तरफ घना जंगल।  क्या बात है ! फोटो भी देखने में मस्त लगते हैं और यात्रा में भी आनंद आ जाता है।  बंदर के जैसे लाल हो गया होगा पीछे वाला हिस्सा लेकिन आज दर्द पर इन खूबसूरत रास्तों की सुंदरता ज्यादा मायने रखती है।   दर्द को थोड़ी देर भूल जाते हैं और आगे चलते हैं चैल की तरफ।   चैल ......वही चैल जहां कभी भारत और शायद दुनियां का सबसे ऊंचा क्रिकेट स्टेडियम हुआ करता था लेकिन अब वहां ऐसा कुछ नहीं है। स्टेडियम को भारतीय सेना ने अपने कण्ट्रोल में लिया हुआ है और अब ये बस एक खेल का मैदान है जैसे ...और होते हैं। यहाँ कभी एक क्रिकेट मैच खेला गया था भारत और... . पता नहीं दूसरी टीम कौन सी थी ? इसी चक्कर में यहाँ आये थे कि सबसे ऊँचे स्टेडियम को देखेंगे लेकिन अब खाली हाथ कुफरी की तरफ निकल लिए। बारिश आती रही मगर हम चाय पीते रहे और चलते रहे। कुफरी ,  बहुत छोटी लेकिन बहुत प्रसिद्ध जगह। एक रोड है जहाँ सर्दियों में खूब बर्फ हो जाती है बस यही बर्फ है जो नए नए लोगों को , हनीमून कपल्स को खींच लाती है।   ये जगहें , ये रास्ते ऐसे हैं जहां जिंदगी अपने पुराने कपड़े उतारकर फिर से रिचार्ज होने को आतुर दिखती है और अगले कुछ वर्षों तक शुद्ध प्राणवायु के साथ जीने को लालायित हो जाती है।  बहुत धन्यवाद अनिल भाई ! ऐसी सुन्दर और रपटीले रास्तों को दिखाने के लिए।

 कुफरी से निकलकर नारकंडा की तरफ चल दिए। रास्ते में कहीं कुमारघाट करके एक जगह आई थी जहाँ बाइक का ब्रेक रिपेयर कराया था। शाम को आठ बजते बजते नारकंडा पहुँच चुके थे और 500 रूपये में एक रूम ले चुके थे। नारकंडा जगह हो और बारिश का मौसम हो तो रजाई की जरुरत पड़ेगी ही। ये वही नारकंडा है जिसकी हर गली , हर रोड दिसंबर -जनवरी में बर्फ से भर जाती है और हर जगह ठसाठस भरी होती है बर्फ देखने आने वाले सैलानियों से। जिस कमरे में हम थे उसका किराया 2500 -3000 तक पहुँच जाता है मौसम में लेकिन हम तो 500 में ही मौज करेंगे। टीवी पर न्यूज़ आ रही है कुमारघाट में एक होटल के गिरने की और दुखद बात ये कि इस घटना में 12 -13 भारतीय सैनिकों की मौत हो गयी है।  हे भगवान ! ये तो वही होटल है जिसके नीचे हमने कुछ घंटों पहले बाइक के ब्रेक रिपेयर कराये थे ।   आज वर्ल्ड कप का फाइनल मैच है ..आपने भी एन्जॉय किया होगा हमने भी किया ऐसा रोमांचक मैच कोई कैसे छोड़ सकता है ? तो अब कल मिलते हैं.....



तरीका बढ़िया है न





ये कुफरी है -Its Kufri - A famous Hill Station


फिर मिलेंगे ....

बुधवार, 9 अक्टूबर 2019

Tomb of I'timād-ud-Daulah : Agra

एत्माउद्दौला का मक़बरा : आगरा
यात्रा : अप्रैल -2019


दिल्ली की सर्दी और आगरा की गर्मी , दोनों सगी बहनें हैं। मारती हैं तो खींच -खींच के मारती हैं ! एक सर्द थपेड़े मारती है तो दूसरी लू के थपड़े मारती है लेकिन हमारी रोज़ी -रोटी उत्तर प्रदेश में है तो ये सब तो झेलना ही पड़ेगा। आप एकदम से ज्ञान देंगे कि गर्मी में आगरा जाना ही क्यों ? तो भैया जी , कॉलेज जब -जहाँ भेजेगा जाना ही पड़ेगा और इस बार कॉलेज ने अप्रैल -2019 में भेज दिया आगरा। मुफ्त आना -मुफ्त जाना और मुफ्त रुकना और सोने पे सुहागा ये कि मुफ्त खाना ! ऐसे में तो मैं साइबेरिया और अंटार्टिका भी चला जाऊँगा , यहाँ तो बस 40 डिग्री का टेम्प्रेचर ही सहन करना था और वो भी एक दिन ! हमारे यहाँ ब्रज भाषा में कहावत है एक -दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते ! जैसी मिल जाए घर में बाँध लो। तो जब हमें मुफ्त की यात्रा मिल रही है तो हम क्यों इस मुए टेम्परेचर को बीच में आने दें ?

तो जी अप्रैल के तीसरे वीक में हम मुंह और सर पर गमछा बांधे भगवन टाकीज चौराहे पर इस इंतज़ार में थे कि मौसम कुछ मेहरबानी कर दे तो रामबाग की तरफ का ऑटो पकड़ लें लेकिन मौसम तो आज जैसे मुंबई के शेयर बाजार की तरह चढ़ता ही जा रहा था। अभी और चढ़ेगा क्यूंकि अभी तो कुल जमा डेढ़ -पौने दो बजा है ! आसपास खाना खाने में वक्त व्यतीत कर लिए तो बज गया ढाई और अब ज्यादा इंतज़ार होगा नहीं हमसे इसलिए 10 रुपल्ली में रामबाग पहुँच लिए। आगरा की बस्तियों के नाम मुझे पहले से ही बहुत पसंद हैं - रामबाग तो एकदम सभ्य और संस्कारी नाम है ! गधा पाड़ा , हाथी पाड़ा , टेढ़ी बगिया , घटिया आज़म खां ! कौन लाया होगा ऐसे मधुर -मधुर नाम ? एक भारत रत्न उसके लिए भी बनता है जिसने इतने सुन्दर और संस्कारी नाम दिए हैं इस शहर की बस्तियों को !!

रामबाग से एत्माउद्दौला जाने का सोचा था लेकिन डायरेक्ट ऑटो या बस नहीं मिल रही थी। मिलती भी नहीं है शायद तो जो मिलेगा उसी से चल देंगे। एक मिल गया , थोड़ी पहले उतार देगा। कोई बात नहीं ! जहाँ वो उतारेगा वहां से एत्माउद्दौला मुश्किल से 300 -350 मीटर ही रह जाता है और ये दूरी कोई मायने भी नहीं रखती। मैंने कौन सा पांवों में मेहंदी सजाई हुई है जो दिक्कत होती ? एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल ली और चल भैया एत्माउद्दौला देखने। आगरा में एक साल गुजारा है आगरा कॉलेज में , तब नहीं देखा था इसे लेकिन तब 20 साल पहले घूमने के बारे में इतना सोचता भी नहीं था , नहीं तो मैं साइकिल से ही हो आता। एत्माउद्दौला पहुँच गया हूँ और टिकट ले लिए है। 30 रूपये का टिकट मिला है अकेले का और एडल्ट हूँ इसलिए पूरा टिकट लगा है। अब यहाँ तक आ गए हैं , अंदर जाने के लिए टिकट भी खरीद लिया है तो ये बताना और जानना भी जरुरी हो जाता है कि एत्माउद्दौला में ऐसा क्या है जो मैं इतनी गर्मी में यहाँ चला आया हूँ ?

एत्माउद्दौला को बेबी ताज भी कहा जाता है और कभी कभी ज्वेल बॉक्स " भी कहते हैं। ये एक मुग़लकालीन मक़बरा है जिसे जहांगीर की बेगम नूरजहां ने अपने पिता मिर्ज़ा गयास बेग की याद में बनवाया था। मिर्ज़ा जो हैं वो जहांगीर के दरबार में कोई मंत्री भी थे और पहुँच वाले मंत्री रहे होंगे नहीं तो कौन ससुर , अपने ससुर के लिए इतना खर्च करेगा ? इतिहासकार बताते हैं कि मिर्ज़ा ग्यास , जहांगीर के प्रधानमंत्री हुआ करते थे और साथ में वित्त मंत्री का भी अतिरिक्त प्रभार था इनके पास। वैसे मिर्ज़ा साब भी पर्शियन अमीर थे और वहां से भगा दिए गए थे। हो सकता है कुछ मालपानी वहां से ले आये हों , भागते भागते ! मिर्ज़ा साब को उनके दामाद जहांगीर ने " एत्माउद्दौला " यानी सरकार का मजबूत स्तम्भ ( Pillar of State ) का खिताब दे रखा था इसलिए मिर्ज़ा साब एत्माउद्दौला के रूप में ज्यादा प्रसिद्ध हो गए। अच्छा हाँ , ये जो मिर्ज़ा साब थे मिर्ज़ा गयासुद्दीन , ये मुमताज़ महल के दादा भी थे। मुमताज़ महल , वो ही ताजमहल वाली बेगम जो शाहजहां के 14 वें बच्चे को पैदा करते -करते स्वर्ग सिधार गयी थी और जिसकी याद भी शाहजहां रोता रहता था। वैसे मुमताज़ महल का असली नाम अर्जुमंद बानो था और उसके बाप का नाम अबुल हसन आसफ़ खान जबकि माँ का नाम Plondregi Begum या दीवानजी बेगम था ! नूरजहां , मुमताज़ की बुआ हुई और ये नूरजहां बहुत ही होशियार और चतुर महिला थीं। इन्होने अपने पिता की याद में ही मक़बरा नहीं बनवाया यहाँ आगरा में , बलि जहांगीर की याद में भी लाहौर में एक मक़बरा बनवा दिया जिसे जहांगीर का मक़बरा (Tomb of Jahangir ) कहते हैं। जहांगीर के मकबरे में ही पहली बार पच्चीकारी Pietra Dura ) का उपयोग किया गया है। वैसे अगर दोनों मकबरे का निर्माणकाल देखें तो दोनों लगभग साथ ही बने थे , लाहौर का भी और आगरा का भी ! एक दो साल का ही अंतर रहा है दोनों में !

एत्माउद्दौला को लोग ऐसा मानते हैं की ताजमहल बनाने का आईडिया शाहजहां को इसे देखकर ही आया था इसीलिए इसे बेबी ताज कह देते हैं। एत्माउद्दौला के मकबरे कोभी यमुना किनारे बनाया गया है। जब आप अंदर जाते हैं तो लाल पत्थर के बड़े -बड़े गेट दीखते हैं जिन्हें शायद मेहराब कहते हैं। मुख्य मकबरा एक चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है जो मार्बल से बना है। अंदर मिर्ज़ा ग्यास और उनकी पत्नी अस्मत बेगम की कब्रें हैं जिनके आसपास दीवारों पर बहुत सजावट की गयी है।

किसी को जिन्दा रहे रोटी नहीं मिलती
ये दोनों मरके भी घी पी रहे हैं

मुख्य मकबरा का जो चबूतरा है , उसके चारों तरफ सुन्दर बगीचा है जो इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा देता है। वैसे चांद एक ही है लेकिन बाकी तीन चाँद कहावत कहने वाले ने लगा दिए होंगे। मेरी तरफ से दो चार और लगा देता , कौन सा चांद मेरे पिताजी ने खरीद लिया था। मुख्य मकबरे में पता नहीं ज्यादा गर्मी नहीं लगी मुझे जबकि बाहर सूरज मुझे जला डालने पर तैयार था। कुछ इस तरह की डिज़ाइन की गयी है कि मिर्ज़ा साब और उनकी बेगम को मरने के बाद भी कब्र में गर्मी न लगे। इसे कहते हैं -गर्मी में ठण्ड का कूल कूल एहसास ! मजेदार बात ये भी है कि इसे नूरजहां ने ही डिज़ाइन किया था। इसके चारों कोनों पर करीब तेरह मीटर ऊँचे षट्कोणीय ( 13 meters high hexagonal towers ) लगे हैं और जो बीच में छतरी सी दिख रही है वो इन दोनों पति -पत्नी की कब्र के बिलकुल ऊपर बनाई गई है।

अब घूम लेते हैं और फोटो लेते हैं। हाँ अपना कैमरा नहीं था उस दिन अपने पास इसलिए सभी फोटो मोबाइल से लिए गए हैं !

आगरा का प्रसिद्ध St. John's College , कभी कभी बैडमिंटन खेलने जाता था मैं यहाँ Agra College से

पहुँच गए एत्माउद्दौला
















चीनी का रोज़ा के पास यमुना किनारे बनी मुगलकालीन छतरियां






चीनी का रोज़ा
सैकड़ों साल पहले की बनी इमारत की छत में अभी तक चमक बाकी है

जाते -जाते.........................................