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यात्रा तिथि : 14 June -2018
बुद्धी गाँव पहुँच चुके थे और शायद हम बाहर से आने वाले लोगों के लिए रुकने की इस गाँव की सबसे शानदार जगह पर थे। बढ़िया बिस्तर , पसंद का खाना और नहाने के लिए गर्म पानी !! और क्या चाहिए था ? वो भी बहुत कम पैसों में। नाम जानबूझकर नहीं लिख रहा हूँ क्यूंकि ये सरकारी जगह है और यहाँ मानसरोवर यात्रा में साथ जाने वाले डॉक्टर और ऑफिसर्स रुकते हैं। आप जाना चाहें और यहाँ रुकना चाहें तो पर्सनल में पूछ सकते हैं , बता दूंगा।
बैग का वजन उतारकर जोशी जी को लेने चले गए। अँधेरा हो चुका था और इस वक्त तक जोशी जी का नहीं आना चिंता बढ़ा रहा था , मैं वापस उसी रास्ते पर चलने लग गया जिस रास्ते से आया था। लेकिन थोड़ी दूर पर जाते ही दूर से जोशी जी आते हुए दिखाई दे गए , असल में उन्हें अपने क्षेत्र के कुछ लोग मिल गए थे और फिर तो चाल धीमे हो ही जानी थी।
बुद्धि गाँव में आपको रहने खाने का इंतेज़ाम बहुत ही कम पैसों में हो जाता है अगर बिलकुल कम की बात करें तो 100 रूपये प्रति व्यक्ति तक भी । गाँव में कुल 277 व्यक्ति हैं जिनमें से बहुत सारे लोग परिवार सहित आसपास या नेपाल के पहाड़ों में कीड़ा जड़ी ढूंढने निकल जाते हैं कुछ अपने खच्चर चलाते हैं और कुछ पोर्टर का काम करते हैं और जो बाकी रह जाते हैं यात्रियों की सेवा के लिए ढाबा खोल लेते हैं यहीं गाँव में। चकती पीने का मन हो तो 20 रूपये में एक गिलास मिल जायेगी। रात हो रही है खाना खाकर मोबाइल फ़ोन और कैमरा चार्जिंग पर लगा देता हूँ , अब सुबह मिलेंगे।
सुबह के पांच बजे हैं और दिन बहुत शानदार दिखाई दे रहा है। खिड़की के बाहर आवाज़ आ रही है ,
बाहर देखने पर आदि कैलाश जाने वाले यात्री नजर आ रहे हैं , मतलब इन्हें पांच बजे ही निकाल दिया अगली यात्रा के लिए और एक हम हैं जो अभी तक बिस्तर में ही घुसे पड़े हैं। चाय आएगी तब बिस्तर छोड़ेंगे और फिर नहा धोकर नाश्ता करके सात बजे निकलेंगे। आज हमारा अगला पड़ाव इस यात्रा और कैलाश मानसरोवर यात्रा का सबसे प्रसिद्ध गाँव गुंजी होगा और गुंजी, बुद्धी से करीब 20 किलोमीटर दूर होगा। लेकिन ये 20 किलोमीटर बहुत मुश्किल भरा होगा क्यूंकि इस पूरी यात्रा की सबसे कठिन चढ़ाई "छियालेख " इसी हिस्से में बुद्धी से बस 500 मीटर आगे से ही शुरू हो जायेगी। छियालेख तक पहुँचने तक आपको नेपाल की साइड में अन्नपूर्णा चोटी अपनी पूरी चमक के साथ लगातार दिखाई देती रहेगी बस मौसम साफ़ होना चाहिए।
बुद्धी 2720 मीटर पर है और छियालेख 3400 मीटर पर , यानि आपको चार किलोमीटर के ट्रेक में लगभग 700 मीटर की ऊंचाई चढ़नी होती है और ये चढ़ाई ही आपके स्टेमिना को चेक कर लेती है। सैकड़ों सीढ़ियां और हर सीढ़ी पर अगला कदम रखते ही पाँव की सारे नसें तन जाती हैं और ऐसा लगता है जैसे पूरी दुनियां का वज़न मेरे ही कंधों पर आ गया हो जबकि मुश्किल से 15 किलोग्राम वजन ही कंधे पर लटक रहा होगा। चार किलोमीटर की दूरी और लगभग 700 मीटर चढ़ने में चार घंटे लग गए लेकिन संतोष इस बात का था कि सबसे कठिन चढ़ाई पूरी हो गई थी। अभी रास्ता बहुत तय करना होगा लेकिन खड़ी चढ़ाई कहीं नहीं आएगी जैसे यहां छियालेख में आई थी। बुद्धी के रास्ते पर चलते हुए ऊपर की ओर एक खम्भा दिखाई दे रहा था और वो खम्भा ही छियालेख का हमारे लिए एक पहचान चिन्ह बन गया था। वहां तक जाना है भाई। रास्ते में यात्री शेड बने हैं और पत्थरों के रास्ते पर खच्चर भी लगातार चलते रहते हैं तो अपना मुंह कपड़े से बांधकर चलिए और खच्चरों से बचकर चलिए।
छियालेख की चढ़ाई पूरी करते ही एक गेट जैसा आता है ईंटों का बना हुआ , इसके बाहर निकलते ही कुछ घर , दुकान दिखने लगेंगे। इनमें ही नाश्ता -खाना मिल जाता है। हमने अन्नपूर्णा रेस्टॉरेंट में अपनी पेट पूजा की थी जहां आपको चाय से लेकर कोल्डड्रिंक और फ्रूटी तक मिल जाती है। छियालेख बहुत ही सुन्दर और प्रकृति की मनोरम छटा वाली जगह है। आप अभी अभी ईंटों वाले जिस गेट से पार होकर आये हैं , वहां लिखा है -छियालेख : फूलों की घाटी ! हालाँकि फूलों की घाटी जैसा तो कुछ नहीं है यहां लेकिन हरियाली और आसपास का वातावरण मंत्रमुग्ध कर देने वाला है। यहीं किसी शहीद का एक यादगार स्थल भी है या शायद कोई धार्मिक महत्त्व की स्ट्रक्चर है , पक्का नहीं है। खूब फोटो खींचिए यहां , अच्छा लगेगा।
छियालेख में ITBP और इंडियन आर्मी के कैंप हैं। हमारे साथ भी बहुत सारे सैनिक वहां मौजूद थे। यहां से कभी कभी कोई गाडी गर्ब्यांग होते हुए गुंजी तक जाती है। जी , सही पहचना आपने आगे सड़क बनी है लेकिन वो RCC और कंक्रीट वाली सड़क नहीं है , बस सड़क के नाम पर एक सड़क है कच्ची ! लेकिन यही सड़क बहुत काम की भी है। कच्ची सड़क पर इंडियन आर्मी और ITBP के ट्रक तो चलते ही हैं कभी कभी एक जिप्सी भी दिख जाती है। ये पहली बार था जब यहाँ हमारे परमिट चेक किये गए और हमारी एंट्री हुई रजिस्टर में। हालाँकि लखनपुर में भी चेक किये गए थे लेकिन उनका वो टेम्पररी ठिकाना था। तो
कहने का मतलब ये हुआ कि अगर आपके पास इनर लाइन परमिट नहीं है तब भी आप छियालेख तक तो आ ही सकते हैं लेकिन असली रंग , असली खूबसूरती तो अभी आगे मिलेगी और मुझे पक्का भरोसा है कि आप इस जन्नत को मिस नहीं करना चाहेंगे।
हम चार लोग थे अब , मैं , कोठारी जी , जोशी जी और हरजिंदर भाई। इतना पता चल गया था कि छियालेख से कोई गाडी जाती है गुंजी 3 -4 बजे के आसपास। ऐसे GREF की एक गाडी बुद्धी से भी जाती है सुबह सुबह आठ बजे के आसपास लेकिन वो गाडी सिर्फ मजदूरों को लेकर जाती है , यात्रियों को नहीं बिठाते हैं वो , हालाँकि हमारे साथ गए उमेश जोशी जी को उनके साथ चल रहे बच्चों को देखकर बिठा लिया था। कहने का मतलब ये कि आप बुद्धी गाँव से कोई भी गाड़ी मिलने की संभावना को मन से निकालकर चलिए लेकिन हाँ ,
छियालेख में आप गाडी मिलने की उम्मीद कर सकते हैं। अगर आपका दिन अच्छा है और गाडी ड्राइवर का मूड अच्छा है तो आपको गाडी में जगह मिल जायेगी हालाँकि मैं कहूंगा कि अगर आप सच में यात्रा करने आये हैं और आपको बहुत ज्यादा परेशानी नहीं हो रही चलने में तो आप गाडी के बारे में सोचिये भी मत। और कम से कम इधर से जाते हुए तो बिल्कुल भी मत सोचिये क्योंकि आगे जन्नत जैसे नज़ारे हैं और सुन्दर -ऐतिहासिक गाँव गर्ब्यांग हैं जिसे आप गाडी से जाने पर "मिस " कर देंगे।
छियालेख के ITBP कैंप पर जब हम एंट्री करा रहे थे तब एक जिप्सी वहां आकर खड़ी हुई , गाडी देखते ही कोठारी जी की उम्मीदों को पंख लग गए :) हालाँकि हम सब उस वक्त गाडी से जाने का मन बना चुके थे लेकिन जब गाडी के ड्राइवर ने कहा -इसमें दिक्क्त है मैं नहीं ले जा पाऊंगा तब कुछ निराशा भी हुई लेकिन भगवान जो करता है अच्छे के लिए ही करता है। वहां केवल कोठारी जी रुक गए इस उम्मीद में कि गाडी जायेगी तो वो उसी से आएंगे। बाद में कोठारी जी उसी जिप्सी में बैठकर गुंजी तक गए। और हम तीनों पैदल -पैदल छियालेख की बेहतरीन और चौड़ी घाटी के नज़ारे अपने कैमरों में कैद करते हुए गर्ब्यांग की तरफ आगे बढ़ने लगे।
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै मकाराय नम: शिवाय ॥
जो शिव आकाशगामिनी मन्दाकिनी के पवित्र जल से
संयुक्त तथा चन्दन से सुशोभित हैं,
और नन्दीश्वर तथा प्रमथनाथ आदि गण विशेषों एवं
षट् सम्पत्तियों से ऐश्वर्यशाली हैं, जो मन्दार–पारिजात आदि अनेक पवित्र
पुष्पों द्वारा पूजित हैं;
ऐसे उस मकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता
हूँ।
छियालेख से अगला गाँव गर्ब्यांग ही है जो करीब छह किलोमीटर दूर होगा। जब आप छियालेख से निकलते हैं तो एक खूब चौड़ा रास्ता मिलता है जसके दाएं साइड एक बड़ी और खूब चौड़ी खुली हुई वैली दिखाई देने लगती है। पहाड़ों के बीच इतनी खुली और चौड़ी घाटी आपको शायद ही कहीं और देखने को मिले , इसलिए यहां ज्यादा से ज्यादा समय बिताइए और खूब फोटो खींचिए ! क्या पता : कल हो न हो !! यहां आपको बुग्याल , ट्री लाइन , नदी का परफेक्ट पैकेज मिलेगा और मुझे लगता है कुदरत का यही पैकेज देखने के लिए तो हम अपने पैरों , अपने शरीर को इतना कष्ट देते हैं !! सामने गर्ब्यांग गाँव में बने घरों की नीली -नीली छतें नजर आने लगी हैं लेकिन गाँव अभी दूर है। हम जिस रास्ते से आये हैं वो पहाड़ों के ऊपर से आ रहा है जबकि नीचे भी एक पगडण्डी आती हुई दिख रही है , ये शायद स्थानीय लोगों के लिए रही होगी जो एकदम नदी के किनारे किनारे आ रही है।
जोशी जी और हरजिंदर आगे निकल गए थे और मैं अकेला पीछे चला आ रहा था। पता नहीं ये दोनों हाथ में डंडा लेकर क्या कर रहे थे ?
गर्दन नीचे की हुई थी और एक गड्ढे में डंडा मार रहे थे , मुझे लगा कोई सांप होगा और मैं तेजी से उनकी तरफ दौड़ने लगा। इसलिए नहीं कि मैं सांप को पकड़ना चाहता था बल्कि सांप को दूर से देखने के लिए कि इतनी ऊंचाई पर सांप कैसे ? कहाँ से आ गया ? लेकिन ... खोदा पहाड़ और निकली कैप ! नहीं निकली !! सांप नहीं था !! वहां हवा इतनी तेज चल रही थी कि हरजिंदर की कैप सिर पर से उड़ गई और एक गहरे गड्ढे में जा गिरी थी , उसी को निकालने की कार्यवाही चल रही थी ये सब। आखिर टोपी नहीं मिली। ..
अब हो सकता है कि कुछ सदियों बाद जब वहां कभी खुदाई हो तो भविष्य के इतिहासकार बताएंगे कि यहां सैंकड़ों साल पहले भी इंसान आया करते थे और ये टोपी इस बात का सबूत है !! हो सकता है कोई "जागरूक पत्रकार " उस गड्ढे में खुद उतरकर लाइव टेलीकास्ट दिखाए -ये देखिये ! इस तरह ये कैप किसी के सिर पर से उड़कर आई होगी और आकर यहां इस गड्ढे में फंस गई होगी !! लेकिन सवाल उठता है कि ये टोपी इसी गड्ढे में क्यों गिरी ? कैसे गिरी ? कहीं और भी तो गिर सकती थी ? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस टोपी में कोई राज छुपा हो या इसमें कोई खजाना छुपकर लाया गया हो , उस जमाने में। बने रहिये हमारे साथ और देखते रहिये -खाली पीली बकवास न्यूज़ चैनल !!
बकवास चैनल को अपना काम करने दीजिये हम गर्ब्यांग गाँव पहुँच चुके हैं। गर्ब्यांग गाँव 3400 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक ऐतिहासिक गाँव है जो आज गुंजी की तरह धीरे धीरे धंस रहा है। कुछ इस कारण से और कुछ अन्य वजहों से लगभग 90 % घर बंद पड़े हैं। आपको मुश्किल से पूरे गाँव में 10 -20 लोग ही मिलेंगे और उनमें भी ज्यादातर बुजुर्ग या महिलाएं और बच्चे ही होंगे। हालाँकि मौसम "कीड़ा जड़ी " का भी था इसलिए भी कुछ लोग बाहर गए होंगे। एक खूबसूरत बर्बादी की कगार पर है।
गाँव में घुसते ही हमें दो रास्ते दिखे -एक नीचे की तरफ जा रहा था और एक ऊपर। जोशी जी नीचे वाले रास्ते से चले गए और मैं और हरजिंदर ऊपर वाले से। ऊपर जाने का प्रयोजन ये था कि हम गाँव की फोटो ले सकते थे लेकिन थोड़ा आगे जाकर न आगे का रास्ता मिला न नीचे उतरने का , ऐसे में दो तीन बुजुर्ग भी हमें देखकर चिल्लाने लगे। हालाँकि वो रास्ता बता रहे थे लेकिन हमें तो लग रहा था जैसे डांट रहे हों - क्यों आये हो यहाँ ? लेकिन ऐसा कुछ नहीं था और हम एक बेहतरीन गाँव और उसकी खूबसूरती को अपने कैमरे में कैद कर लाये। मुझे नहीं मालुम कि मेरी अगली पीढ़ी वहां जायेगी या नहीं लेकिन मैं भाग्यशाली हूँ कि ऐसी जगहों को देखने और समझने का भगवान ने मुझे अवसर प्रदान किया। गर्ब्यांग के निवासी अपने नाम में "गर्ब्याल " जोड़ते हैं। जैसे करण सिंह गर्ब्याल !! नीचे उतर के आये तो जोशी जी भी मिल गए और चाय की एकमात्र दुकान भी। जिस दुकान में चाय पी थी उसमें सिर्फ तीन लोग थे - एक 92 साल के बुजुर्ग , उनकी बहु और नाती। उन्होंने ही पहली बार कीड़ा जड़ी हाथ में लेकर देखने का मौका दिया , एक पीस पांच सौ रूपये का है , लेकिन मुझे क्या करना !!
शाम के चार बज गए हैं लेकिन छियालेख से कोई गाडी न इधर आ न उधर गई। मतलब अभी तक कोठारी जी वहीँ हैं। गाड़ियों के आने -जाने का रास्ता गर्ब्यांग गाँव से नीचे की तरफ है , नीचे ही ITPB के कोई जवान एंट्री भी करते हैं। यहीं थोड़ा सा ऊपर ITPB की पोस्ट भी है ऊपर की तरफ और नीचे की तरफ SSB की पोस्ट भी है नीचे की तरफ। हमें नीचे ही आना था गुंजी जाने के लिए। वहां पहुंचे तो पता चला कि अभी तक कोठारी जी गुंजी की तरफ नहीं गए हैं। वहां हम सबकी एंट्री हुई और ITBP के जो जवान उस वक्त वहां ड्यूटी पर थे , उनसे बात करने लगे। आसपास गुंजी और छियालेख जाने वाले स्थानीय लोगों की अच्छी खासी संख्या मौजूद थी जो अपना सामान ले जा रहे थे। लग नहीं रहा था कि कोई गाड़ी वाला इतने लोगों को ले भी जाएगा और हुआ भी यही। एक गाडी गुंजी की तरफ से आई और छियालेख की तरफ निकल गई। करीब पांच बजे थे जब कोठारी जी जिप्सी में बैठकर हमारी ओर आते दिखाई दिए , मतलब उनका इंतज़ार सफल हुआ। कोठारी जी ने हमारे लिए भी ड्राइवर से "रिक्वेस्ट " की थी लेकिन न इतनी जगह हो पाई और न शायद गाडी में इतना दम था। आखिर कोठारी जी और जोशी जी जिप्सी में बैठकर निकल गए , हाँ ! ये अच्छा हुआ कि मेरा और हरजिंदर का बैग साथ ले गए।
अब हमारे कंधों पर कोई वजन नहीं था तो चलने की स्पीड भी बढ़िया हो गई थी और एक तरह से हम दौड़े चले जा रहे थे। बराबर में काली नदी साथ निभाते हुए बह रही थी। रास्ता लगभग समतल सा है न कहीं ज्यादा उतराई न कहीं बहुत चढ़ाई। आसान रास्ता है लेकिन गर्ब्यांग से गुंजी 10 किलोमीटर है तो समय लगना निश्चित है। गर्ब्यांग से लगभग एक किलोमीटर आगे निकलकर काली नदी में नेपाल से आकर एक धार मिलती है जिसका वेग काली नदी से भी तेज था। जहां इन दोनों का संगम होता है वहीँ नेपाल की दिशा में एक प्यारा छोटा सा मंदिर बना है। नेपाल की तरफ से आने वाल उस छोटी सी नदी का नाम याद नहीं आ रहा अब। रास्ते में कुछ खच्चर वाले भी मिले लेकिन उन्हें आज गुंजी नहीं जाना , बीच में कोई एक ढाबा आया और वो वहीँ रुक गए। शाम के साढ़े छह के आसपास का समय रहा होगा जब आसमान में बादल दिखने लगे।
बादलों को देखकर मेरी घिग्घी बंध गई और उमेश पंत जी की किताब के वो दृश्य आँखों के सामने आने लगे जब वो बारिश में फंस गए थे। अगर बारिश आ गई तो हमारे पास इस वक्त न कपड़े थे , न खाने को कुछ और न टोर्च। सारा सामान पहले ही जिप्सी में जा चुका था। इस डर से चलने की स्पीड और भी ज्यादा बढ़ गई और अब हम दोनों एक तरह से दौड़ लगा रहे थे हालांकि इस बीच फौजियों की एक गाडी भी निकली गुंजी की तरफ लेकिन उन्होंने लिफ्ट नहीं दी। गाड़ी न मिलने की उदासी पहली बार महसूस हुई। काली नदी के इस पार पहाड़ दिख रहे थे जिनके नीचे बने रास्तों पर हम दौड़ लगा रहे थे तो दूसरी ओर लद्दाख के जैसे पहाड़ नजर आ रहे थे , सूखे पहाड़ , मिटटी के पहाड़ जिन पर अजीबोगरीब रचनाएं , अजीबोगरीब प्राकृतिक आकृतियां बन गई थीं। अँधेरा नहीं हुआ था लेकिन होने ही वाला था और ऐसे में फोटो लेकर अपने आपको शांत करना और डर पर काबू रखने का यही एकमात्र उपाय नजर आ रहा था। आखिर में करीब साढ़े सात बजे हम गुंजी गाँव के पुल के इस पार थे। हमने अँधेरे में एक दुकान पर पूछा -गुंजी कैसे जाना है ? या तो आगे से चले जाओ या पुल से , पुल से जाओगे तो शार्ट पड़ेगा। कहाँ है पुल ? चलो आओ मैं लेकर चलता हूँ। ये उत्तराखंड पुलिस के जवान थे जिन्होंने हमें गुंजी थाने तक छोड़ दिया। मुश्किल अब भी थी कि कोठारी जी और जोशी जी को कैसे ढूंढें ? रात का अँधेरा , पहली बार इस गाँव में थे। दुकानों में जा -जाकर पूछने लगे -कोई दो बुजुर्ग आते हुए देखे आपने ? नहीं !! दो बुजुर्ग यात्री आते हुए देखे आपने ? गाडी से आये हाँ ? नहीं !! ओह ! ऐसे ही पूछताछ कर रहे थे कि एक लड़का मिला - हाँ देखे हैं !! आप आदि जी हैं ? नहीं भाई मैं " योगी जी " हूँ !! हाँ , हाँ ! वो ही ! वो दोनों KMVN में रुके हैं , आइये आपको लेकर चलता हूँ !! धन्यवाद भाई , हम चारों फिर से मिल गए हैं !
अब बस चाय पिएंगे और खाना खाएंगे , बाकी बातें कल होंगी !!