गतांक से आगे
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सिद्धू दिल से इतना बुरा भी नहीं था। वो बस अपने हालात और अपनी चादर को देखते हुए और अपनी हद में रहते हुए चन्दरु को प्यार करता था , उसे चाहता था। वो समझता था , और इस बात पर खुश भी होता था और इसका इज़हार भी करता था कि उसने चन्दरु की परवरिश एक बेटे की तरह की है। कौन किसी यतीम बच्चे को इस तरह पालता है ? कौन इस तरह पालपोस कर बड़ा करता है ? कौन इस तरह उसे काम पर लगाता है ? जब तक चन्दरु का लड़कपन था , सिद्धू उससे घर का काम लेता था लेकिन जब वो लड़कपन की हदें पार कर गया तो सिद्धू ने उसके लिए नया धंधा शुरू किया। हलवाई की दुकान पर उसके अपने बेटे बैठते थे इसलिए उसने चन्दरु के लिए चाँट बेचने का धंधा तय किया। हौले हौले उसने चन्दरु को चांट बनाने का फ़न सिखा दिया। जलजीरा कांजी बनाने का फ़न। गोल गप्पे और दही बड़ा बनाने के तरीके। चटखारा पैदा करने वाले तीखे मसाले। करकरी पापड़ियां और चने का लज़ीज़ मिर्चीला सालन। भठूरे बनाने और तलने के अंदाज़। फिर समोसे और आलू की टिकियाँ भरने का काम। फिर चटनियाँ। लहसुन की चटनी। लाल मिर्च की चटनी। हरे पुदीने की चटनी। कांजी के बड़े की चाँट। मीठी चटनी के पकोड़ों की चाँट। आलू की चाँट। आलू और आलू पापड़ी की चाँट। हरी मूंग के गोल गप्पे। कांजी के गोलगप्पे। हरे मसाले के गोलगप्पे। फिर सभ्य तरीके से चाँट परोसने का तरीका।
जितने बरसों में चन्दरु ने ये काम सीखा उतने बरसों में एक लड़का एम.ए पास कर लेता है। फिर भी बेकार रहता है मगर सिद्धू का घर बेकार ग्रेज़ुएटों को उगलने वाली यूनिवर्सिटी नहीं था। उसने जब देखा कि चन्दरु अपने काम में पूरा परफेक्ट हो गया है और जवान हो गया है तो उसने चार पहियों वाली एक हाथ गाड़ी खरीदी। चाँट के थाल सजाये और चन्दरु को चाँट बेचने लगा दिया। डेढ़ रुपया रोज़ पर। जहां चन्दरु चाँट बेचने लगा वहां उसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं था। सिद्धू ने बहुत सोच समझ कर ये जगह चुनी थी। खार लिंकिंग रोड पर और पाली हिल के चौराहे के करीब टेलीफोन एक्सचेंज के सामने उसने चाँट की पहियों वाली साइकिल गाडी को खड़ा किया। ये जगह बहुत मुफीद थी। एक तरफ यूनियन बैंक था , दूसरी तरफ टेलीफोन एक्सचेंज। तीसरी तरफ ईरानी की दुकान और चौथी तरफ घोड़ बन्दर रोड का नाला। बीच वक्त खाते पीते खुश लिबास नौजवान लड़के लड़कियों का हुजूम बहता था। चन्दरु की चांट हमेशा ताज़ा , उम्दा और करारी होती थी। वो बोल नहीं सकता था मगर उसकी मुस्कराहट बड़ी दिलकश होती थी। उस का सौदा हमेशा खरा। हाथ साफ़ और तोल पूरा। ग्राहक को और क्या चाहिए ? चन्दरु की चांट उस कॉलोनी में चारों तरफ मशहूर होती गयी। और शाम के वक्त उस के ठेले के चारों तरफ लड़के लड़कियों का हुजूम रहने लगा।
चन्दरु को सिद्धू ने डेढ़ रुपया
रोज़ पर लगाया था , अब उसने तीन रुपया रोज़ देना शुरू कर दिया। चन्दरु खुद डेढ़
रुपया रोज़ में खुश था अब तीन रुपया पाकर भी खुश था क्यूंकि खुश रहना उसकी आदत थी । उसे काम करना पसंद था और वो अपना काम जानता था और अपने काम से उसे लगन थी । वो अपने
ग्राहकों को खुश करना जानता था और उन्हें खुश करने में अपनी ख़ुशी महसूस करता था।
दिन भर चाँट तैयार करने में मसरूफ रहता। शाम के चार बजे वो चाँटगाड़ी लेकर नाके
पर जाता। चार से आठ बजे तक हाथ रोके बगैर , आराम का सांस लिए बगैर , वो
जल्दी जल्दी काम करता। आठ बजे तक उसका ठेला खाली हो जाता और वो उसे लेकर अपने मालिक
के घर वापस आ जाता। खाना खा के सिनेमा चला जाता। बारह बजे रात को
सिनेमा से लौटकर अपनी चटाई बिछाकर सीढ़ियों के नीचे सो जाता। और सुबह फिर
अपने काम पर। यही उसकी जिंदगी थी। यही उसकी दुनिया थी। वो बेफिक्र और जिंदादिल
था। न माँ न बाप , न भाई , न बहन। न बीवी , न बच्चे। दूसरे लोगों के
बहुत से खाने होते हैं , उसका सिर्फ एक ही खाना था। दूसरे लोग बहुत से टुकड़ों में बटे
होते हैं और उन टुकड़ों को जोड़कर ही उनकी शख्सियत देखी जा सकती है। मगर चन्दरु एक ही लकड़ी का था। और लकड़ी के एक ही टुकड़े से बना था। जैसा अंदर से था
वैसा ही बाहर से नज़र आता था। वो अपनी जात में बेजोड़ और मुकम्मल था।
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