पावन नगरी चित्रकूट के दर्शन कर , रात को ही ट्रेन पकड़ी और लखनऊ के लिए निकल गए। लखनऊ पहुँचते पहुँचते सुबह हो जानी है। दिन की शरीर जलाती गर्मी से रात में कुछ राहत मिली है और ट्रेन के चलने से थोड़ी ठण्डी ठण्डी हवा भी आ रही है। इस बीच कहीं से आँखों में नींद चली आई और दो घंटे की नींद भी अगर मिल जाए तो थकान दूर हो जाती है।
लखनऊ का चारबाग़ स्टेशन , अब कुछ अच्छा सा लगता है। लखनऊ में दो स्टेशन हैं , एक चारबाग़ और दूसरा लखनऊ जंक्शन। दोनों ही आसपास हैं तो ज्यादा भागदौड़ नहीं रहती। पहली बार लखनऊ को 1997 में देखा था , लेकिन तब ट्रेन से नहीं बस से आये थे झाँसी से। ये उन दिनों की बात है .... जब हम युवा हुआ करते थे 👦 पॉलिटेक्निक का दूसरा साल था और जनवरी का महीना था। हम अपने कुछ और साथियों के साथ लखनऊ के GPL ( Government Polytechnic Lucknow ) पहुंचे थे , 800 मीटर की रेस में State level खेलने के लिए। केवल एक ही इवेंट नहीं था , और भी बहुत सारे थे जिनमें से मुझे केवल दो में ही पार्टिसिपेट करना था। एक 800 Meter Race और दूसरा Debate Competition। बाकी कुछ मित्र भाला फेंक , 400 मीटर रेस , 100 मीटर रेस में पहुंचे हुए थे और कुछ खाली- पीली हम लोगों का उत्साह बढ़ाने गए , या ये कहें कि रोटियां तोड़ने और लखनऊ घूमने गए थे मुफ्त में😆। किराया लगना नहीं था किसी का भी , झाँसी से रात में बहुत सारी टूरिस्ट बसें निकलती थीं लखनऊ , जयपुर , ग्वालियर , आगरा , खजुराहो के लिए , तो उनमें ही हम भी बैठ जाते थे । लेकिन एक दिक्कत थी कि हमें केबिन में बैठना पड़ता था !! मुफ्त में केबिन में बैठना क्या बुरा है ? और हाँ , नाश्ता भी बस ड्राइवर -कंडक्टर ही कराते थे। इस चक्कर में हॉस्टल का शायद ही कोई छात्र होगा जिसने जयपुर , आगरा , खजुराहो न घूमा हो , मुफ्त में ही !! ऐसा कैसे ?? सवाल तो आ रहा होगा आपके मन में ? जरुरी भी है !! तो ऐसा इसलिए कि ये सारी बस हमारे हॉस्टल के सामने से निकलती थीं और अगर ये किसी स्टूडेंट को बिठाने से मना करते थे तो इनकी बस के कांच तोड़ देते थे हम सब हॉस्टल वाले। बेहतर यही था कि स्टूडेंट को केबिन में जगह दे दी जाए.... ... लेकिन अब 20 साल बाद वो सब बदल गया है।
तो जी लो आ गए लखनऊ । 16 अप्रैल का दिन है और सूरज अपने पूरे जोश में है लेकिन दोपहर बाद ही घूमने निकलना है , कुछ आराम तो हो ही जाएगा धूप से। दो बजे के आसपास फ्री हो गया तो पहली मंजिल इमामबाड़ा थी। चिलचिलाती धूप में E- रिक्शा में बैठा , उन पुराने दिनों को याद करता हुआ लगभग खाली सी रोड पर अपने आपको नवाबों के शहर में ले आया था। E- रिक्शा को हमारे अलीगढ -खुर्जा -बुलंदशहर में टिर्री बोलते हैं !! है न अजीब सा और रोचक सा नाम ! E-Rickshaw is called as Tirri in our Aligarh -Khurja -Bulandshahar !! इमामबाड़ा पहुँच रहे हैं तो आपको एक और कहानी सुनाता जाता हूँ। झाँसी के गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक में पढ़ाई करते हुए सेकंड ईयर में दिसंबर में कॉलेज लेवल पर स्पोर्ट्स मीट में हिस्सा लिया था और स्पोर्ट्स मीट में ही कुछ और भी कम्पटीशन हुए थे जिनमें एक्सटेम्पोर , डिबेट में मैं भी शामिल हुआ था और एक्सटेम्पोर में मुझे विषय मिला था " अगर आपको 20 लाख रूपये मिल जाएँ तो क्या करोगे "? जिन्हें मालूम है उनको धन्यवाद लेकिन जिन्हें नहीं मालूम उनके लिए बता दूँ कि एक्सटेम्पोर प्रतियोगिता में हमसे एक बाउल में से पर्ची उठवाई गई थी और पर्ची पर जो टॉपिक लिखा था उस पर तुरंत ही 2 मिनट की स्पीच देनी थी ! मैंने पता नहीं क्या क्या बना दिया उन 20 लाख में , मैंने कहा - मैं अस्पताल बनवाऊंगा , बच्चों के लिए स्कूल बनवाऊंगा ..... इतने में भीड़ में से आवाज़ आई ! अबे , तुझे 20 लाख मिले हैं , 20 करोड़ नहीं मिले !! परिणाम पता था कि हार जाऊँगा --- हार ही गया लेकिन इससे एक कॉन्फिडेंस आ गया बोलने का। और फिर जब डिबेट कम्पटीशन हुआ दो -तीन दिन बाद ... तो विपक्ष में हम विजेता थे ! विषय क्या था ? थोड़ा सा याद है - " औधोगीकरण का फायदा या नुकसान " । उस वक्त शायद नरसिम्हाराव की सरकार थी और डॉ मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। पक्ष में मित्र प्रवेश तिवारी विजयी हुआ था और विपक्ष में हम। दोनों ही मैकेनिकल इंजीनियरिंग के छात्र थे। अब अगला पड़ाव जोनल था और जोनल के लिए कानपुर जाना था। जोनल प्रतियोगिता HBTI कानपुर में थी ! वहां प्रवेश तिवारी ने मनमोहन सिंह को मनमोहन देसाई बोल दिया और मामला गड़बड़ हो गया। तब पक्ष में कोई भावना तिवारी विजयी हुई थी और विपक्ष में योगी आदित्यनाथ नहीं बल्कि योगी सारस्वत। हालाँकि प्रवेश बहुत अच्छा वक्ता था और उसे बाद में UP के तब के CM कल्याण सिंह जी ने सम्मानित किया था लेकिन उस वक्त वो पता नहीं कैसे फिसल गया। और इस तरह हम राज्य स्तर की डिबेट में पहुँच गए। लेकिन हाल फिलहाल हम इमामबाड़ा पहुँच गए हैं !
अब टिकट लगने लगा है और हरियाली भी पहले के मुकाबले कम हो गई है । लेकिन बदलाव सिर्फ इतना नहीं है ! अब बिल्कुल कमर्शियल कर दिया है इस जगह को। खैर , संभव है खर्च हो रहा है तो पैसा चाहिए और इसी के लिए टिकट तय किया गया हो ! लेकिन टिकट , विंडो पर क्यों नहीं मिलता ? जहां आप इमामबाड़ा में एंटर करते हैं वहीँ कुछ खाली - नल्ले से दिखने वाले चार -पांच लोग टिकट थमा देते हैं !! पता नहीं टिकट वास्तव में लगता है ? या इन्होने कोई अपनी ही दुकान चला रखी है ?
लखनऊ , नवाबों और कबाबों का शहर ! मीनारों और गुम्बदों का शहर !! तहज़ीब और अदा का शहर !! स्वत्रंत्रता आंदोलन की चिंगारियों से रोशन होता हुआ आज भारत के सबसे बड़े राज्य की राजधानी और बिजलियों की चमक से जगमग करती विधानसभा। कुछ तो है इस शहर में !! भले यहां के मोनुमेंट्स मुस्लिमों ने बनवाये हैं लेकिन नफ़ासत ऐसी कि दिल प्रसन्न हो जाए। आज बस इमामबाड़ा की बात करते हैं : दो इमामबाड़े हैं इधर लखनऊ में ! एक बड़ा इमामबाड़ा दूसरा छोटा इमामबाड़ा ! बड़े की बात पहले कर लेते हैं क्योंकि पहले तो यही देखा है न ? ये वाला इमामबाड़ा 1784 ईस्वी में अवध के चौथे नवाब असफ़उद्दौला ने बनवाना शुरू किया था और 1791 में जाकर पूरा हुआ । ऐसा कहते हैं कि इसे बनाने में उस वक्त करीब 10 लाख रूपये खर्च हुए थे ! ठीक है ? लेकिन ये असल में एक एक्सीडेंटल मीनार है , मतलब बिना किसी जरुरत के बनवाई हुई मीनार। हुआ यूँ था कि एक बार बहुत ज्यादा अकाल पड़ गया और लोग भूखे मरने लगे तब नवाब साहब ने एक तरीका निकाला जिससे लोगों को काम भी मिल जाए और उन्हें ऐसा भी महसूस न हो कि उन्हें खैरात मिल रही है। इसके लिए नवाब साहब ने इस मीनार का निर्माण शुरू किया। एक मजेदार बात बताता हूँ - दिन में मजदूर जितना काम करते , रात में नवाब साहब के अधिकारी लोग आकर उसे गिरा जाते। न न गलत नियत से नहीं बल्कि इसलिए कि मजदूरों को और ज्यादा दिन लग जाएँ इसे पूरा करने में और उनके घर में चूल्हा जलता रहे !! वाह ! नवाब साहब !! बड़ा वाला सलाम है आपको !!
बड़ा इमामबाड़ा , लखनऊ की सबसे बढ़िया मोनुमेंट्स में मानी जाती है। इसमें अस्फी मस्जिद और भूल भुलैया के अलावा एक बावली भी है। ऐसा कहते हैं कि यहां भूल भुलैया में आने के 1024 दरवाजे हैं लेकिन जाने का केवल एक है !! मुझे तो नहीं दिखाई दिए 1024 दरवाज़े !! वैसे कभी कभी हांकने वाले कुछ ज्यादा ही हाँक देते हैं !! इस इमामबाड़े को हाफिज किफायतुल्ला ने डिज़ाइन किया था जो उस वक्त के बड़े आर्किटेक्ट माने जाते थे। इस 50 मीटर लंबे और 16 मीटर चौड़े हॉल में एक भी बीम नहीं लगाई गई है जबकि इसकी ऊंचाई भी 15 मीटर है। ये इस तरह का दुनिया का सबसे बड़ा हॉल माना जाता है जिसमें इतनी बड़ी मीनार में एक भी बीम नहीं लगाई गई ! इसे सेंट्रल हॉल कहते हैं और यहीं नवाब आसफुद्दौला का मकबरा है।
आज और नहीं लिखता , फिर पोस्ट बड़ी हो जायेगी:
यह लेख मेरे जीवन की समस्याओं का समाधान करने में मेरी मदद करेगा। आपकी सलाह कारगर और प्रासंगिक है। मेरा यह लेख भी पढ़ें लखनऊ में घूमने की जगह
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