बहुत दिनों से सोच रहा था कि दरियागंज , दिल्ली जाऊँगा। जो पुरानी किताबें खरीदकर लाया था वो अब पढ़ चुका था। नई किताबें लाने के लिए इतवार का इंतज़ार कर रहा था। लेकिन इधर कॉलेज में बच्चों के पेपर की वज़ह से शनिवार -इतवार भी नही मिल पा रहे थे दिल्ली जाने के लिए। दरियागंज में रविवार को बाजार लगता है जिसमें आपको हिंदी -अंग्रेजी की नई पुरानी किताबें कम पैसों में मिल जाती हैं।
आखिर एक महीने के बाद वो सुनहरा रविवार आ ही गया जब मुझे फुर्सत मिली। जून की चिलचिलाती गर्मी में दोपहर के तीन बजे मुंह पर गमछा बांधकर निकला और आधे घंटे में ही गाज़ियाबाद स्टेशन पहुँच गया। टिकेट खिड़की की तरफ बढ़ ही रहा था कि सामने से एक महाशय ने रोक लिया। कहने लगे -वत्स ! हमें इन्द्रप्रस्थ जाना है। कैसे जाएँ ? पहले तो मैंने भाईसाब का हुलिया देखा। नाटक मंडली वाले कपड़े पहने हुए थे और सिर पर मुकुट धारण किया हुआ था। मैंने कहा - महोदय ! मैं वत्स नही हूँ ! वत्स तो हमारे मित्र आलोक हैं जिनका पूरा नाम आलोक वत्स है। और ये इंद्रप्रस्थ कहाँ है ? शायद नई दिल्ली में है। अरे वत्स ! वत्स नही पुत्र ! ये नई दिल्ली क्या है ? मैं समझ गया भाईसाब ने लगाई हुई है। इतनी गर्मी में भी !! राम राम !!
मैंने कहा चलो आओ मेरे साथ। मैं ले चलता हूँ। टिकट के पैसे दो -10 रुपया। बोले - मुद्रा तो हम नही रखते पुत्र। मुद्रा नही रखते ? तब कैसे जाओगे ? अरे यार छोडो, तुम्हारे चक्कर में मेरी भी ट्रेन निकल जायेगी। मैं ही ले लेता हूँ तुम्हारी भी टिकट । 10 रूपये की ही तो बात है ! प्लेटफार्म पर पहुंचा तो भीड़ लग गई। आधे मुझे देख रहे थे आधे उन्हें। मुझे इसलिए कि जोकर को कहाँ से लाया हूँ और कहाँ ले जा रहा हूँ ? उन्हें इसलिए कि उन्होंने इतना लंबा तगड़ा जोकर पहले कभी नही देखा था। सेल्फ़ी लेने की होड़ मच गयी लोगों में। उसे लोग छू छू कर पक्का कर रहे थे कि आदमी ही है ? ट्रेन आई तो जैसे तैसे खींच कर पहाड़ जैसे आदमी को अंदर बिठाया। जानबूझकर उनसे थोड़ा हटकर दूसरी सीट पर बैठा जिससे मैं भी उस के साथ लोगों के लिए मजाक न बन जाऊं। लेकिन कुछ ही पलों बाद वो फिर उठकर मेरी ही सीट पर आ बैठा। मैंने पूछा -वहां क्या परेशानी है ? लोग परेशान कर रहे हैं मुझे। ओह ! तो इतना बड़ा शरीर ले के चल रहे हो - जमा दो एकाध में। सब शांत बैठ जाएंगे। नही मैं जमा नही सकता। क्योंकि जब मैं मारता हूँ तो आदमी उठता नही उठ जाता है ! वाह ! गुरु वैसे तो तुम्हें ये नही पता कि नई दिल्ली कहाँ है और सनी देओल का डायलॉग याद है। अरे नही पुत्र ! मेरा कहने का अर्थ है कि मैं किसी आदमी के प्राण तब ही लेता हूँ जब उसका निर्धारित समय हो जाता है !! तुम यमराज हो ? हाँ , पुत्र ! मैं यमराज ही तो हूँ ! हाहाहाहा ! लोग भयंकर तरीके से हसने लगे। एक बुढऊ आये -महाराज मेरा समय कब निर्धारित है ? देख के बताओ न महारज ? आज अभी हमारे पास बही खाता नही है , फिर कभी बताएंगे।
साहिबाबाद पहुँचते पहुँचते ये हालत हो गयी कि ऐसा लगने लगा पूरी गाडी की सवारियां उसी डिब्बे में आ गयी हों ! सवाल उछलने लगे - महाराज मेरी खूसट बीवी का समय कब का है ? थोड़ा जल्दी ऊपर बुला लो !! यमराज जी - मेरी सास को कब लेने आ रहे हो , बुढ़िया बहुत तंग करती है ! इतना हल्ला गुल्ला सुनकर पुलिस वाला आया और चिल्लाया - इतनी भीड़ क्यों लगा रखी है ? 2 मिनट के स्टॉपेज में कौन किसकी बात सुनता है ? लेकिन ये क्या -पुलिस वाला तो शाहदरा तक आ गया। नीचे की तरफ से निकल कर बोला - महाराज ! मेरी जिंदगी बहुत रिस्की है …………………….। इतने में कोई बोला -रिस्की है तो विस्की पी और मजे ले। सवाल रह गया !
आखिर दिल्ली जंक्शन पहुँच गए। यहां से अब बस लेकर दरियागंज जाना है।
लेकिन इन भाईसाब का क्या करूँ ? मोबाइल में गूगल मैप देखा कि इंद्रप्रस्थ
कहाँ है ? फिर दिल्ली की कौन से नंबर की बस जाती है , ये भी पता कर लिया।
मैंने उन्हें समझा भी दिया और बस में बिठा दिया। लेकिन जैसे ही मैं मुडा
वो मेरे पीछे पीछे चले आये। हमें इंद्रप्रस्थ छोड़कर आओ पुत्र।
अभी दरियागंज नही पहुंचे हैं चलते रहिये मेरे .......... न न मि. यमराज के साथ :
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