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बुधवार, 1 अप्रैल 2015

हल्दीघाटी

प्रस्तुति  : योगी सारस्वत
यात्रा दिनांक : 23 जनवरी 2015 

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नाथद्वारा पहुँचते पहुँचते एक बज गया था। श्रीनाथ जी मंदिर पहुंचे तो वो मंदिर बंद था , भगवान विश्राम कर रहे थे। अब मंदिर चार बजे पुनः खुलेगा। तब तक क्या करें ? लोगों से हल्दी घाटी के बारे में पूछा तो कुछ ने बताया कि दो घंटे लगेंगे जाने -आने में , कुछ ने कहा रास्ता बहुत खराब है , तीन घंटे तो कम से कम लगेगा। लेकिन जब एक ऑटो वाले को पूछा कि कितना पैसा लगेगा और कितना समय लगेगा ? उसने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया , तीन सौ रूपया लगेगा और आपको पूरा घुमाकर पांच बजे तक आपको वापस यहीं मंदिर पर उतार दूंगा। भाव ताव में 260 रूपये में बात बन गयी। और बिना कोई देरी करे हमने अपना रास्ता तय करना शुरू कर दिया। सामान हमारे पास बिल्कुल नही था। अपना सारा सामन हमने उदयपुर के अपने होटल के रूम में ही रख छोड़ा था। कौन इतना सामान साथ में लेकर चले , और फिर विचार ये भी वापस लौटकर उदयपुर ही आना है। तो आइये अब श्रीनाथ जी मंदिर से लगभग 16 किलोमीटर दूर हल्दीघाटी चलते हैं।

भारत के पश्चिम में राजस्थान की अरावली पहाड़ियों में पड़ने वाली छोटी सी जगह हल्दीघाटी राजस्थान के राजसमन्द और पाली जिलों को जोड़ती है। हल्दीघाटी का ये नाम यहां पाई जाने वाली हल्दी के रंग की मिटटी के कारण , हल्दी घाटी पड़ा है। आप यहां की चट्टानें देखेंगे तो एक बारी आपको लगेगा कि ये बिलकुल उसी रंग की हैं जिस रंग की हल्दी होती है। इसी हल्दीघाटी के मैदानों में सन 1576 में मेवाड़ के राणा प्रताप और मुग़ल शासक अकबर के सेनापति मान सिंह के बाच भयंकर युद्ध हुआ था।

उदयपुर से हल्दीघाटी तक जाने के दो रास्ते हैं। एक तो नाथद्वारा से करीब छह किलोमीटर पहले उदों से निकलता है लेकिन ये रास्ता बहुत खराब बताते हैं ! खराब मतलब दो तरीके से , सड़क भी खराब है और देर होने पर लूटपाट भी संभव है । और दूसरा रास्ता है नाथद्वारा से। बस स्टैंड पर ही गाडी वालों से बात करिये , वो सही रहेगा। हालाँकि सड़क इस रास्ते पर भी बहुत बढ़िया नही है किन्तु हाईवे और ग्रामीण सड़क में कुछ तो अंतर होता ही है। ये दोनों रास्ते खमनोर पर जाकर मिल जाते हैं। हमने यही रास्ता चुना , नाथद्वारा वाला। ग्रामीण राजस्थान देखते हुए आगे बढ़ते गए ! इस रास्ते पर खमनोर से थोड़ा आगे निकालकर आपको दोनों तरफ हल्दी जैसे रंग की पहाड़ियां दिखाई देंगी और उन्हें पहाड़ियों में से हल्दी जैसे रंग की मिटटी खोदते हुए दिखाई देंगे , वो शायद इस मिटटी को मसाले बनाने वाली कंपनियों को बेचते होंगे और ये मिटटी हमारे घरों में हल्दी के रूप आती है। क्या यही सच है ? जब ये "हल्दी " की पहाड़ियां खत्म होती हैं और कुछ समतल जगह आने लगती है तब " मार्केट " बदल जाता है और अब हल्दी की जगह इत्र ले लेता है। इस क्षेत्र का आसवन विधि द्वारा तैयार किया जाने वाला इत्र बहुत प्रसिद्द है और इसका सबूत वहां रास्ते के दोनों तरफ सजी हुई दुकानें बेहतर देती हैं। इसके अलावा इसी रास्ते पर एक गाँव पड़ता है मोलेला , जहां की "मड आर्ट " विश्व प्रसिद्द है। हालाँकि मैं इस गाँव तक नही जा पाया लेकिन रोड पर लगे साइन बोर्ड का फोटो जरूर ले आया।


हल्दी घाटी पहुँचने पर मेवाड़ के प्रति श्रद्धा और वीरता का एहसास होने लगता है। वहां लड़ने वाले दोनों ही वीर , प्रताप और मान सिंह भारतीय थे , हिन्दू थे लेकिन फिर भी एक के प्रति गर्व और दूसरे के प्रति नफरत पनपने लगती है। ये होना भी चाहिए - क्यूंकि एक अपनी मातृभूमि के लिए लड़ रहा था और दूसरा मुगलों के लिए अपनी वफ़ादारी सिद्ध कर रहा था। ऐसा कहते हैं कि मेवाड़ में माताएं अपने बच्चे का नाम कभी मान सिंह नही रखती। मतलब अब भी वो रंज बाकी है ? हल्दी घाटी में राजस्थान सरकार ने बहुत सुन्दर संग्रहालय बनाया हुआ है जिसे देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। संग्रहालय के बाहर आपको ऊँट वाले , अपने ऊँटों को लेकर बैठे रहते हैं और ग्राहकों का इंतज़ार करते हैं। ऊँट पर सवारी के पैसे पूछे तो बताया 50 रुपया एक आदमी का। तभी एक और विदेश जोड़ा आया , उसने पूछा तो उसे बताया 100 रुपया। बाकायदा अंग्रेजी में कहा ऊँट वाले ने -100 रुपीज़ ओनली। मैं तो नही बैठा बच्चे भी डर से नही बैठे आखिर बस एक एक फोटो ही करवा ली 10 -10 रुपये में। अंदर आप महाराणा प्रताप और मान सिंह की लड़ाई के चित्रों , ताम्बे पर उकेरी गयी कलाकृतियों से रूबरू होते जाते हैं। फिर एक हॉल में प्रवेश करते हैं जहां आपको राणा प्रताप के पुरखों की आदमकद तसवीरें , राणा प्रताप की तलवार , उनके खंजर और अन्य हथियार रखे हुए हैं तथा तलवार से बचने के लिए पहने जाना वाला कवच भी देखने के लिए रखा है। इस हॉल के अंदर से ही एक छोटा सा दरवाज़ा और भी है जो एक पुराने जमाने के जैसे छोटे से सिनेमा हॉल में खुलता है। यहाँ 15-20 मिनट की महाराणा प्रताप के जीवन को दिखाती एक लघु फिल्म दिखाते हैं। लेकिन जब ये फिल्म खत्म होती है तो एक ऑडियो चलता है -ये लड़ाई सांप्रदायिक लड़ाई नही थी , ये लड़ाई दो धर्मों की नही थी। ये लड़ाई मातृभूमि के लिए लड़ी गयी। ऐसा बताने की वास्तव में जरुरत है क्या ?

फिल्म खत्म होने के बाद वहां का एक आदमी पीछे वाले दरवाजे से सबको अपने साथ लेकर आगे चलता है। एकदम घुप्प अँधेरा। वो लाइट ऑन करता है और सामने महाराणा प्रताप के जीवन से जुडी घटनाओं को मूर्तियों के माध्यम से दिखाने वाले दृश्य मिलते हैं। ऐसे ही वो आगे चलता जाता है और नयी नयी बातें , घटनाओं का विस्तृत वर्णन करता जाता है। हिंदी में। बाहर आकर फिर आप स्वतंत्र हो जाते हैं कहीं भी घूमने के लिए।



ये वही मौलेला गाँव है जिसकी मड आर्ट दुनियाँ भर में विख्यात है
ये हल्दी जैसे रंग की पहाड़ियां
ये हल्दी जैसे रंग की पहाड़ियां
ऐसे चित्र मेवाड़ में बहुत मिलेंगे जिनमें चेतक की मृत्यु पर महाराणा प्रताप विलाप कर रहे हैं और उनका भाई शक्ति सिंह उन्हें देख रहा है !!
​ हल्दीघाटी प्रवेश द्वार













ये कांच में थी सब चीजें , फोटो बढ़िया नही आ सके
ये कांच में थी सब चीजें , फोटो बढ़िया नही आ सके
ये कांच में थी सब चीजें , फोटो बढ़िया नही आ सके

ये महाराणा प्रताप का जीवन चित्र , फोटो बढ़िया नही आ सके



महाराणा ने बहुत दिनों तक जंगल में जीवन बिताया , उसके दृश्य
और ये मैं
इस मूर्ति में महाराणा प्रताप का घोड़ा , हाथी पर बैठे मान सिंह तक पहुँच गया था लेकिन मान सिंह बच गया और  चेतक घायल हो गया
ऐसे चित्र मेवाड़ में बहुत मिलेंगे जिनमें चेतक की मृत्यु पर महाराणा प्रताप विलाप कर रहे हैं और उनका भाई शक्ति सिंह उन्हें देख रहा है !!

पन्ना धाय का दृश्य


आगे जारी है :




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