Traditions of Funeral in the World
विश्व में अंतिम संस्कार की प्रक्रियाएं
जब कोई इंसान मर जाता है तो उसकी मौत के बाद का जीवन क्या होता है ? ये
प्रश्र आज भी अबूझ बना हुआ है। किसी की मौत के बाद हर धर्म में उस व्यक्ति
का अंतिम संस्कार करने को कहा गया है। लगभग सभी धर्म और संप्रदाय में इसकी
विधि अलग- अलग है। मुख्यत: पूरी दुनिया में मौत के बाद शरीर को खत्म करने
के दो मुख्य तरीके हैं।
पहला
दफन करना दूसरा दाह संस्कार करना। इसके अलावा ममी बनाकर रखना, उबालकर कंकाल
बनाना, गुफा में रखना, जल दाग देना, पशु-पक्षियों के लिए रख छोड़ना और शवों
को खा जाने की भी परंपराएं हैं। आइए जानते हैं दुनिया के अलग-अलग धर्मों
और समुदायों में अंतिम संस्कार के लिए अपनाए जाने वाले विचित्र तरीकों के
बारे में ....
1. शव को खा जाने की परंपरा
सबसे विचित्र अंतिम संस्कार की परंपरा न्यू गिनी और ब्राजील के कुछ
क्षेत्रों में है। इसके अलावा कुछ कुपोषित राष्ट्रों और जंगली क्षेत्रों
में भी ये रिवाज है। इस रिवाज के अनुसार मृतक शरीर को खाया जाता है। इन
क्षेत्रों में शव का दूसरी तरह से खात्मा करने की बजाए उन्हें खा लिया जाता
है, क्योंकि इन लोगों को खाद्य सामग्री मुश्किल से मिलती है, हालांकि आजकल
ये अमानवीय तरीका बहुत कम क्षेत्रों में रह गया है।
2. गुफा में रखना या पानी में बहा देना :
पहले इसराइल और इराकी सभ्यता में लोग अपने मृतकों को शहर के बाहर बनाई गई
एक गुफा में रख छोड़ते थे। गुफा को बाहर से पत्थर से बंद कर दिया जाता था।
ईसा को जब सूली पर से उतारा गया तो उन्हें मृत समझकर उनका शव गुफा में रख
दिया गया था। इतिहासकार मानते हैं कि यहूदियों में सबसे पहले दफनाए जाने या
गुफा में रखे जाने की शुरुआत हुई। इंका सभ्यता के लोगों ने भी बर्फ और
पहाड़ी क्षेत्रों में समतल जगह की कमी के चलते गुफाओं और खोह में अपने
मृतकों का अंतिम स्थल बनाया। दक्षिण अमेरिका की कई सभ्यताओं में अधिक
जलराशि व नदियों के प्रचुर बहाव वाले क्षेत्रों में मृतकों को जल में
प्रवाहित कर उनका अंतिम संस्कार किया जाता रहा है।
3.गला घोंटने की परंपरा :
फिजी
के दक्षिण प्रशांत द्वीप पर प्राचीन भारत की सती प्रथा से मिलती-जुलती एक
परंपरा है। यदि इस क्षेत्र के हिसाब से पारंपरिक अंतिम संस्कार किया जाए तो
मरने वाले को अकेला नहीं छोड़ा जा सकता है। उसके साथ किसी एक प्रिय
व्यक्ति को भी मरना पड़ता है और वहां इसके लिए गला घोटे जाने की परंपरा है।
मान्यता है कि ऐसा करने से मरने वाले को तकलीफ नहीं होती है।
4. पारसी अंतिम संस्कार :
पारसियों में आज भी मृतकों को न तो दफनाया जाता है और न ही जलाया जाता है।
पहले वे लोग शव को चील घर में रख देते थे ताकि उनका मृत परिजन गिद्धों व
चीलों का भोजन बन जाए। आधुनिक युग में यह संभव नहीं और गिद्धों की संख्या
भी तेजी से घट रही है। इसलिए उन्होंने नया उपाय ढूंढ लिया है। वे शव को
कब्रिस्तान में रख देते हैं। जहां पर सौर ऊर्जा की विशालकाय प्लेटें लगी
हैं, जिसके तेज से शव धीरे-धीरे जलकर भस्म हो जाता है।
5. जलाने की परंपरा
जिन क्षेत्रों में सघन वन पाए जाते हैं। उन क्षेत्रों में मौत के बाद शवों को जलाने की परंपरा है। मुख्यत: हिंदू धर्म में शवों को जलाकर पंच तत्व में विलीन करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। जबकि कई अन्य धर्मों में शवों को जलाना एक गलत कृत्य माना गया है। हिंदू मान्यता के अनुसार शव से तुरंत मोह छोड़कर उसे अग्रि के हवाले कर देना सबसे बेहतर है।
जिन क्षेत्रों में सघन वन पाए जाते हैं। उन क्षेत्रों में मौत के बाद शवों को जलाने की परंपरा है। मुख्यत: हिंदू धर्म में शवों को जलाकर पंच तत्व में विलीन करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। जबकि कई अन्य धर्मों में शवों को जलाना एक गलत कृत्य माना गया है। हिंदू मान्यता के अनुसार शव से तुरंत मोह छोड़कर उसे अग्रि के हवाले कर देना सबसे बेहतर है।
6. ताबूत को ऊंचे चट्टान पर लटकाने की परंपरा
चीनी राजवंशों में शवों को ताबूत में रखकर ऊंची चट्टानों पर लटकाने की परंपरा थी। वे मानते थे कि इस तरह से ताबूत को लटकाने से मृत व्यक्ति स्वर्ग के करीब पहुंच जाता है और उनकी आत्माएं स्वतंत्रता से चट्टानों के चारों तरफ घूम सकती हैं।
चीनी राजवंशों में शवों को ताबूत में रखकर ऊंची चट्टानों पर लटकाने की परंपरा थी। वे मानते थे कि इस तरह से ताबूत को लटकाने से मृत व्यक्ति स्वर्ग के करीब पहुंच जाता है और उनकी आत्माएं स्वतंत्रता से चट्टानों के चारों तरफ घूम सकती हैं।
7. व्रजयान बौद्ध संप्रदाय की परंपरा
पूरी दुनिया में व्रजयान बौद्ध संप्रदाय के लोग बहुत अनोखे तरीके से अंतिम
संस्कार करते हैं। इस क्रिया में पहले शव को शमशान ले जाते है। यह एक ऊंचाई
वाले इलाके में होता है। वहां पर लामा ( बौद्ध भिक्षु ) धूप बत्ती जलाकर
उस शव कि पूजा करता है। फिर एक शमशान का कर्मचारी उस शव के छोटे छोटे
टुकड़े करता है।
दूसरा कर्मचारी उन टुकड़ों को जौ के आटे के घोल में डुबोता है। फिर वो टुकड़े गिद्धों को खाने के लिए डाल दिए जाते है। जब गिद्ध सारा मांस खाकर चले जाते हैं। उसके बाद हड्डियों को इकठ्ठा करके उनका चुरा किया जाता है और उनको ही जौ के आट और याक के दूध से बने मक्खन के घोल में डुबो कर कौओ और बाज को खिला दिया जाता है।
8. ममी बनाने का परंपरा
मिस्र के गिजा परामिडों में ममी बनाकर रखे गए शवों के कारण फराओ के
साम्राज्य को दुनियाभर में आज भी एक रहस्य माना जाता है। यहां मिले शव लगभग
3500 साल पुराने माने जाते हैं। कहा जाता है कि मिस्त्र में यह सोच कर
शवों को ममी बनाकर दफना दिया जाता था, कि एक न एक दिन वे फिर जिंदा हो
जाएंगे। ऐसा सिर्फ मिस्र में ही नहीं बल्कि भारत, श्रीलंका, चीन, तिब्बत और
थाइलैंड में भी किया जाता रहा है। चीन और तिब्बत में आज भी कई हजार वर्ष
पुरानी प्राचीन ममियां मौजूद है।
9. दफनाने की परंपरा
दफनाने की परंपरा की शुरुआत भारत में वैदिक काल से हुई तब संतों को समाधि
दी जाती थी। आज भी हिंदू साधु समाज संतों का दाह संस्कार नहीं करता। उनकी
समाधि ही दी जाती है। इस्लाम बहुल देश जैसे ईरान, अरब आदि में मृतकों को
जमीन में दफनाने का तरीका इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा ईसाई धर्म में
भी मरने के बाद दफन करने का ही रिवाज़ है। गौरतलब है कि भारत में कुछ
संप्रदाय जैसे बैरागी, नाथ और गोसाईं समाज आज भी अपने लिए एक अलग समाधि
स्थल के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। मजबूरन उन्हें अपने मृतकों को अपनी-अपनी
निजी भूमि में समाधि देना पड़ती है।
सभी चित्र और जानकारियां हिंदी समाचारपत्र " दैनिक भास्कर " से साभार !!
******************************************************************
भारत में ममी
जब भी ममी की बात चलती है हमारा दिमाग स्वतः ही मिश्र यानि इजिप्ट की तरफ
घूम जाता है ! लेकिन भारत में भी ममी मिलती हैं और खूबसूरत और अचम्भे वाली
बात ये है कि इन ममियों को किसी ने भी तैयार नहीं किया है जैसा कि मिश्र
में होता रहा है !
ममी की अगर परिभाषा दी जाए तो कहा जा सकता है कि ममी किसी मृत व्यक्ति या
जानवर के शरीर को सैकड़ों वर्षों तक सुरक्षित रखने की एक कला है ! कृत्रिम
रूप से ममी , किसी विशेष केमिकल से बनाई जाती हैं जबकि प्राकृतिक ममी बहुत
ज्यादा सर्द या बहुत कम आद्रता के कारण भी बन जाती हैं ! कृत्रिम रूप से
बनाई गयी सबसे पहली ममी चिली देश की कैमरोंस घाटी की चिंचोरो ममियों
में एक बच्चे की ममी है जो लगभग 5050 BCE की है जबकि प्राकृतिक रूप से
सबसे पुरानी ममी एक मानव सिर की है जो लगभग 6000 वर्ष पुरानी है ! ये ममी
1936 में साउथ अमेरिका में प्राप्त हुई ! जानवरों की ममियां बनाने का भी
रिवाज़ पुराने समय में रहा है ! लगभग 10 लाख से भी ज्यादा जानवरों की ममियां
मिश्र में मिली हैं जिनमें से अधिकांश बिल्लियों की हैं ! इससे ये
निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मिश्र में घर घर में ममी बनाने की कला का
ज्ञान था !
तुतेनख़ामेन की ममी अब तक की सबसे प्रसिद्द ममी कही जाती है और सबसे बेहतर
भी ! अंग्रेजी का ममी शब्द मध्यकालीन लैटिन शब्द मूमिया से लिया गया है फिर
ये परिष्कृत होकर फ़ारसी शब्द मोम में जा मिला और अंत में ममी हो गया ! ममी
का पहला वैज्ञानिक परीक्षण 1901 में हुआ और पहला एक्सरे सं 1903 में किया
गया ! तब से इस दिशा में बहुत प्रगति हुई है और अब ये भी बताया जा सकता है
कि ममी की मरते समय उम्र कितनी थी और उसकी मौत कैसे हुई होगी !
यूँ ममी पूरी दुनिया में हर महाद्वीप में मिलती हैं लेकिन सबसे ज्यादा
प्रसिद्द मिश्र की हैं लेकिन हमें बात करनी है भारत में पाई गयी ममियों के
विषय में ! भारत के खूबसूरत राज्य हिमाचल प्रदेश के ग्यु गाँव में लगभग 550
वर्ष पुरानी प्राकृतिक ममी है जो 45 वर्षीय सांगा तेनज़िन नाम के एक
तिब्बती बौद्ध भिक्षु की बताई जाती है ! ग्यु गाँव हिमाचल के लाहौल स्पीति
में लगभग 10,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है जो शिमला से लगभग 350 किलोमीटर
की दूरी पर भारत -तिब्बत सीमा पर स्थित है ! ऐसा कहा जाता है कि 1975 में
आये भूकम्प से इस गाँव के आठों स्तूप तहस नहस हो गए और उनमें से एक स्तूप
से ये ममी निकल आई ! इस ममी पर कोई भी केमिकल नहीं लगाया गया है यानी ये
प्राकृतिक रूप से सुरक्षित ममी है जो शायद ज्यादा ठण्ड की वज़ह से सुरक्षित
रह पाई ! ये ममी ध्यान की मुद्रा में है ! आश्चर्य की बात ये भी है कि इस
ममी के सर पर बाल भी हैं !
इसके अलावा एक ममी गोवा में भी मिलती है ! ये ममी संत फ्राँसिस ज़ेवियर
की है ! फ्रांसिस ज़ेवियर एक मिशनरी थे ! चीन जाते समय 2 दिसम्बर 1552 को
इनकी मृत्यु हो गयी ! पहले इनके मृत शरीर को पुर्तगाल ले जाया गया और फिर
दो साल बाद फिर से गोवा भेजा गया ! कुछ लोग मानते हैं कि ये ममी वास्तव में
श्रीलंका के एक बौद्ध भिक्षु की है लेकिन उनके इस दावे को लोग गंभीरता से
नहीं लेते हैं ! संत फ्रांसिस ज़ेवियर की ममी को भी प्राकृतिक बताया जाता है
, ये ममी गोवा के बैसिलिका ऑफ़ बोम जीसस नाम के चर्च में रखी हुई है ! ये
चर्च गोवा और भारत के सबसे पुराने चर्चों में माना जाता है ! संत फ्रांसिस
ज़ेवियर की ममी को हर दस वर्ष बाद आम लोगों के देखने के लिए प्रदर्शित किया
जाता है , पिछली बार इसे सन 2004 में खोला गया था और इस बार ये नवम्बर 2014
में आम लोगों के दर्शनार्थ रखी गयी है जिसको देखने बहुत से ईसाई और अन्य
लोग आते हैं !
आइये इण्टरनेट से संकलित किये गए फोटो देखते हैं :
हिमाचल के ग्यु गाँव में मिली ममी |
संत ज़ेवियर की ममी का बॉक्स |
मिश्र में प्राप्त एक सुरक्षित ममी |
गोवा का बैसिलिका ऑफ़ बोम जीसस चर्च
|
गोवा का बैसिलिका ऑफ़ बोम जीसस चर्च
|
गोवा का बैसिलिका ऑफ़ बोम जीसस चर्च |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें