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गुरुवार, 16 जुलाई 2020

Passenger Train Journey from Jhansi to Lalitpur

झाँसी से ललितपुर पैसेंजर ट्रेन से यात्रा  

Date of Journey : 05 December 2019


इस यात्रा को मैंने आगरा कैंट से शुरू किया था और अब तक ग्वालियर- दतिया घूम चुका था। ग्वालियर लगभग पूरा देखने का मौका बन गया लेकिन फिर जाना चाहता हूँ वहां जैन मूर्तियों को फिर से देखने की बड़ी इच्छा है। और अब इस बार सिर्फ ग्वालियर में यही देखना है या फिर वो .....जो ग्वालियर के पास ही स्थित अंबाह कस्बे वाले मित्र अवनीश कुमार जैन जो जगह बताएँगे , वो देखनी हैं। ग्वालियर इतना बड़ा खुद नहीं जितनी जगहें इसमें समाहित हैं ! मैं हमेशा मानता आया हूँ -उत्तराखण्ड का हर पत्थर पवित्र है ! दिल्ली के हर पत्थर में इतिहास है !! और अब एक चीज और जोड़ूंगा - ग्वालियर के हर हिस्से में कुछ न कुछ है देखने के लिए। आपको समय कम पड़ सकता है , जगहें नहीं। ग्वालियर से श्योपुर जाने वाली छोटी लाइन की ट्रेन में यात्रा करने का बहुत मन है , देखते हैं मयंक पांडेय और शरद जैन जी या विकास बाबू कब ये अवसर दिलाते हैं :)

ग्वालियर के तिलिस्म से बाहर निकलते हुए दतिया में माँ पीताम्बरा के दर्शन करने के बाद हम बीर सिंह महल का चक्कर लगाने के पश्चात अब अगली मंजिल की तरफ अग्रसर हो चुके थे। अगली मंजिल झाँसी होगी ! न घूमने के लिए नहीं - अपने पुराने हॉस्टल को फिर से देखने के लिए उधर जाना चाहता था। दतिया से झाँसी 28 किलोमीटर दूर होगा लेकिन बस एक घण्टा खा जाती है !! आज चार दिसंबर था और शाम का धुंधलका जल्दी अपना साया फैलाने लग गया था। जैसे -जैसे झाँसी नजदीक आ रहा था मिटटी की महक भी और ज्यादा सौंधी सौंधी होती जा रही थी। तीन साल गुजारे हैं वहां -जिंदगी को एक "शेप " दी थी उस जगह ने। भले पैदा न किया हो लेकिन इंजीनियर के रूप में एक नया भविष्य गढ़ने में इस जगह ने अपना सबकुछ दिया मुझे। बस वाले से कई बार बोल चुका था -भैया पॉलिटेक्निक आ जाए तो उतार देना !! मुझे लगा वो चिड़चिड़ा गया था कुछ लेकिन इस बात की फ़िक्र किसे थी ? फ़िक्र थी तो जल्दी से जल्दी हॉस्टल पहुँचने की। बस ने ठीक उसी जगह उतारा जहां करीब 20 साल पहले , पहली पहली एडमिशन के लिए पहली बार झांसी पहुँचने पर ऑटो वाले ने उतारा था। उस मिटटी को नमन किया , उसकी रज़ को माथे से लगाया। आँखें भर आईं -जब पहली बार यहाँ आया,   मूंछें भी नहीं आई थीं और अब वही मूंछें श्वेत रंग में रंग जाने को उतावली हैं ! ऐसा करते हुए कुछ "स्टूडेण्ट " ने मुझे देख लिया था और ये अंदाज़ा लगा लिया था कि हो न हो ये बंदा यहीं से पढ़कर गया होगा। थोड़ी बात हुई तो उन्होंने हॉस्टल चलने का अनुरोध किया। मैं तो आया ही इसीलिए था लेकिन उससे पहले एक जरुरी काम था। वो काम था उन दोनों परिवारों से मिलना जिनका मुखिया इन बीस सालों में इस दुनियां से जा चुके थे। वो थे चाय की टपरी चलाने वाले दो भाई -प्रेम और मुन्ना ! मेरे सगे नहीं थे वो लेकिन पता नहीं क्यों जब उनके जाने की खबर मिली , दिल दुखी हुआ था। चाय-समोसा फिर खाऊंगा आज लेकिन आज मुन्ना या प्रेम नहीं , मुन्नालाल की धर्मपत्नी हैं और उनके बच्चे हैं। हाँ- उनकी धर्मपत्नी को आवाज़ से मेरी पहचान हुई। सच में हुई या नहीं !! कहना मुश्किल है !! वो एक चाय जो दोस्तों के साथ एक घण्टे तक चल जाती थी आज पांच मिनट में खत्म हो गई। इन तीन सालों का पूरा लेखा जोखा आप मेरी भविष्य में आने वाली किताब -" कमरा न 61 " में विस्तृत रूप से पढ़ेंगे . 

ओह ! वो हॉस्टल जिसकी चाहरदीवारों में दोस्तों की हंसी गूँजती थी ...चहचाहट रहती थी ... जिसने न जाने कितनी प्रेम कहानियों को जन्म दिया था ...कितने जाने -अनजाने रिश्तों की नींव रखी थी ...वो हॉस्टल अब बंद हो चुका था। खैर , बराबर में ही अब छोटे -छोटे दो नए हॉस्टल बन गए हैं लेकिन अपने हॉस्टल की यादें नहीं जातीं।
आज पूरा दिन मैं और डॉ संजय शर्मा जी सम्पर्क में थे। डॉ संजय शर्मा जी झांसी में ही क्लिनिक चलाते हैं। उनके पास पहुंचते -पहुँचते साढ़े सात बज चुके थे। झांसी की एक -एक जगह जानी पहचानी थी लेकिन आज कुछ बदलाव दिख रहा था। समय के साथ बहुत चीजें बदलती हैं। कभी नौकरी में साथ रहे एक और मित्र संजय सिंह जी से भी मुलाकात तय थी तो उन्हें भी डॉ साब के क्लिनिक पर ही बुलवा लिया। अब खाना खाकर झाँसी स्टेशन पहुँचते हैं जहाँ से सुबह ललितपुर तक पैसेंजर ट्रेन पकड़नी है। ये यात्रा वास्तव में पैसेंजर ट्रेन की यात्रा ही है जिसमें मुझे नई दिल्ली से केरला एक्सप्रेस के रूट को follow करते हुए तिरुवनंतपुरम तक पहुंचना है। 

झाँसी स्टेशन पर बैठा समय व्यतीत कर रहा था कि फ़ोन बजा - मेरे ही अनन्य मित्र थे दूसरी तरफ। कहाँ हो योगी जी ?
जी - झांसी स्टेशन पर हूँ जी !!
मित्र - क्यों ? स्टेशन पर क्यों ? होटल क्यों नहीं लिया ? 
मैं - नहीं सर ! ट्रेन सुबह है बहुत जल्दी। मैं इतना जल्दी जाग नहीं पाता हूँ इसलिए स्टेशन पर रुकूंगा इधर उधर कहीं। 
मित्र - अरे नहीं ! आप होटल जाइये !! आपके लिए रूम बुक हो चुका है 
मैं - सर ! इसकी जरुरत नहीं है !! मैं जाग नहीं पाऊंगा और मेरी ट्रेन छूट जायेगी !! 
मित्र - नहीं छूटेगी ! मैं जगा दूंगा आपको !! बताइये कितने बजे जगाना है ?
मैं -साढ़े चार बजे !! 
अंततः मैं होटल पहुंचा और वहां एक attendant को ताकीद कर दिया -भाई मुझे साढ़े चार बजे जगा देना और चाय जरूर पिला देना। यही जगाने वाला मैसेज ग्रुपों में भी पोस्ट कर दिया !

अब सुबह का हाल देखिये -उस अटेंडेंट ने 20 -22 बार दरवाजा खटखटाया होगा ! आखिर मैं जाग गया और चाय भी मिल गयी। समय था चार बजकर पचास मिनट ! फ़ोन देखा - 63 Missed calls ! 19 Missed calls -संजय कौशिक जी सोनीपत वालों की , छह मिस्ड कॉल्स किशन बाहेती जी कोलकता वालों की , 15 मिस्ड कॉल्स श्रीमती जी की , चार मिस्ड कॉल नयन सिंह जी झांसी वालों की , दो मिस्ड कॉल मुकेश पाण्डेय जी की और कुछ कॉल अन्य मित्रों की लेकिन कुम्भकर्ण की नींद फिर भी नहीं खुली  :)  मगर फिर भी खुली तो .. फटाफट नहा धोकर भागमभाग की। ट्रेन आखिरकार मिल गयी !! थैंक गॉड

ये झांसी -बीना पैसेंजर ट्रेन है..... या झांसी-टीकमगढ़ पैसेंजर भी कह सकते हैं इसे। ललितपुर पहुंचकर दो हिस्से में बंट जाती है -एक हिस्सा बीना और दूसरा हिस्सा टीकमगढ़ और फिर खजुराहो तक चला जाता है। इंजन के बिलकुल पास वाला डिब्बा खाली सा ही था। अखबार खोल के खिड़की के पास वाली सीट अपनी हो गई। जी , मुझे अब भी अखबार ऑफलाइन ही पढ़ना अच्छा लगता है। बिजौली रेलवे स्टेशन आ गया है। सर्दी की आहट है और लोग कम्बल में खुद को लपेटे हुए ट्रेन की तरफ सरकते हुए दीखते हैं।

अगला स्टेशन खजराहा है जो खजुराहो की याद दिलाने की कोशिश कर रहा है। नालायक है ये !! खजुराहो की मीठी मीठी यादों को कुरेद रहा है। मैं इसे इतनी आसानी से खजुराहो मान लेने को तैयार नहीं हूँ।

बबीना बहुत छोटा सा ही स्टेशन है लेकिन बीना के साथ जुड़कर बड़ी ख्याति मिल गई। बीना-बबीना एक साथ बोला जाता है जैसे गेहूं के साथ खरपतवार का जिक्र होना ही है वैसे ही बबीना की बात होनी है जबकि दोनों में करीब 150 किलोमीटर की दूरी होगी।

बढ़पुरा और बसई स्टेशन निकल चुके हैं। इस बीच इसी ट्रेन के ड्राइवर साब हमारे पास में आकर बैठ गए हैं। के. के. सिंह जी। वो इस ट्रेन के एक हिस्से को ललितपुर से टीकमगढ़ लेकर जाएंगे। खूब बातें हुईं और उनकी तरफ से टीकमगढ़ चलने का प्रस्ताव भी मिला लेकिन ये यात्रा सिर्फ सेंट्रल रेलवे तक ही सीमित रखनी है।

माताटीला स्टेशन था। ये एक ऐसा स्टेशन था जिसका नाम मैं पहले से जानता था। यहाँ बेतवा नदी पर एक बाँध बना है। कभी -कभी झाँसी के हॉस्टल से मित्र यहाँ पिकनिक मनाने जाया करते थे।

तालबेहट स्टेशन आ पहुंचे थे। तालबेहट ऐसे छोटा सा टाउन है लेकिन यहाँ एक पुराना किला है जिसे राजा मरदान सिंह ने बनवाया था। राजा मर्दान सिंह , रानी लक्ष्मीबाई के साथ युद्ध में अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़े थे। हमारे मित्र प्रमोद बबेले जी का बाद में मैसेज आया -योगी जी आप तालबेहट से निकल गए और हमें याद भी नहीं किया !! समय की अपनी सीमाएं होती हैं अन्यथा तो हम सब न जाने कितने लोगों से मिलने को आतुर रहते हैं।

बिजरौठा स्टेशन गया है अभी अभी और जखौरा आने वाला है।



 ट्रेन धीरे धीरे अपनी रफ़्तार से , सवारियों को उतारते-चढ़ाते चली जा रही है और चाहती है कि मुझे समय से ललितपुर पहुंचा दे। अभी दैलवारा स्टेशन आया है। ललितपुर से बिलकुल पहले का स्टेशन। दैलवारा है , दिलवाड़ा नहीं जो आप उतर के "दिलवाड़ा के प्रसिद्ध जैन मंदिर " देखने चल दो :)


 तो जी साढ़े नौ -दस बजे होंगे और हमें हमारी आज की अपनी मंजिल ललितपुर के दर्शन होने लगे थे। आज पूरा दिन ललितपुर के नाम रहेगा। आज जो घुमक्कड़ी होगी वो ललितपुर से करीब 30 किलोमीटर दूर देवगढ़ की होगी जहां बहुत ही खूबसूरत "दशावतार मंदिर " और "रमणीक स्थल में बने जैन मंदिरों" में जाने का सौभाग्य मिलेगा  कुछ चाय -नाश्ता करते हैं और फिर बढ़ते हैं आगे। ....



じゃあ また......See You 

शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

Datia Mahal : Datia (M.P)

दतिया महल : दतिया
Date of Journey : 04 Dec.2019 


दतिया ! मध्य प्रदेश का एक छोटा सा शहर जो माँ पीताम्बरा पीठ के होने से ज्यादा पहचाना जाता है। पीताम्बरा पीठ के दर्शन के लिए उस वक्त ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी। वैसे भी दोपहर में स्थानीय लोग मंदिर के दर्शन को नहीं जाते , या तो सुबह या शाम को आरती के समय उनका ज्यादा आना जाना रहता है। लेकिन मेरे लिए यही वक्त उचित था।


मंदिर से निकला तो दतिया महल की तरफ मुंह करके खड़ा हो गया। मैं आज शाम तक दतिया से करीब 20 KM दूर सोनागिरि भी जाना चाहता था इसलिए थोड़ी देर ये सोचता रहा कि पहले कहाँ जाऊं ? दतिया महल या सोनागिरि !! खड़े -खड़े क्या सोचना , चलो कचौड़ी खाते हुए सोचते हैं !! और जब तक दो कचौड़ी with रायता खत्म होतीं तब तक मन तय कर चुका था कि पहले दतिया महल चलेंगे। 

ज्यादा दूर नहीं है मंदिर से लेकिन रास्ता घूम घाम के था इसलिए पैदल का मोह छोड़ दिया और ऑटो पकड़ के महल के बिलकुल सामने पहुँच गए। पहली नजर में ही समझ में आ गया कि इस महल को इसके ही हाल पर छोड़ दिया गया है। अंदर एक कर्मचारी टिकट फाड़ रहा है और टिकट काउंटर के नाम पर बस एक कुर्सी मेज पड़े हैं। 25 रूपये का टिकट है लेकिन टिकट काउंटर की हालत उन काउंटर से भी बुरी है जहां 10 -10 रूपये का टिकट मिलता है। महल के सामने सूअर अपना गंगा स्नान करने में व्यस्त हैं। अगर आप दतिया में हैं और आपके पास दो तीन घंटे का समय है , अगर आप net Savvy नहीं हैं और आपको ये नहीं मालुम कि दतिया में मंदिर के अलावा कुछ और भी है ! तो सच मानिये आपको पता लगेगा भी नहीं और आप वापस घर पहुँच के अचंभित हो जाएंगे जब आपको कहीं से ये जानकारी मिलेगी कि दतिया में मंदिर के अलावा भी बहुत कुछ है !! एक बोर्ड तक नहीं है पूरे शहर में !! जी हाँ भाईसाब !! संभव है मुझे न दिखा हो बोर्ड लेकिन मैंने इस बारे में ऑटो वाले से पूछा भी था , उसने मना किया । मतलब आपके शहर में इतना कुछ है लेकिन आप उसका प्रचार ही नहीं कर रहे ?

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाओं और ईद की मुबारकवाद के फ़र्ज़ी साइन बोर्ड से शहर भर को गंदा किये रहते हो लेकिन दतिया महल का एक बोर्ड , बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन पर नहीं लगाओगे ? अरे इतिहास ने इतना कुछ आपको दिया है तो उसे संवारिये , सजाइये , लोगों को दिखाइए ! आपके ही भाई -बंधुओं को रोज़गार मिलेगा।चाय -पकोड़ी ज्यादा बिकेगी , चना -मुरमुरा बिकेगा। होटल में लोग रुकेंगे लेकिन नहीं ! करेंगे नहीं कुछ बस बकेंगे !!

दतिया महल को बीर सिंह महल भी कहते हैं और इसकी सबसे बड़ी खासियत इसका सात मंजिल का होना है। बीच में एक सेंट्रल बिल्डिंग है जिसके चारों दिशाओं में तीलियों की तरह बहुत ही शानदार खम्भे बनाये गए हैं। सात मंजिलों की वजह से इसे सतखण्डा महल भी बोलते हैं बहुत लोग। ऐसे बताते हैं कि बुन्देलखण्ड के राजा महाराजा बीर सिंह देव जी ने पूरे देश में ऐसे 52 Monuments बनवाये जिसमें से सबसे बड़ा यही है। इसे बनाने में कारीगरों को नौ साल का समय लगा था। नौ साल लगा मतलब फिर भी जल्दी ही बना दिया !! 1614 ईस्वी में बना ये महल सात मंजिल का है और विस्मय की बात ये कि इसे बनाने में केवल ईंट , सीमेंट या बालू का ही उपयोग किया गया है , लोहे या लकड़ी का कोई उपयोग नहीं है।

मजे की बात ये है कि इतने बड़े महल में कभी कोई राजा या रानी नहीं रही। इस महल को बनाने का एकमात्र उद्देश्य जहांगीर के दतिया आने का एक निशान बनाने का , एक यादगार बनाने का था। राजा बीर सिंह देव भी कभी इस महल में नहीं रहे और ऐसे प्रमाण भी नहीं मिलते कि वो यहां एक दो दिन के लिए भी आये हों। खैर बड़े लोग छोटे छोटे शहरों में ऐसे ही महल बनाकर भूल जाया करते हैं। मैंने गिने नहीं लेकिन वहां उपस्थित लोग इस महल में 440 कमरे बताते हैं। वो खैर अलग बात है लेकिन जैसे जैसे आप ऊपरी मंजिलों पर पहुँचते हैं इसकी सुंदरता और भी अच्छी लगने लगती है। आखिर के कुछ खंड यानी मंजिलें बंद हैं लेकिन जितना खुला है अच्छा लगता है। हाँ जाते हुए पहले तल पर जो करिडोर हैं , उनमें बदबू सी आती रहती है लेकिन जब आप अंदर मुख्य महल के प्रांगण में पहुँचते हैं तो इसके चमकीले खम्भे देखकर मन प्रसन्न हो जाता है !! मौका मिले तो जाइएगा जरूर !! 












मुझे सबसे सुन्दर ये खम्भे लगे जो इसी तरह चारों दिशाओं में बनाये गए हैं 


इस महल का वीडियो भी बनाया था जिसका लिंक यहाँ दे रहा हूँ !! अच्छा लगे तो बताइयेगा जरूर !!https://www.youtube.com/watch?v=bxmgnMxDaJM&t=107s