गुरुवार, 29 मई 2014

Garden of Five Senses ( गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसस )


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गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसस घूमने के लिए मुझे दो बार जाना पड़ा ! पहली बार गया तो पता पड़ा कि शाम छह बजे तक ही खुलता है और मैंने अपनी कलाई घड़ी में देखा तो सवा छह बज रहे थे ! मतलब आना बेकार रहा |  लेकिन फिर भी इधर उधर देख कर और टिकेट की कीमत वगैरह पता करके चला आया ! तब टिकट 20 रूपया का था , यानी 18 अप्रैल 2014 को ! 

गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसस तक पहुँचना बहुत ही आसान है , बस महरौली -बदरपुर रोड पर स्थित साकेत मेट्रो स्टेशन पर उतरिये,  उसी साइड में थोड़ा सा चलिए और ऑटो लीजिये 20 रूपये में अकेले के लिए ! पैदल चलने की शक्ति और हिम्मत है तो ज्यादा नहीं बस 1 या डेढ़ किलोमीटर ही होगा ! मजे मजे में चलते जाइए , अफ्रीकन लडकियां दिखती रहेंगी नए नए फैशन के कपडे पहने हुए ! 

वहाँ जाने का अगला मौका मिला 2 मई 2014 को ! शुक्रवार का दिन था यानि पक्का था कि गार्डन खुला होगा ,सोमवार को बंद रहता है ! ये गार्डन ही क्या दिल्ली के ज्यादातर घमूने वाली जगहें सोमवार को बंद ही रहती हैं ! ये अच्छा भी है कि ज्यादातर जगहों पर लोग घूमने के लिए रविवार को जाते हैं इसलिए रविवार को सभी जगहें खुली रहतीं हैं ! 

कैमरा और मेट्रो कार्ड उठाया और निकल लिए गार्डन देखने ,  पांच इन्द्रियों वाला बाग़ ! इस जगह को सईद उल अज़ाब  गाँव के नाम से भी जाना जाता है ! इसे दिल्ली पर्यटन निगम ने बनाया तो ये सोचकर होगा कि दिल्ली के लोगों को घूमने , पिकनिक मनाने की बढ़िया जगह मिल जायेगी लेकिन मुझे नहीं लगता कि यहां कोई भी भला आदमी अपने बच्चों को लाता होगा घुमाने के लिए ! क्यों ? आगे पढ़ेंगे ! 

सन 2003 में शुरू हुए इस गार्डन को बनाने का उद्देश्य मानव को प्रकृति को समझने और महसूस करने के माध्यम के तौर पर रहा होगा ! पाँचों इन्द्रियों को दर्शाते चित्र आपको दिखेंगे ! मैं दोपहर में गया था वहां ! टिकट खिड़की पर पहुंचा तो जो टिकट 15 दिन पहले 20 रुपये का हुआ करता था वो 30 रुपये  का कर दिया था ! आया हूँ तो देखूंगा जरूर ! मैंने खिड़की में हाथ डाला और उसे कहा एक टिकट देना भाई ! बोला अकेले हो ? मैंने कहा हाँ ! उसने टिकट दे दिया , फिर दोबारा उसने पूछा अकेले ही हो , मैंने कहा हाँ भाई हाँ ! अकेला ही हूँ ! वो  मुस्कराया , मुझे ऐसा लगा ! भीड़ बिलकुल भी नहीं थी , शायद दोपहर की वजह से और गर्मी की वजह से ! 

अंदर चला गया , आधा टिकट गेट पर बैठे आदमी ने फाड़ लिया और आधा मुझे पकड़ा दिया ,बोला अकेले हो ? मैंने कहाँ हाँ ! थोड़ा ही अन्दर गया होऊंगा तो धीरे धीरे सब समझ आने लगा कि हर कोई ये क्यों पूछ रहा है - अकेले हो ? असल में मैं शायद एकमात्र आदमी या ये कहूँ घुमक्कड़ होऊंगा जो अकेला घूम रहा था , सबके साथ अपने अपने बॉय फ्रेंड या गर्ल फ्रेंड थे जो एक दूसरे को बाहों में भरे हुए घूम रहे थे ! खैर में उन दृश्यों को देखते देखते , कभी शर्माता हुआ , कभी इस कल्चर को महसूस करता हुआ , बुदबुदाता हुआ आगे निकल  मतलब के फोटो खेंच लेता ! बहुत घना लेकिन छोटे छोटे झाड़ झंकड़ों का ये जंगल बहुत बड़ा है और मैं जैसे जैसे इस जंगल में घुसता गया और मेरी आँखें शर्माने लगीं ! वो जो कुछ एक पति पत्नी घर के अंदर करते हैं , मुँह पर दुपट्टा डालकर या फिर झाडी के ऊपर दुपट्टा डालकर वो सब वो लोग कर रहे थे जिन्हें हम देश का युवा कहते हैं , जो एक दूसरे के बॉय फ्रेंड - गर्ल फ्रेंड होते हैं ! मैं गाँव से हूँ इसलिए शायद ज्यादा मॉडर्न नहीं हूँ !  मैं खुद शर्मा गया ! वहां से जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही और अंदर जंगल में घुसता जाता और वहां हर जगह वो ही एक जैसे दृश्य , जैसे आज सबको अपनी मन मर्जी  करने की छूट मिली हुई हो ! आखिर में वहाँ काम कर रहे एक मजदूर से रास्ता पूछा और तब बाहर निकलकर आया ! ओह ! तो इसलिए वो पूछ रहे थे- अकेले हो ? और यही जवाब है ऊपर लिखे क्यों का ! 
आइये फोटो देखते हैं : 
पत्थरों को काटकर कारीगरों ने क्या खूबसूरत नमूने गढ़े  हैं , दिल से तारीफ निकलती है ! 

शनिवार, 24 मई 2014

Gandhi Smriti ( गाँधी स्मृति )

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तीस जनवरी मार्ग, नई दिल्ली, में पुराने बिड़ला भवन में स्थित गांधी स्मृति वह पावन स्थल है जहाँ पर 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की इह लोक लीला समाप्त हुई। इस भवन में महात्मा गांधी 9 सितम्बर, 1947 से 30 जनवरी, 1948 तक रहे थे। इस प्रकार पावन हुए इस भवन में गांधी जी के जीवन के अंतिम 144 दिनों की अनेक स्मृतियाँ संग्रहित हैं।  पुराने बिड़ला भवन का भारत सरकार द्वारा 1971 में अधिग्रहण किया गया और इसे राष्ट्रपिता के राष्ट्रीय स्मारक के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। 15 अगस्त, 1973 को इसे जनसामान्य के लिए खोल दिया गया । यहाँ संग्रहित वस्तुंओं में वह कक्ष है जिसमें महात्मा गांधी ने निवास किया था तथा वह प्रार्थना स्थल है जहाँ वह प्रत्येक दिन संध्याकाल में जन सभा संबोधित करते थे । इसी स्थल पर गांधीजी को गोलियों का शिकार बनाया गया। यह भवन तथा यहाँ का परिदृश्य उसी रूप में संरक्षित है जैसा उन दिनों में था।

इस जगह पर जाने के लिए न जाने कितनी बार सोचा होगा , लेकिन जब वहां पहुँचता तो कभी 5 बज गए होते तो कभी सोमवार पड़ जाता ! असल में मेरा हंगरी भाषा का कोर्स तीस जनवरी मार्ग के पास ही स्थित हंगरी कल्चरल सेंटर में चल रहा था जो सोमवार और शुक्रवार को 6 बजे शुरू होता है , तो ये दो ही दिन मुझे मिल पाते थे ! जबकि गाँधी स्मृति 5 बजे बन्द हो जाता है और सोमवार को साप्ताहिक अवकाश है उनका !  

आखिर कॉलेज की छुट्टी पड़ गयी शनिवार की और इस बार मन बना लिया कि अब तो देख के आना ही है गाँधी स्मृति को ! इसे देखने के बाद मैं ये कह सकता हूँ कि अगर आप अपने बच्चों को गांधी बाबा के विषय में बताना चाहते हैं  तो कम से कम एक बार उन्हें इस संग्रहालय में जरूर ले जाएँ ! इस संग्रहालय में महात्मा गांधी द्वारा यहाँ बिताए गए वर्षों के संबंध में  फोटोग्राफ, मूर्तियाँ, चित्र, भित्तिचित्र, शिलालेख तथा स्मृतिचिन्ह संग्रहित है। गांधीजी की कुछ निजी वस्तुएँ भी यहाँ सावधानीपूर्वक संरक्षित हैं। 


आइये फोटो देखते हैं







गाँधी स्मृति में लगी आकर्षक प्रतिमा
अहिंसा घण्टा
यहीं शहीद हुए थे महात्मा गाँधी 

30 जनवरी सन 1948 को शाम 5 बजकर 17 मिनट पर शहीद हुए महात्मा गांधी 




गांधी स्मृति में लगी एक फोटो में गांधी जी अपने बाल कटवा रहे हैं 

 महात्मा गाँधी के अलग अलग उम्र के फोटो
गाँधी स्मृति में लगी आकर्षक प्रतिमा


​शीशे में महात्मा
 महात्मा गांधी का बिड़ला हाउस में रुकने का लेखा जोखा 

मंगलवार, 13 मई 2014

दिल्ली .................दिल से



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कभी कभी जब बाहर घुमक्कडी करने के लिये समय न मिले तो अपने आसपास के स्थानों को भी देख आना चाहिये ! 1 मई को पत्नी को एम्स के डॉक्टरों ने ऑपरेशन के लिये भर्त्ती तो कर लिया लेकिन ऑपरेशन नही किया ! 2 मई भी इसी इंतज़ार में चला गया और जब ये पता चला कि अब सोमवार यानि 5 मई को ही ऑपरेशन हो सकेगा तो उठाया अपना कैमरा और निकल लिया दिल्ली के दिल देखने ! बहुत तेज धूप थी, असहनीय ! दिल्ली में ठण्ड भी कड़ाके की पड़ती है और गर्मी भी कड़ाके की ! लेकिन जब जाना  है तो जाना ही है ! 
आदम खान का मकबरा :

मोबाइल में मैप देखा तो महरौली इलाके में स्थित आदम खान का मक़बरा ज्यादा नजदीक लगा ! यानि क़ुतुब मीनार मेट्रो स्टेशन पर उतरकर थोड़ा ही पैदल चलना पड़ेगा ! मैट्रो स्मार्ट कार्ड हमेशा ही पॉकेट में होता है , तो न टिकेट के लिये लाइन में लगने की दिक्कत और न कोई इंतज़ार ! क़ुतुब मीनार मैट्रो स्टेशन पहुँचकर बाहर निकला और पता किया तो असलियत समझ आई कि बेटा इतना भी नजदीक नहीं है कि तुम आदम खान के मक़बरे तक पैदल चले जाओ ! और वो भी इतनी गर्मी में ! खैर क़ुतुब मीनार तक बस ले ली पाँच रूपये किराया लगा और फ़िर पैदल पैदल ही निकल लिया आदम खान का मक़बरा देखने ! 

 

आदम खान का मकबरा अगर कहा जाये तो क़ुतुब मीनार के बिल्कुल पीछे है लेकिन वहां तक आने का कष्ट न सैलानी करते हैं और न भारत सरकार का एएसआइ ! इसलिए क़ुतुब मीनार जितना सुन्दर लगता है आदम खान का मकबरा उतना  ही गंधियाता है ! 
किसी के एक आँसू पर हज़ार दिल धड़कते हैँ
किसी का उम्र भर रोना यूं ही बेकार जाता है !!

इतिहास में थोड़ी सी भी रुचि रखने वाले जानते हैं कि आदम खान , महामंगा का बेटा और अकबर का सिपहसालार था ! लेकिन जब आदम खान ने अकबर के विश्वस्त अतगा खान की हत्या कर दी तो अकबर ने उसे दो बार छत से फैंक कर मारने का फरमान जारी कर दिया ! और ये खबर अकबर ने स्वयं महामंगा को सुनाई ! इस खबर के बाद महामंगा भी 40 दिन के बाद स्वर्ग सिधार गयी ! 
ये मक़बरा , दिल्ली के महरौली इलाके में स्थित विश्व प्रसिद्ध कुतुबमीनार के उत्तर में स्थित है ! ज्यादातर स्थानीय लोग इसे भूलभुलैया के नाम से भी जानते हैं ! सन 1561 ईस्वी में बने इस मकबरे में ही आदम खान और उस की माँ महामंगा की कब्रें बनाई गईं ! 

लेकिन सन 1830 में एक ब्लैक नामक अँगरेज़ ने मकबरे को अपना निवास बना लिया और कब्रों को वहाँ से हटवा दिया , जिस जगह पर आदम और महामंगा की क़ब्रें हुआ करती थीं उस जगह को ब्लैक  ने डाइनिंग हॉल बना लिया ! ब्लैक की मौत के बाद भी ये मक़बरा कभी पुलिस थाने के रूप में और कभी डाकखाने के रुप में प्रयोग में लाया जाता रहा ! आखिर लार्ड कर्जन के आदेश के बाद इस जगह को ख़ाली किया गया और आदम खान की कब्र को वापस लाया गया ! लेकिन महामंगा की कब्र कभी नही आई !


आदम खान का मक़बरा

आदम खान का मक़बरा

आदम खान का मक़बरा , दूसरे कौण से

आदम खान का मक़बरा , दूसरे कौण से

आदम खान के मक़बरे का बाहरी हिस्सा

आदम खान के मक़बरे का अंदरूनी हिस्सा

कुतुब काम्प्लेक्स में पहले कभी समय बताने वाला डायल


कुतुब काम्प्लेक्स में पहले कभी समय बताने वाला डायल


आदम खान के मक़बरे से दिखाई देता कुतुबमीनार


शाम के समय में कुतुबमीनार का सुन्दर चित्र

आदम खान के मक़बरे से दिखाई देता कुतुबमीनार


शाम के समय में कुतुबमीनार का सुन्दर चित्र

शुक्रवार, 9 मई 2014

बाय बाय जमशेदपुर

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जैसा कि मैंने अपने इसी यात्रा वृत्तान्त में कहा कि जमशेदपुर मतलब टाटा और इसीलिए इसका एक नाम टाटा नगर भी  है ! जमशेदपुर भी जमशेद जी टाटा के नाम पर ही है ! कोई अपने आपको कितना भी बड़ा देश भक्त क्यों न कहे लेकिन मैं समझता हूँ कि एक उद्योगपति से बड़ा देशभक्त कोई नहीं होता ! सवाल उठाया जा सकता लेकिन मैं ऐसा मानता हूँ क्यूंकि मुझे लगता है उसी की वजह से 10 - 20 से लेकर लाखों घरों के चूल्हे सुबह शाम जल रहे हैं ! इसलिए टाटा को शत शत नमन ! 

पिछले वृतांत में एक बात बताना भूल गया ! हुआ यूँ कि जब हमारी ट्रेन मुरी जंक्शनपर पहुँचीं तो मैं और सौरभ सारस्वत दौनों नीचे उतर गये ! हमें पानी और कोल्ड  ड्रिंक की बोतल लेनी थी ! हमारा डिब्बा इंजन की तरफ़ से चौथ डिब्बा था और पानी और कोल्ड ड्रिंक वाले की दुकान बहुत पीछे थी ! लोगों ने बताया था कि ट्रेन 10 मिनट रुकेगी यहां ! हम उतर गये और अपनी अपनी चीजें खरीदकर वहीँ स्टेशन पर ही बैठ गये ! 2 ही मिनट हुए होंगे कि ट्रेन सरकने लग गयी और सरकी क्या उसने बिना सीटी बजाये अच्छी खासी स्पीड भी पकड़ ली ! हमने दौड़ लगाई लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ ! अब तो हम बस यही सोच रहे थे कि चलो ये ट्रेन टाटानगर तक ही जाती है वहाँ शायद अपना सामान मिल जाये ! अगली ट्रेन का इंतज़ार  करने के अलावा और कोइ रास्ता ही नहीं था ! थक हार के बैठ गये ! जब हम दौड़ लगा रहे थे तब शायद हमें लोगों ने देख लिया होगा , तो  उन्हीं मैं से एक हमारे पास आया और बोला आप लोग भाग क्यों रहे थे ? हमने अपनी राम कहानी उसे सुनाई तो वो पास ही बैठ गया और आराम से बोला अभी आएगी लौटकर ! फिर उसी ने बताया कि इसका आधा हिस्सा राँची होते हुए राउरकेला जाता  है और आधा टाटानगर ! अभी लौटके आएगी और उसमें अभी एक डिब्बा और जुडेंगे यहॉं से ! ओह ! तो ये बात थी ! फिर तो ऐसे निश्चिंत हो गये जैसे अब कहीं जाना ही  नही है !

भले आप पूरे भारतवर्ष में महात्मा गाँधी , नेहरू जी और इन्दिरा जी की मूर्तियों के अलावा किसी और  की मूर्ति न देख पायें लेकिन ज़मशेदपुर में  तो आपको टाटा का ही जलवा देख़ने को मिलेगा ! बहुत कुछ दिया है टाटा ने इस शहर को ! मूलभूत सुविधाओं से लेकर एक पहिचान तक ! आसान नहीं होता ये सब ! 


पहली बार जे.एन ( जमशेत जी नुसरवान ज़ी ) टाटा , जिन्होने टाटा ग्रुप की नींव रखी , के प्रयासों को करीब से जाना और समझा ! एक पारसी होते हुए भारत को इतना सब देने का माद्दा ! मुझे पारसी बहुत अलग किस्म के लगते हैं ! कहीं पढ़ा था कि अगर एक पारसी के परिवार की मासिक आमदनी 90,000 रुपये है तो उसे गरीब माना जाता है ! और हमारे यहाँ ये शायद अमीर होने  और दिखने का पहला पड़ाव ! इन्होने कभी आरक्षण नहीं माँगा , कभी अपनी हैसियत के हिसाब से लोकसभा या राज्यसभा का  टिकेट नहीं माँगा ! सिर्फ अपना काम करना है !

आजकल बच्चे बाय बाय बोलते हैं लेकिन मैने देखा है कि गाँव में ज्यादातर माँ -बाप अपने बच्चों को टाटा , बाय बाय कहना सिखाते हैं ! टाटा एक परम्परा बन गयी है ! आसान नहीं होता ये सब ! 


अपनी ही लिखी एक हास्य कविता से एक पंक्ति भी जोड़ रहा हूँ शायद आपको पसन्द आये ! 

टाटा -बिड़ला -अम्बानी करते हैं मुझको फ़ोन 
कहते हैं ! घर में बच्चे भूखे हैं , दिलवा दो थोड़ा सा लोन !! 

अब चलते हैं ! फिर मौका मिला तो जमशेदपुर की जमीन और टाटा के प्रयासों को नमन करने जरूर आऊँगा ! 

टाटानगर में जो कुछ देखा उसके फ़ोटो दे रहा हूँ ! 



जमशेदपुर के चिड़ियाघर में रंगीन तोता ! इसका नाम लिखा था वहाँ , भूल गया














 ये सौरभ का स्टाइल है

जयंती सरोवर में बोटिंग

शुतुरमुर्ग जैसा दिखने वाला ईमू
और ये शुतुरमुर्ग


एक फोटू मेरा भी

लकड़ी से बनी बेहतर स्टेचू
मनमोहन सिंह द्वारा यहाँ 2009 में एक पेड़ लगाया गया


पार्क में खुले में पढ़ती लड़कियां , आश्रम की याद दिलाती हैं ! इनके टीचर ने हमें फोटू खेंचने के लिये मना किया था लेकिन तब तक हम क्लिक कर चुके थे

टाटा के परिवार के सदस्य होंगे कोई




रुसी मोदी सेंटर के पास ही बना पिरामिड जैसा कुछ ! उस दिन ये सेंटर बन्द था इसलीये अन्दर नही जा पाये

टाटा  बाबा




फिर मिलते हैं , किसी और जगह के विषय में जानने के लिये  ! 



बाय बाय !